व्योमवार्ता / व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 12 फरवरी 2018, सोमवार
गॉव गिरॉव के वेलेन्टाईन वीक में ललका गुलाब
गोबर उठाते हुए परभुनाथ चचा ने चाची से पूछा है कि आज कौन सा दिन है हो?
घर के काम काज में अंझुराई चाची अंगुरी पर दिन का हिसाब बैठाती हैं। जहिया देवनथवा गुजरात गया था उस दिन सोमार था। तो सोमारे सोमार आठ आ मंगर नौ... तब तक मोबाइल पर सिर झुकाए रजेसवा बोल पड़ता है
आज 'रोज-डे' है। परभुनाथ चचा पूछ बैठते हैं - ई कौनी कलेण्डर से देख के बता रहे हो?
रजेसवा बताता है - 'लव वीक' चल रहा है आज सेकेंड डे है, इसे 'रोज डे' कहते हैं। आज गुलाब दिया जाता है...
परभुनाथ चचा माथा पीट लेते हैं। कैसा समय आ गया है! प्रेम के लिए भी दिन और सप्ताह तय होने लगे। देने और लेने से प्यार की गहराई देखी जा रही है। एक वो भी समय था। इधर गुलाब था उधर प्रेम था और बीच में लाठी थी।
चालीस साल पहले छपरा जिले के रिविलगंज कस्बे में सिवनाथ चौधरी के लड़के परभुनाथ चौधरी की दुहलिन आई थी। पवनी पूजिहर का नेग जोग निपटाने के बाद माली जब जाने लगा तो परभुनाथ चौधरी ने कोने में ले जाकर माली से कहा-"ए काका! तनी एगो ललका गुलाब सांझ के बेरा पहुंचा दीजिएगा। सुना है पहली रात को दुलहिन के हाथ में गुलाब देने से प्रेम बढता है।"
माली ने कहा - बबुआ ललका गुलाब ए दिन में कहां मिलता है? गंगा पार बलिया जिला से लाना पडेगा। बड़ी खरचा हो जाएगा।
अंगना में मिले कड़कड़िया नोटों की गर्मी से जलते हुए परभुनाथ चौधरी ने कहा था-'काका खरचा की चरचा मत कीजिये। बस ललका गुलाब लाइए।'
नवका घर में दुसुत्ती का पियरका परदा टांग दिया गया था, जिस पर दोनों ओर शेर बने हुए थे, और बीच में स्वागतम लिखा था। रह रह कर परदे के पीछे से दुलहिन की रोवाई उठ जाती थी। इधर परभुनाथ चौधरी का मन करता था कि झट से दुहलिन के पास पहुंच जाएं और उसकी आँखों में देखकर कह दें कि - हम बहुत प्यार करेंगे तुमसे, रोओ मत। लेकिन जाएं कैसे? गुलाब अभी तक आया ही नहीं था। कभी कभी पियरके परदे के पीछे चूड़ियाँ खनखनाने लगतीं तो परभुनाथ चौधरी के कदम परदे के पास पहुंच जाते। कभी दुलहिनियां की पायल बजती तो चौधरी का दिल परदे के अंदर जाने को मचल जाता था। लेकिन जाएं तो जाएं कैसे? गुलाब तो अभी आया ही नहीं था।
सांझ ढलते ढलते दालपूड़ी रसिआव गोझा और चटनी बन के तैयार हो गई थी । घर की औरतें गोबर से लीपे आंगन में बैठी गीत गा रही थीं। परभुनाथ चौधरी तनिको आहट होने पर दुआर की ओर झांकने लगते थे। जब सिवनाथ चौधरी ओसारे में बैठे दहेज में मिले रेडियो का टिसन धराने लगे तभी उधर माली ने आवाज दी थी। परभुनाथ चौधरी दौड़ कर आए और कोने में ले जाकर पूछा - काका ललका गुलाब मिला?
माली ने रोअनियां मुंह बना कर कहा - मिला तो चौधरी। लेकिन हमारा नरक हो गया। बिशुनीपुर माल्देपुर तिखमपुर सब घूम दिए लेकिन कहीं नहीं मिला। हलुमानगंज में एगो माली दो रुपये में दे रहा था। हम डांटे और कहे कि हमहूँ माली हैं और रिविलगंज से आएं हैं। बीस आना से अधिका नहीं देंगे। चाहो तो दो न चाहो तो मत दो, सैकड़ों दूकानें हैं कहीं और से ले लेंगे। आखिर में देना ही पड़ा उसे।
परभुनाथ चौधरी ने खुशी से दो रुपये का ललका नोट माली के हाथ में धर दिया। साथ ही 'प्यार बढ़ जाने के बाद' और दो रुपये देने का वायदा किया।
हाथों में ललका गुलाब छुपाए परभुनाथ जैसे ही ओसारे से होकर गुजरे सिवनाथ चौधरी ने टोका - माली कांहे आया था जी? सुबहे तो नेग ले गया था।
परभुनाथ ने कहा - इसी तरह आया था कोई खास बात नहीं थी।
तभी लालटेन के अंजोरा में ललके गुलाब की हरी हरी पत्तियाँ देखकर सिवनाथ चौधरी दहाड़े - लखनऊवा नबाब बने हो गुलाब लेकर मेहरारू के पास जाओगे? मेहरमऊग बनोगे? और तीसरा सवाल कोने में रखी सिवनाथ चौधरी की लाठी ने किया था। परभुनाथ चारों खाने चित्त पडे थे, ललका गुलाब छिटक कर दो हाथ आगे पडा था।पियरका परदे का कोना थोड़ा सा उठा था और दुलहिन की रोवाई और तेज हो गई थी।
आधी रात बीत गई थी। दुलहिन ने परभुनाथ चौधरी के पीठ पर हल्दी भांग मिलाकर छाप दिया था। परभुनाथ चौधरी अभी भी कराह रहे थे। दुलहिन ने कहा - क्या जरुरत थी ललका गुलाब लाने की?
परभुनाथ ने करवट होकर कराहते हुए कहा - हम सुने थे कि ललका गुलाब देने से प्यार बढता है।
दुलहिन ने कहा - हमारा प्यार बढाने के लिए गुलाब की क्या जरुरत है! हम ऐसे ही सात जनम के लिए आपके हो गए हैं। और परभुनाथ के बांह पर सिर धरकर रोने लगी।
गोबर की खांची कपार पर धरे खेत की ओर जा रहे परभुनाथ चचा की धोती, आंगन में लगे गुलाब के पौधे में फंस गई है। अचकचा कर देखते हैं- राजेसवा अभी मोबाइल में ही सिर गडाए है, चाची गेंहू फटक रही हैं। सफेद धोती ललके गुलाब के फूलों में अभी भी अंझुराई हुई है। अचानक चालीस साल पहले का ललका गुलाब याद आ गया है, दुलहिन के रुप में प्रेम कुमारी याद आ गई है, और बाबूजी की लाठियां भी याद आ जाती हैं। बूढ़ा दिल फिर एकईस साल का हो जाता है और सूखे होंठो पर मुस्कुराहट आ जाती है। बड़े प्यार से आवाज देते हैं - ए परेम हेन्ने आओ तो!
तीन मिनट बाद पैंसठ साल के परभुनाथ चचा साठ साल की परेम कुमारी के हाथों में ललका गुलाब देते हुए कह रहे हैं - आज चालीस साल बाद ई गुलाब दे पाया हूँ मना मत करना।
परेम कुमारी जैसे अभी डोली से उतरी हैं। दोनों हाथों से बुढऊ को पकड़ कर रोने लगती हैं और कहती हैं - हमारा प्यार बढाने के लिए गुलाब की क्या जरूरत है...
उधर रजेसवा गूगल से ललका गुलाब डाऊनलोड कर रहा है.....
(बनारस, 12फरवरी 2018, सोमवार)
http://chitravansh.blogspot.com
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