#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं......
#सिखाता_नही_कर_के_दिखाता_हूं...
'सर! मुझे चार दिनों की छुट्टी चाहिए, गांव जाना है!'-बॉस के सामने अपना आवेदन रखते हुऐ संदीप ने कहा
'चार दिन! इकट्ठे! कोई खास बात है क्या?'--बॉस ने उत्सुकता वश पूछा।
'जी सर! पितृपक्ष चल रहा है ना, पिता को पिंडदान करना है!'
'क्या संदीप! कॉरपोरेट वर्ल्ड में काम करते हुए भी तुम्हारी सोच पिछड़ी की पिछड़ी रह गयी!'
'मैं समझा नहीं सर!'
'कहाँ पड़े हो इन झमेलों में! जानता हूँ, जीते जी खूब सेवा की है पिता की, माँ की सेवा के लिए अब तक बीवी-बच्चों को गांव में रख छोड़ा है! आखिर हासिल क्या होगा इनसे जीवन में!'
'एक पुत्र का जीवन उसके माँ-बाप का ही तो दिया होता है सर, उनकी सेवा में कुछ हासिल होने का कैसा लोभ!'
'मतलब नि:स्वार्थ!'
'पुत्रधर्म के पालन करने का आत्मसंतोष सर!'
चलो मान लिया! पर जो तुम ये इतना सब करते हो, क्या गारंटी है कि तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारे लिए करेंगे!'
'गारंटी भौतिक चीजों के मामले में देखी जाती है सर! मैं स्वयं के धर्म के प्रति उत्तरदायी हूँ, उनका उन पर ही छोड़ देता हूँ! वैसे मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे नहीं भटकेंगे!'
'इस विश्वास की वजह! ये चीजें सिखाते हो क्या उनको?'
'सिखाता नहीं, कर के दिखाता हूँ सर, इसलिए विश्वास है!'
'फिर भी मान लो, वो तुम्हारी तरह ना निकलें, जमाने की हवा लग जाय! फिर...!'
'ये भी स्वीकार है सर! ना मान से आह्लादित होना है और ना अपमान से दु:खी! जीवन की झोली में नियति जो डाल देगी, खुशी से स्वीकार कर लूंगा!'
'कहना आसान है, पर जीवन में ये उतरता कहाँ है!'
'उतरता है सर, अगर हम सच में प्रयास करें! जीवन में ढेर सारी चाह होती है, थोड़ा सा उन्हें त्याग दें तो राह सूझ जाती है! जीवन को बुलबुले की तरह मानकर जीना शुरु कर दीजिये, बनने-बिगड़ने के डर से मुक्त हो जायेंगे।"
#व्योमवार्ता
#पिततृपक्ष
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