शनिवार, 16 अप्रैल 2016

बड़े शहरो मे रोजगार व बच्चों से दूर होते बृद्धजन : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 16 अप्रैल 2016 शनिवार


16 अप्रैल 2016, शनिवार।

बड़े शहरो मे रोजगार व बच्चों से दूर होते बृद्धजन

एक प्रयास ईमानदारी से हो तो हमारी काफी कुछ समस्याये दूर हो सकती है।  कल हम लोगों के बुजुर्गवार सुरेन्दर चाचा जी से बातचीत हो रही थी। उन्होने पूछा कि ठीक है बनारस मे सिक्स लेन रोड, इंटरनल रिंगरोड, एक्सटर्नल रिंगरोड, मेट्रो रेल, इंटरनेशनल हाईक्लास हवाईअड्डा बन रहा है , अच्छी बात है पर इससे आमजन को क्या फायदा होगा? नौजवान इन यातायात माध्यमो का उपयोग दिल्ली बंगलोर हैदराबाद पूणे जैसे इम्लायमेंट हब शहरो मे आने जाने के लिये करेगें पर इस शहर का आम बनारसी (जो बच्चे को पाल पोस इसलिये रहा है कि वे बुढ़ापे मे उसके साथ रहेगें) किस लाभ मे रहेगा? बनारस मे रहने वाले लोगो की हालत उस गॉव के लोगो जैसी होती जा रही है जहॉ के लोग शहरीकरण के भुलावे मे अड़ोस पड़ोस के शहरो की ओर भाग रहे हैं। और बनारस जैसे शहर के लोग इन इम्लायमेंट हबसिटी की ओर। वहॉ के लोग अमेरिका इंगलैण्ड आष्ट्रेलिया। यह क्रम आगे भी चलता रहता दिख रहा है।
सुरेन्द्र चाचा जी उद्योग विभाग से अवकासप्राप्ति के पश्चात बनारस मे ही रहते हैं। दोनो बेटियॉ दिल्ली मे तो  बेटा इनके साथ ही बनारस में। बेटा हनी भी बेहद सांस्कारिक व सभ्य। फिलहाल खाली। इसलिये नही कि उसमे योग्यता की कमी है, बल्कि इसलिये कि बनारस शहर ने अभी उसे उपयुक्त अवसर नही दिया है। हनी का ड्रीमप्रोजेक्ट पाईपलाईन मे है और उसके प्रयासो से शीघ्र ही साकार होगा।
लगे हाथ बात कल की भी ।अखबार मे एक खबर थी कि समाज मे बृद्धजन की संख्या बढ़ी है पर परिवार के साथ रहने वाले बुजुर्गों की संख्या मे गिरावट आयी है। देखा जाय तो दोनो समस्यायो के मूल एक ही जगह से जुड़े है। एक पढ़ा लिखा नौजवान बेहद बुझे मन से अपने शहर, अपने मॉ बाप, दोस्तो को छोड़ कर बड़े शहर मे धक्के खाने, संघर्ष करने, कदम दर कदम धोखा खा के भी खुद की पहचान बनाने इस लिये जाने को मजबूर होता है क्योकि उसे अपने बेहद अपने शहर मे रोजगार के लिये कोई मौका ही नही मिलता। अब औरों की देखादेखी नये शहर मे एक संघर्ष के बाद वह लोन ईएमआई पर दो या तीन कमरे का फ्लैट, एसी गाड़ी, अच्छी ब्रांडेड लाईफ स्टाईल , ऱिसार्ट मे छुट्टीयॉ, एयर टिकट, ट्रेन मे प्रीमियम क्लास या एसी क्लास जौसी सुविधाये तो पाता है पर इस परफ्यूम्ड व कलर्ड लाईफस्टाईल के लिये जिन अंधियारे को वह ढँकते तोपते है वह उनकी मजबूरी भी है और बहाना भी। नतीजा बीपी सुगर कैलोस्ट्राल थायराईड हाईपरटेन्सन और इन सब का परिणाम अल्पायु।
बहरहाल मुद्दे से न भटकते हुये बात सुरेन्द्र चाचाजी के सुझाव की। उनका मानना है कि यदि सरकार छोटे छोटे शहरों मे रोजगार के बेहतरी के लिये इंतजाम करें तो बच्चो को अपने बूढ़े मॉ बाप को छोड़ कर जाने की जरूरत ही क्या है? बात को स्थानीय स्तर पर व्यवहारिक रूप से देखते है पिछले बीस पचीस वर्षो से बनारस व आसपास जैसे शहर मे कोई कल कारखाना नही लगाया गया बल्कि जो कल कारखाने थे उन्हे भी बंद कर दिया गया। औराई चीनी मिल, कालीन कारखाने, बनारसी साड़ी बुनकरी, कंक्रीट स्लीपर कारखाना खालिसपुर, खिलौना उद्योग, एशिया साइकिल कारखाना , शंकरगढ़ सीसा कारखाना, चावल मिल , कुकिंग कोल कारखाना एक के बाद एक बंद होते गये। मजदूर, बुनकर, वर्कर बेरोजगार होते गये। आज बनारस व आसपास के युवको के पास मार्केटिंग व ईंस्योरेंस के अलावा कोई काम ही नही है ऐसे मे उनकी मजबूरी है कि वे अपने रोजी रोटी के लिये बड़े शहरो का रूख करते है।
अगर सरकार मनरेगा, पीएमआरवाई जैसे घोटालों से भरपूर व बेहद खर्चिली योजनाओ के बजाय प्रतिवर्ष एक विधानसभा क्षेत्र मे २ से ५ हजार लोगो को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने वाली क्षेत्रिय जरूरत व संसाधनो पर एक कारखाना लगाये तो प्रतिवर्ष लगभग १० से २५ हजार लोगो की आजीविका आराम से चलायी जा सकेगी और शहरो की तरफ पलायन रूकेगा।
बड़ा सवाल यह है क्या हमारी सरकार ईमानदारी से इस दिशा मे कोई कदम उठाने को इच्छुक होगी?

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