शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

लघुकथा 'फ्लैशबैक ' : व्योमेश चित्रवंश की डायरी 20जुलाई2016

            पूरी जिंदगी फ्लैशबैक सी निकल गयी उसकी आँखों के सामने से,कैसे उन दिनों जब हर चौमासे में घर की कच्ची दीवारें गिर जाती थीं,अपनी 3 बहनों, दिल की बीमारी से ग्रसित अपने बाप, की जिम्मेदारी उसे ही उठानी थी,जब गाँव की दाई ने गुड शक्कर के साथ चंदू के होने की थाली बजवाई थी,अपनी बीड़ी पीने की एकमात्र बुरी आदत भी उसने तब छोड़ दी थी..पाई पाई जोड़ता गया, किश्तों में वो कटता रहा,बहनों के ब्याह किये, और फिर उनकी ससुराल के नक़्शे झेले,बीवी को कभी शहर नहीं दिखा पाया, और न ही कोई गहना दिलवा पाया,खुद के पास शादियों/रिश्तेदारियों में जाने के लिए एक कुरता था,बाकी वक़्त फटी हुई फतूरी में खेत में दिन रात काम करते बीतता,चंदू की पढाई चलती रहे इसके लिए पहले कुछ जेवर गिरवी रखे गए जो कभी नहीं आ पाये,और बाकी आधी जमीन चंदू की डिग्री/एडमिशन का खर्च उठाते बिक गयी..

गरीबी में भी अगर आपका आत्मविश्वास अडिग रहे तो वही आत्मसम्मान बन जाता है,उसी आत्मसम्मान की खातिर वो सब कुछ दांव पे लगाता गया..चंदू शहर में सेटल हो गया, ठीक ठाक नौकरी भी मिली,वो खुश हुआ, जैसे मानो उसकी जीवन भर अग्निपरीक्षा सार्थक हो गयी हो,वो कभी चंदू से मिलने शहर नहीं जा पाया,एक तो उसका वो कुरता अब जगह जगह से घिस चुका था,दूसरा एजुकेशन लोन और घटती खेती के बीच उसकी समस्या जस की तस थीं बीवी को भी अब कम दिखाई देता था,चूल्हा फूंकते फूंकते शायद उसको TB भी हो गयी थी..फिर एक दिन चंदू का खत आया कि उसने वहीं शहर में शादी कर ली है..मन थोड़ा विचलित जरूर हुआ, लेकिन ये पहली बार नहीं था !जब नियति के सामने वो आँखों में आँखे डाल के खड़ा था,जो जिंदगी भर परिस्थितयों से नहीं हारा था, वक़्त से कैसे हार मान लेता.साहस बटोरा, और चंदू की माँ के हाथ के बने आटे-घी के लड्डू मर्तबान में पैक किये,और अपने बेटे बहु को आशीर्वाद देने, निकल गया वो शहर की तरफ..

शहरी भीड़भाड़ में चिट्ठी में लिखे पते को पूछता हुआवो पैदल ही स्टेशन से चंदू के घर पर पहुंचा.घर का नाम शांति-सदन पढ़ के गर्व से उसकी छाती फूल गयी,और मन ही मन सोचा कि चलो कम से कम चंदू की माँ की तपस्या तो सार्थक हुई..अपनी गठरी कंधे पे लटकाये और एक हाथ में मिठाई का मर्तबान लिए उसने दरवाजा खटखटाया..दरवाजा उसकी बहु ने खोला शायद ग्रामीण परिवेश उसने पहली बार देखा हो..

इसीलिए सबसे पहली बात उसने यही बोली " बाबा क्या चाहिए"

इतने में टाई बांधता हुआ चंदू भी ड्राइंग रूम में आ गया अपने पिता को देख के सीधे उनके पैरों में गिरा,और अपनी वाइफ को बताया - डार्लिंग ही इज माय फादर..वो सुन्न सा वहीं ड्राइंग रूम में बैठा हुआ था,उसकी सारी जिंदगी की पूँजी उसके सामने थी,वो जिंदगी जो वो खुद अफ़्फोर्ड नहीं कर सकता था,अपने बेटे को उसकी नींव रख के देने में उसकी जिंदगी खप चुकी थी,वो खुश था, मन में विचार श्रंखला चल रही थी,कि जब हफ्ते भर बाद वो गाँव जाएगा तो सीना चौड़ा कर के चलेगा,जिंदगी भर वो किसी के सामने नहीं झुका,बहनो की शादी करते करते वो हर बार टूटा, हर बार खड़ा हुआ,अपने बेटे की कामयाबी को वो वहीँ बैठा बैठा निहार रहा था,अचानक चंदू की बहु की आवाज उसके कानो में पड़ी..

.."पापा खाना तो खा के जाओगे न..."

कभी महसूस किया है जैसे कोई पत्थर कुए में गिरता है तब थोड़ी देर बाद एक गहरी चीख सी आती है कुँए से ठीक वैसे ही चीख उसकी आत्मा से आई..स्वाभिमान किसे कहते हैं वो इसे भूला नहीं था..वही इसकी जिंदगी भर के कमाई थी..वो तुरंत उठ खड़ा हुआ "नहीं बेटा खाना तो अब गाँव जाके ही खाऊंगा, बस तुझे देखने आ गया था, और तेरी माँ के हाथ के बने लड्डू भी देने थे"

ये कह के वो पैदल पैदल विचार शून्य सा स्टेशन की तरफ निकल चला हालांकि चंदू ने आवाज भी दी थी..और अपनी कार से स्टेशन ड्राप करने की पेशकश भी की थी.लेकिन वो तेज क़दमों से वहाँ से निकल गया..उसको जिंदगी में रोते हुए कभी किसी ने नहीं देखा था..अब वो स्टेशन पर खड़ा हुआ ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था.आँखों में गहराई थी, और चेहरे पर स्थिर और शांत भाव थे..पहली बार नहीं था जब वक़्त ने उसे नीचे दिखाने की कोशिश की थी..
उसके अंदर एक बहुत बड़ा तूफ़ान चल रहा था..उसकी सारी जिंदगी उसके सामने फ्लैशबैक की तरह निकल रही थी... .....

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