गुरुवार, 26 जनवरी 2017

हम भूल ना जाये उनको : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 26 जनवरी 2017, गुरूवार

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आज अड़सठवें गणतंत्र दिवस पर सुबह से ही बधाई संदेश मिलने लगे. लहराता हुआ तिरंगा, ईठलाता हुआ तिरंगा, मन लुभाता हुआ तिरंगा मोबाइल मे छा सा गया, आस पास के विद्यालयों मे सुबह से ही देश भक्ति के गीत संगीत बजने लगे. बिटिया को अपने स्कूल मे कार्यक्रम का संचालन करना है वह पिछले दो तीन दिनो से अपने कार्यक्रम संयोजन के लिये अच्छी अच्छी पंक्तियों के साथ लिद्वजनो के कोटेशन जुटाने मे लगी हुई थी. उसको लगता है कि जहॉ उसके सवाल खत्म होते है वहीं से उनके जबाब उसके डैडी अर्थात मेरे पास जरूर मिल जायेगें. प्रयास करता हूँ कि अपने स्तर से उसका यह विश्वास कायम रखूँ.
सुबह टीवी पर राजपथ पर झंडारोहण व परेड देख मन प्रसन्नता से भर उठा. राजपथ पर देश के रक्षा व विकास के अग्रगामी गति को देख कर जन गण मन अधिनायक की भावना हिलोरे मारने लगती है. महसूस होता है कि हम आम जन ही विश्व के सबसे बड़े जन गण के अधिनायक है और हमारे मन के अधिनायक भारत भाग्य विधाता हमेशा हमारे देश के जय को बनाये ऱखें. दो विद्यालयों के कार्यकम मे शामिल हो कर हमने भी बच्चों के साथ 26 जनवरी मनाया.
अभी पढ़ने की मेज समेटते समय बिटिया द्वारा उद्धृत की गयी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की दो रचनाये दिख गयी. पढ़ने के बाद लगा कि ये दोनो ही आज के लिये ज्यादा समीचीन है. कवितायें पढ़ कर उन पर विचार करते समय मन दो आयामी होने लगा. एक तरफ विश्वशक्ति के रूप मे पहुँचने के करीब भारत जिसके विकास की झॉकी देख कर मन आत्मविश्वास से भरा हुआ है वही दूसरी तरफ जीवन, रोटी, रोजगार, स्वास्थ्य के आधारभूत सेवाओं के लिये चल रहा संघर्ष. देश के एकजूट विकास के विरूद्ध षडयंत्र के तहत विदेशी ताकतो के इशारों पर नाचती देश विरोधी ताकतें, जिनसे हमे रोज रोज लड़ना पड़ रहा है.
        दुर्भाग्यत: आज जो देश के हालात चल रहे है अमीरो गरीबो के बीच  प्रतिभा व प्रतिभागियों के बीच शासन व प्रजा  के बीच का अंतर दिनोदिन बढ़ता जा रहा है जिसके चलते आज गणतंत्र मे गण फटेहाल है पर तंत्र मस्त है. इसी के चलते संविधान के उद्देश्य पूर्णतया आज भी सफल नही हो सके है और स्रवजन के सपूर्ण विकास व सफलता के लिये लड़ा जाने वाला संघर्ष अभी जारी है. इसी परिप्रेक्ष्य मे दिनकर जी ने लिखा था

समर शेष है------------------------

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?
समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।
समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।
समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।
तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

                   इसलिये मुझे लगता है कि आज देश के गणतंत्र के सफलतापूर्वक 67 साल बीतने पर हमारी जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ जाती है. हममे से प्रत्येक को सजग होना होगा देश के विकास व एकता के प्रति. यह सजगता कहीं और नही हमें स्वयं मे करनी होगी अगर हम अपने मे ही सुधार का प्रयास करे तो राष्ट्रसुधार अपने आप हो जायेगा.
इसी संकल्पबोध के साथ हममे अहंकार न जागृत हो जाये इस के लिये राष्ट्कवि की यह कविता भी दुहराते रहना होगा

हे कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियां बारी-बारी,
चटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफ़ानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

"६८ वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं"
(बनारस, गणतंत्र दिवस 26 जनवरी 2017, गुरूवार)
http://chitravansh.blogspot.com


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