शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

व्योमवार्ता/ न्याय दिलाने वालों का वर्तमान संघर्ष : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 24 अप्रैल 2020

न्याय दिलाने वालों का वर्तमान संघर्ष

                                                                      *व्योमेश चित्रवंश

          कोरोना संकट से देश को लाकडाऊन हुये एक महीने से ऊपर हो गया है, पर देश की अदालतों मे यह लाकडाऊन उससे भी दो तीन दिन पहले ही शुरू हो गया था यदि हम उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहॉ की अदालतें कमोबेस होली की छुट्टियों से ही लाकडाऊन का दंश झेलने लगी थी। होली की छुट्टी के बाद 14 व 15 मार्च को दूसरे शनिवार व रविवार का अवकाश था।16 मार्च को प्रदेश बार कौंसिल के आह्वान पर अधिवक्तागण न्यायिक सेवा से विरत रहे। 17 मार्च से उच्च न्यायालय के आदेश से केवल अत्यावश्यक मामलों , स्टे व जमानत पर सुनवाई किये जाने के आदेश के साथ ही न्यायिक प्रक्रिया मे किसी भी कागजात का आदान प्रदान, पत्रावलियों पर हस्ताक्षर आदि बंद कर दिये गये और 23 मार्च की आधी रात से पूरे देश मे लाकडाऊन के चलते अदालतों के ताले बंद कर दिये गये। तब से यह व्यवस्था फिलहाल 27अप्रैल तक जारी है और उम्मीद है कि अभी कम से कम 3 मई तक, और आवश्यकतानुसार आगे भी अदालतों मे यह लाकडाऊन जारी रहेगा। कोरोना से बचाव के लिये यह आवश्यक भी था क्योंकि न्यायालय परिसर किसी जनपद का वह महत्वपूर्ण और सबसे भीड़ भाड़ वाला स्थान है जहॉ पूरे जनपद से विभिन्न वर्ग के लोग विभिन्न स्थानों से विभिन्न प्रकार से आते है ऐसे मे संक्रमण की सबसे ज्यादा संभावनाएं वहॉ मिल सकती है। परन्तु इस लाकडाऊन ने न्यायालयों पर आधारित सेवा से आय उपाार्जन करने वालों के समक्ष घोर अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है । यह संकट मात्र आर्थिक नही वरन मनोवैज्ञानिक व सामाजिक भी है, साथ ही साथ इसके सांस्कृतिक पहलू भी है जो हमारे समावेशी आश्रित जीवन व्यस्था पर प्रभाव डाल सकते हैं। यह एक व्यापक सोच का विषय है।
            अदालतों मे काम कर रहे सेवारत सरकारी या न्यायिक कर्मचारियों के अतिरिक्त शेष सभी रोज कमाओ रोज खाओ वाली आय व्यय व्यवस्था पर निर्भर है। इनमे प्रशिक्षु से लेकर वरिष्ठ अधिवक्तागण, उनके मुंशी के अतिरिक्त कचहरी मे टाईप , फोटोस्टेट करने वाले, स्टांप वेन्डर, फोटोग्राफर, स्टेशनरी विक्रेता, मुहर बनाने वाले, चाय पान फल विक्रेता, कोट बैण्ड बेचने वाले, किताब बेचने वाले, साईकिल स्टैण्ड चलाने वाले, मोबाईल रिचार्ज करने वाले, जमीन व बाकी चीजों के दलाल सभी शामिल है। इसके अलावा भी इन न्यायिक परिसरों पर अपने पेट के लिये आश्रित एक वर्ग और है जो कचहरी का हिस्सा न होते हुये भी कचहरी से रोजी रोटी पाता है। इनमें घूम घूम के जूता पालिस करने वालों से लेकर परिसर के किसी कोने मे बैठ कर जादू मदारी दिखाने वाले, घूम घूम कर सामान बेचने वाले, भीखमंगे, और कुछ भी नही कर के केवल चौकी चौकी घूम कर सलाम कर सौ पचास रूपये पाने वाले भी है। एक महत्वपूर्ण वर्ग आउटसाईडर के संख्या को भी इसी मे सम्मिलित करने की जरूरत है जो न्यायालयों के बाबूओं से लेकर, रिकार्डरूम, डीएम कार्यालयों लगायत तहसील के लेखपालों के अवैधानिक सहायकों के रूप मे लिखने पढ़ने से लेकर फील्ड ड्यूटी तक के सभी कार्य करती है। आज की तारीख मे यह संपूर्ण व्यवस्था व लोग हाँथ पर हाँथ धरे बैठे हुये है। दुर्भाग्य यह है कि यह पूरा वर्ग असंगठित है जिसमे मात्र अधिवक्ताओं व स्टांपवेंडरों को छोड़ न तो किसी का पंजीकरण न है न संगठन। ईमानदारी से अपने कौशल व मेहनत से काम करने वाले ये ज्यादातर लोग समाज के उस वर्ग से है जिनके पास न तो राशन कार्ड है न ही कोई सरकारी सुविधा वाली व्यवस्था। ऐसे मे रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाला यह वर्ग अपने जीवन के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। अब उनके ऑखों के सपने भी मरने लगे है। आर्थिक वर्ष के शुरूआत मे ही यह बुरा दौर उनके लिये तब आया है जब उन्हे अपने आने वाले भविष्य के लिये अपने बच्चों के लिये नये सत्र मे प्रवेश लेना था। नये यूनिफार्म बनवाना था, नयी किताब कापी खरीदनी थी नये सपने देखने थे पर अब ये अब सूनी ऑखों के सपने है। वह स्वयं के अंतस से ही जूझ रहा है। आर्थिक तंगी के साथ वह मानसिक रूप से परेशान है जिससे निकलने का रास्ता वह नही ढूढ़ पा रहा है ।
      इस पूरी व्यवस्था के सबसे बड़े अंग और व्यवस्था की धूरी अधिवक्ता वर्ग की भी स्थिति बहुत अच्छी नही है। अपने अपने घर परिवार मे बैठे अधिवक्ता आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं । आलमारी मे जमा मुकदमों की पत्रावलियॉ और हैंगर मे लटके कोट आज उन्हे बोझ लग रहे है जो उनके पारिवारिक बोझ को हल्का करने मे अक्षम हो गये हैं। 'वकील साहब' का सम्मान बचाने के लिये वह स्वयं के  प्रति खुद को बेचारा अनुभव कर रहा है। उसकी मुश्किल यह है कि वह अपनी व्यक्तिगत दुश्वारियों को खुल कर किसी से कह भी नही सकता। सरकार इस वर्ग से अधिवक्ता कल्याण के नाम पर शुल्क, कोर्ट फीस, सहयोग राशि लेती तो है पर इस वर्ग पर वह उन्ही की राशि को खर्च नही करना चाहती। अधिवक्ता अधिनियम के  अन्तर्गत भी इस तरह के किसी आकस्मिक संकट के लिये कोई विशेष प्रावधान नही है और स्थानीय बार संघ आपसी राजनीति और स्वयं के विरोधाभासों मे इस तरह उलझे है कि उनसे किसी तरह की सहायता की उम्मीद ही बेमानी है। दुर्भाग्य यह है कि राजनीति मे शुरू से दबदबा व दखलन्दाजी रखने वाले  इस व्यवसाय के प्रतिनिधि जो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था मे असरदार व अच्छे पदों पर है वे भी अपने लोगों के प्रति उदासीन है। अधिवक्ता वर्ग के साथ एक और बड़ी समस्या है समाज मे उनके प्रति अविश्वास, इसी कारण बैंक एवं वित्तीय संस्थान उन्हे ऋण आदि देने से कतराते है ।उनके लिये स्वयं की कोई सहकारी संस्था नही है जो वक्त बेवक्त उन्हे आवश्यक वित्तीय सहायता कर सके। और तो और उनके व परिजनों के  स्वास्थ्य और चिकित्सा हेतु भी सरकारी अथवा गैरसरकारी रूप से कोई योजनाएं नही है।
                       विधि व्यवसाय बेहद गलैमरस होने के बावजूद बहुत कठिन तपस्या एवं त्याग वाला व्यवसाय है । दूसरो को न्याय दिलाने के लिये प्रतिदिन संघर्ष करने वाला अधिवक्ता समाज स्वयं को स्थापित करने के लिये जो संघर्ष करता है वह पेशापर्यन्त चलता रहता है। कनिष्ठ अधिवक्ता से वरिष्ठ अधिवक्ता तक चलने वाले संघर्ष से इतर आज इस संकट से सभी अधिवक्ता समान रूप से जूझ रहे हैं।वर्तमान समय मे मुकदमों के प्रस्तुतीकरण को देखा जाय तो न्यायालय मे चलने वाले साठ प्रतिशत मुकदमे कचहरी के बीस प्रतिशत वरिष्ठ अधिवक्ताओं के डायरियों मे हैं। शेष चालीस प्रतिशत मुकदमें बाकी अधिवक्ताओं के पास है ऐसी स्थिति मे चालीस प्रतिशत अधिवक्ता लगभग सदैव कार्य के अभाव मे रहते है। इनमे भी कनिष्ठ अधिवक्ताओं के लिये बड़ी विषम स्थिति होती है। यह भी देखा जा रहा है कि पिछले दशक मे विधि संस्थाओं के भारी संख्या मे बिना गुणवत्ता के पनपने से पेशे के प्रति अगंभीर अधिवक्ताओं का भी इस पेशे मे प्रवेश हुआ है। इसके लिये भारतीय एवं प्रादेशिक विधिज्ञ परिषद को विचार करना होगा पर फिलहाल वह विचारणीय तथ्य नही है।
                                  आज की समस्या यह है कि समाज मे इस सम्मानित व रसूखदार व्यवसाय की अंदरूनी समस्याओं का समाधान किस तरह हो, कुछ स्थानीय स्तर पर वरिष्ठ एवं सक्षम अधिवक्तागण इस आपदा मे सहयोग देने के लिये अपने स्तर से प्रयास कर रहे है पर वह नाकाफी है ।अधिवक्ता की गरिमा,आत्मसम्मान एवं आत्मस्वाभिमान भी उन्हे इस तरह के सहायता लेने मे आड़े लग रहे है। वे अपने  संठनों अपने विधिज्ञ परिषदों व सरकार से अवश्य सहयोग की प्रत्याशा मे है जो उनके स्वाभिमान का सम्मान करते हुये एक उचित सहायता वृत्ति देकर उन्हे इस आर्थिक संकट से उबार सके। यह संकट मात्र आर्थिक ही नही , आने वाले निकट भविष्य मे आर्थिक अनिश्चितता के प्रति भी उन्हे डरा रहा है। निश्चित ही अदालते खुलने पर उन्हे व्यवस्थित होने मे थोड़ा समय लगेगा ओर मुकदमे लड़ रहे मुवक्किल जो स्वयं आर्थिक संकट और नकदी मुद्रा का अभाव झेल रहे है वे अधिवक्ताओं को उनका विधिक शुल्क पर्याप्त रूप से दे पायेगें ऐसी संभावना दूर दूर तक दिखाई नही देती। यह स्थिति तब तक चलती रहेगी जब तक जनसामान्य मे नकदी मुद्रा सामान्य तौर पर प्रसारित व प्रचालित न  होने लगे। जिस तरह से सारे कारोबार उद्योगधंधे बंद पड़े है उससे अभी इस तरह के सुचालित नकदी  मुद्रा के प्रसार की संभावनाएं दूर दिख रही है। संतोष इस बात का है कि कृषि क्षेत्र के कार्य चल रहे है जिससे आने वाले दिनों मे उद्योग व सेवा की गति  को त्वरा दिया जा सकता है। सरकार भी जब संगठित से लेकर असंगठित क्षेत्रों पर ध्यान देते हुये उनके लिये विशेष पैकेज एवं अवसर दे रही है ऐसे मे उसे अधिवक्ताओं एवं उनसे जुड़े कर्मचारियों एवं आश्रित कर्मियों पर ध्यान देना होगा ताकि समाज को न्याय दिलाने वाला यह वर्ग अपने स्वाभिमान को बरकरार रखते हुये अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्ध रहे।
(बनारस, 24 अप्रैल 2020, शुक्रवार)
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