गुरुवार, 7 नवंबर 2024

नाटी इमली का भरतमिलाप / व्योमवार्ता

नाटी इमली का भरतमिलाप

सन 1868 अक्टूबर का महीना।बाढ़ व वर्षा के पानी से 
वरूणा नदी अभी भी पूरे उफान पर है। इसी के किनारे काशी की संस्कृतिप्रेमी जनता रामलीला देखने भारी संख्या में उपस्थित है। आज की लीला में सीता हरण के पश्चात उनकी खोज में हनुमान को समुद्र लंघन कर लंका जाना है और सीता के बारे में पता करना है। हनुमान को जामवन्त आदि के साथ श्री राम विदा कर रहे हैं। सम्पूर्ण लीला प्रेमी लीला के संवाद और भाव में डूब रहे है तभी एक ओर कोलाहाल होता है पता चला कि अंग्रेज पादरी फादर मैककर्सन, अंग्रेज कलेक्टर व अन्य अधिकारियों के साथ वहां आ पहुँचे हैं। संवाद अदायगी बन्द हो जाती है। उपस्थित लीला प्रेमियों में एक भय मिश्रित कानाफूसी प्रारम्भ हो जाती है। तभी फादर मैकफर्सन आज की लीला के बारे में जानकारी लेते हैं और व्यंग पूर्वक भारतीय संस्कृति पर कटाक्ष करते है "रामायन का हनुमान तो पूरा "सी" लांघ गया था तुम्हारा हनुमान क्या वरूणा लांघेगा? इसी झोंक में मदिरा के नशे में चूर अंग्रेज कलेक्टर धमकी भरा आदेश देता है कि "अगर तुम्हारा हनुमान यह छोटी सी नदी नहीं क्रास करेगा तो कल से रामलीला ढकोसला बन्द।"
       फिर क्या था पादरी और कलेक्टर व्यंग और धमकी भरे लहजे से हनुमान बने पात्र का खून खौल उठा। परतन्त्रता की बेबसी और हनुमान की गरिमा के आवेश से उसका चेहरा लाल हो उठा। उन्होंने भगवान का ध्यान किया और कुछ करने को ठानते हुये लीला के रामचन्द्र जी से वरूणा पार करने की अनुमति माँगी। "एवमस्तु" सुनते ही हनुमान के स्वरूप ने "बोलों राजा रामचन्द्र की जै" का विकट हुंकार किया और एक ही छलांग में  वरूणा पार कर गये। पलक झपकते ही यह घटना घट गयी। उपस्थित भीड़ ठगी सी रह गयी। एक क्षण बाद उसको काल का बोध हुआ तो सभी लोग "पवनपुत्र महावीर जी की जय, राजा रामचन्द्र की जै" का उद्घोष करते हुये वरूणा के उस पार दौड़ पड़े जहाँ वीर हनुमान वरूणा लांघने के बाद गिरे थे और वही आराम कर रहे थे। उनको भक्त लोग वहाँ से उठाकर ले आये। बताते है कि हनुमान स्वरूप बने टेकराम जी नाटी इमली के भरत मिलाप लीला तक जीवित रहे। भरत मिलाप में उन्हें अपने ईष्टदेव श्री राम जी की झांकी में देवत्व के दर्शन हुये और वे स्वर्गवासी हो प्रभु चरणों में समर्पित हो गये। इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने रामलीला को सरकारी मान्यता प्रदान करते हुये सरकारी साधन सहित विशेष व्यवस्था की। जिस मुकुट को पहने टेकराम जी ने नदी पार किया था वह आज सुरक्षित रखा हुआ है जिसकी पूजा होती है। यह मुकुट हमारे आस्था और विश्वास के साथ-साथ हमारे पुरुषों के पौरूष और निष्ठा का प्रतीक है।
यह घटना नाटी इमली के भरत मिलाप के महत्व को स्थापित करती है। नाटी इमली का भरत मिलाप विजयादशमी के दूसरे दिन एकादशी को होता है जो वाराणसी का सबसे मेला है। नाटी इमली की इस रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पूरी लीला में संवाद नहीं होता केवल झांकिया होती है। साथ ही साथ यह लीला " विश्व के सबसे छोटी झांकी का सबसे बड़ा मेला" है जिसमें राम-भरत का संवादहीन भावपूर्ण मिलन एक मिनट से भी कम कुछ सेकेन्ड का होता है और लीला देखने वालों की भीड़ पाँच लाख से अधिक की होती है।
नाटी इमली के भरत मिलाप की शुरूआत "मेघा भगत" ने किया था। अब तक प्राप्त जानकारियों से मेघा भगत को ही काशी में रामलीला का "आदि प्रवर्तक" माना जाता है हालांकि बहुत से लोग गोस्वामी तुलसीदास को वाराणसी में रामलीला के प्रवर्तक रूप में मानते है पर यह सर्वमान्य है कि चित्रकूट की राम लीला मेघा भगत ने प्रारम्भ किया। मेघा भगत का वास्तविक नाम नारायण दास था। वे गोस्वामी तुलसीदास के अनन्य भक्त व सेवक थे। जब संवत 1680 में गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महा प्रयाण की भविष्यवाणी करते हुये श्रावण शुक्ल पक्ष की तृतीया की तिथि बताया तो मेघा भगत व्याकुल हो उठे और गोस्वामी जी की मृत्यु पूर्व ही आत्महत्या को प्रस्तुत हो गये। गोस्वामी तुलसीदास ने इन्हें बहुत समझाते हुये हनुमान जी की शरण में समर्पित होने का आदेश दिया और नियत तिथि पर गोलोकवासी हो गये। गोस्वामी जी के मृत्योपरान्त उनके आदेशानुसार हनुमान के शरण में जाने के बावजूद भगत जी का व्याकुलता कम नहीं हुई और उन्होंने अन्नजल त्याग दिया। एक रात्रि भगत जी को महाबीर हनुमान जी ने अयोध्या जाने का आदेश दिया और भगत जी रात्रि में ही वर्षा ऋतु का व दुर्गम मार्ग का परवाह न करते हुये अयोध्या चल दिये। अयोध्या में उन्होंने सरयू स्नान कर वहीं पर ध्यान लगाया ही था कि दो सुन्दर बालक खेलते हुये वहाँ आये और अपना धनुष बाण मेघा भगत के पास यह कहते हुये रख गये कि "बाबा हमारा धनुष बाण रखो हम आकर ले लेगें।" सबेरा बीता, दोपहर और संध्या के पश्चात रात हो गयी । भगत इन्तजार करते रहे पर वे दोनों बालक नहीं आये। रास्ते के थकान और दिन भर के बैठे भगत को हल्की सी झपकी आयी और झपकी में ही उन्हें यह सुनाई पड़ा कि " कलियुग में प्रत्यक्ष दर्शन दुर्लभ है, तुम काशी जाकर लीला का आयोजन करो। वही भरत मिलाप में तुम्हें दर्शन मिलेगा।" अपने इष्टदेव के इस परोक्ष आदेश पर मेघा भगत तुरन्त काशी लौट पड़े और वही दोनों धनुष-बाण "निधि" के रूप में रखकर चित्रकूट की रामलीला का आयोजन किया जिसका भरत मिलाप लीला नाटी इमली पर होता है। मेघा भगत रामलीला प्रारम्भ करवाने के बाद भरत मिलाप तक जीवित रहे और भरत मिलाप में राम भरत मिलन के स्वरूप में प्रभु दर्शन पाकर स्वर्गवासी हुये।
वाराणसी में मेघा भगत द्वारा प्रवर्तित इस रामलीला का बहुत महत्व है। पहले रामनगर के बाद गंगा इस पार की काशी में सबसे अधिक भीड़ इसी लीला में होती थी परन्तु अब औपनिवेशिक सभ्यता और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से वह भीड़ केवल नेमियों की रह गयी है। इसके बावजूद भरत मिलाप में आज भी विशाल भीड देखकर लीला के महत्व का अन्दाज लगाया जा सकता है। चित्रकूट की इस रामलीला में भरत मिलाप के अतिरिक्त दो और लीलाएं "शबरी मंगल" और गिरि सुमेर की झांकी" तथा विजया दशमी बहुत ही प्रसिद्ध हैं। इनमें से शबरी मंगल और गिरिसुमेर की झांकी पिशाचमोचन पोखरे के पास रमाकान्त नगर कालोनी के बगल में होती है और विजया दशमी चौकाघाट वरूणा नदी के किनारे होती है। पूर्व में विजया दशमी के दिन रावण वध के पश्चात भगवान राम का विमान काशी के प्रतिष्ठित रईस अपने पारम्परिक वेशभूषा में उठाते थे। गुजराती, मारवाडी और राजस्थानी रईसों द्वारा अपने-अपने देशज वस्त्रों में भगवान का विमान और उसके पीछे दर्शकों की अनगिनत भीड़ पूरे लीला को एक अलग ही छवि प्रदान करते थे। भाव विभोर दर्शकों द्वारा "बोलो राजारामचन्द्र जी की जय" का हुंकार काशी वासियों के उत्सव प्रेम का प्रतीक था। पर अब वह बात नहीं रह गयी है।
भरत मिलाप की लीला में परम्परागत रूप से आज भी काशी के यादव बन्धु अपनी विशेष वेशभूषा धोती, गंजी, साफा और बनारसी गावटी के गमछे में राम भरत मिलन के पश्चात चारों भाईयों का विमान कन्धे पर उठाते हैं। सर्वत्र फैले विशाल दर्शकों की भीड़ में जब विमान लहराते हुये, चलता है तो यह आभास होता है कि विमान स्वयं भीड़ के ऊपर से चला आ रहा है। काशी नरेश स्वयं शिव के प्रतिनिधि के रूप में भरत मिलाप के प्रत्यक्षदर्शी बनते हैं और शिव की पुरातन नगरी में विष्णु के अवतार राम का लीला रूपी अयोध्या में वापसी पर स्वागत करते हैं। इस मिलन और विमान यात्रा में "हर-हर महादेव" और राजा रामचन्द्र की जय' का समान हुंकार काशी वासियों के धार्मिक सहिस्णुता को प्रदर्शित करता है। पूर्व में स्वर्गीय महाराजा डाक्टर विभूति नारायण सिंह हमेशा भरत मिलाप पर उपस्थित रहते थे। अब वर्तमान काशी नरेश महाराजा अनन्त नारायण सिंह ने उस परम्परा को बनाये रखे काशी वासियों के प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है।
अब न तुलसीदास है न मेघा भगत न ही टेकारामा बस उनकी यश कीर्तियां है, जो काशी वासियों के राम लीला प्रेम में दिखती हैं। आवश्यकता है भरत मिलाप को पर्यटक यात्रा में स्थान दिलाने की और आर्थिक सहयोग की जिससे काशी वासियों में अपनी परम्परा कायम रहे।

(यह  लेख थर्टीडेज मासिक पत्रिका के प्रवेशांक अक्टूबर 2008मे प्रकाशित हो चुका है।)

बनारस मे पियरिया पोखरी वाली पीताम्बरा काली माँ /व्योमवार्ता

चौकाघाट आयरन ब्रिज से संस्कृत विश्वविद्यालय और तेलियाबाग की तरफ से जाने वाली सड़क के दायी पटरी पर एक छोटा सा मुहल्ला है पियरिया पोखरी। कभी यहाँ पियरिया की पोखरी हुआ करती थी, पर अब कंक्रीटों के जंगल में वह कहीं गुम हो गयी है। वहाँ दिखती है, टेढ़ी-मेढ़ी गलियाँ और ढ़ेर सारे लोग। इन्हीं गलियों की भूल-भूलैया में एक छोटे से मकान में छोटा सा मंदिर है, पीताम्बरा व खप्पर वाली काली माँ का मंदिर। इस छोटे से मंदिर में श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ है। मंदिर के कमरे में बैठने की क्या खड़े होने की भी जगह नहीं बची है। मंदिर के पुजारी बाबा के पुत्र रामजी भाई साथ में लगा हुआ, अपने घर का ड्राइंग रूप खोलकर श्रद्धालुओं को वहाँ बैठने के लिए कहते हैं। पर पाँच मिनट के अन्दर स्थिति पूर्ववत। भीड़ बिल्कुल अनुशासित, किसी को कोई जल्दी नहीं, हर कोई अपने पास खड़े व्यक्ति से दर्शन करने का अनुरोध करते हुए, माँ के दरबार में रखे रजिस्टर में अर्जी लिखने के लिए कहते हैं।
यह छोटा सा मंदिर सिद्धपीठ है। माँ बंगलामुखी पीताम्बरा का यहाँ आशुतोष भगवान चन्द्रमौलिश्वर महादेव शंकर एवं खप्पर वाली काली माँ विराजमान है। इस मंदिर का इतिहास भी इतना ही विचित्र और जीवन्त है। बताते हैं मन्दिर के अधिष्ठाता श्री पीताम्बरा बाबा। वे बताते हैं कि 40-45 वर्ष पूर्व जब मैं क्वींस कालेज में कक्षा 6 में पढ़ता था, तो प्रायः मुझे अकेले होने पर खप्पर वाली काली माँ नजर आती थीं। लाल- लाल आँखों वाली, हाथ में कटार लिए और गले में नरमुण्डों की माला डाले। ऐसा आभास होता था कि माँ मुझसे कुछ कहना चाहती है परन्तु मैं बालपन के कारण काफी भयभीत हो जाता था और यह आभास होते ही भागने का प्रयास करता था। जब यह प्रवृत्ति बढ़ने लगी तो मैं यह प्रयास करने लगा कि मैं अकेले न रहूँ। उसी समय एक बार अपनी बहन को विदाई कराके जंघई रेलवे स्टेशन से आ रहा था कि एकाएक तबियत बहुत खराब हो गई। डाक्टरों को दिखाया पर कोई लाभ नहीं मिला। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई कि कई बार लोगों ने मृत जानकर जमीन पर उतार दिया। उसी रुग्णावस्था में मुझे सम्भवतः हनुमान और माँ काली के दर्शनों का अनुमान हुआ। माँ काली का स्वरूप तो वही था जिससे मैं बार-बार भयभीत हो जाता था परन्तु माँ के चेहरे पर मेरे लिए दया थी, करुणा थी और ममत्व था, जैसे कह रही हो, 'अरे पगले ! तू मुझसे भयभीत हो भाग रहा है। आपनी माँ से! बता आखिर, माँ को छोड़कर कहाँ जायेगा ?
माँ काली का आदेश होने के पश्चात् बाबा पंचगंगा घाट पर शिव स्तुति करने लगे। साथ-साथ श्मशान काली माँ, तारा माँ, मशान बाबा की धूनी जमाई। तुलसी घाट पर बैठ माँ की समस्त क्रियाओं से पूजन किया। इस कठोर साधना के वर्षों के परिणाम स्वरूप वहीं माँ के भक्त बालक का प्रति अभ्युदय पीताम्बरा बाबा के रूप में हुआ। पियरिया पोखरी स्थित घर पर शिवजी के अखण्ड जप सोमवार व्रत और माँ काली के असीम कृपा से घर का पूरा स्थान ही खप्पर वाली सिद्धपीठ के रूप में प्रतिष्ठापित हो गया। फिर तो माँ के भक्ति में यह लगन लगी कि सोते जागते दिन रात नींद में भी केवल शिव और काली का जाप। ऐसे में पत्नी बीमारी से अस्पताल में जीवन के लिए संघर्षरत थी और बाबा नाम जप रहें थे। उसी अवस्था में बाबा को आभास हुआ कि माँ ने आदेश दिया कि मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। आओ मुझे ले चलो। आप उसी अवस्था में चाँदपुर चल पड़े। वहाँ पहुँचे तो देखा कि माँ काली का एक भव्य प्रतिमा और प्रतिमाओं से भिन्न बिल्कुल वैसे ही जैसे दर्शनों में आभास होता था। ममत्व एवं करुणा से भरी हुई रौद्र रूप से भिन्न माँ की प्रतिमा जैसे कह रही हो, तुम आ गये, चलो मैं तुम्हारी ही बाट जोह रही हूँ। परन्तु मूर्तिकार ने उस प्रतिमा को देने से मना कर दिया। बिलकुल भी टस से मस होने को तैयार नहीं। सीधे कह दिया कि 'आप कोई अन्य मूर्ति ले लें, यह बिल्कुल नहीं दूंगा।'
बाबा ने माँ से गुहार लगाई 'हे माँ जब तुझे नहीं चलना था तो मुझे बुलाया क्यूँ ?' अंततः माँ ने अपने पुत्र की गुहार सुनी और शाम के समय मूर्तिकार माँ की वहीं मूर्ति देने को तैयार हो गया। आखिर 6 बजे बाबा जी माँ काली की अपनी वांछित मूर्ति लेकर घर पहुँचे तो घर वाले खुशी एवं आश्चर्य में पड़ गये कि माँ को कहाँ विराजमान किया जाये? माँ की प्रतिमा आने के साथ अस्पताल से खबर आई कि पत्नी की हालत खतरे से बाहर है। अंततः माँ की प्रतिमा पूजास्थल पर लगाई गयी तब से लेकर आज तक माँ की पूजा अनवरत जारी है। वर्तमान समय में खप्पर वाली काली माँ का मंदिर सिद्धपीठ बन चुका है जहाँ केवल हिन्दू जन ही नहीं वरन सभी धर्मों के लोग आकर माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। यहाँ आ रहे भक्तों को माँ के दर्शनों का तुरन्त लाभ मिलता है। वर्तमान मंदिर में चन्द्रमौलिश्वर भगवान शंकर की पारद लिंग, पीताम्बरा माँ की प्रतिमा काली माँ के साथ भव्य रूप से प्रतिष्ठापित है। मान्यता है कि 21 रविवार को माँ का दर्शन करने से हर मनोकामना पूर्ण होती है।
( पीतांबरा माँ काली पर यह लेख मासिक पत्रिका थर्टी डेज के प्रवेशांक अक्टूबर 2008 में पूर्व मे प्रकाशित हो चुका है)

रविवार, 27 अक्टूबर 2024

व्योमवार्ता/ मन का आंगन कुछ कहता है......

आस्था अनास्था, जय-पराजय, विश्वास-अविश्वास और अंधेरे-उजाले के द्वन्द्व के बीच एक दीप है जो जलाना है गहन विश्वास को समेटे। चौतरफा अविश्वास भय आतंक और अभाव के अंधेरे ने आज समूचे विश्व के चौखट को घेरे रखा है। चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र सभी अपने अपने समस्याओं और अन्तर्विरोधों से जूझ रहे है। अफगानिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, यूक्रेन ,रूस ,ईरान इजराईल, चीन ,ताईवान से लेकर अमेरिका,इंग्लैण्ड और अपने भारत तक सबकी समस्याओं का कारण भले ही अलग हो पर मानव समाज के लिये त्रासदीपूर्ण ही है। मन और मानवता जब विवेक और विजय की भाँति साफ सुथरा आँगन और संजीदा माहौल चाहती हो तो ऐसे अंधेरे में आस्था और विश्वास का दीप कैसे जलाया जाय? यह प्रश्न हमारे समक्ष महती बन खड़ा है। हम दीपावली पर दीपदान कर दीपक जला प्रकाशोत्सव मना लेते हैं और आतिशबाजी के कानफाडू शोर और झूठी शुभकामनाओं के आड़ में सालभर के दुख-दर्द को एक छुट्टी के दिन में तब्दील कर सो जाते हैं पर क्या यह प्रकाश हमारे मानस में फैले अन्धकार को दूर कर सकेगा? पूरे प्रकाश वर्ष को यदि अपने सामाजिक और सांस्कृतिक संस्कारों के आइने में देखें तो दीपोत्सव हमारे लिये आशा और विश्वास की किरण लेकर नैराश्य और जीवन के मद, मोह, से ग्रसित अन्धकार को दूर करने के लिये आता है। परन्तु होता यह है कि हममें से बहुतेरे लोग प्रकाश वर्ष के आड़ में वे समस्त कार्य करना चाहते हैं जिनकों दूर करने के लिये प्रकाश पर्व की कल्पना की गयी थी।
वास्तविकता यह है कि दीवाली का प्रकाश आज हमारे समाज के उन अंधेरों को दूर करने में निश्चित ही असफल रहा है जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दीपावली जैसे प्रकाश पर्व की कल्पना की गयी थी। भारत के अधिकांशतः पर्व एवं त्यौहारों को देखा जाय तो वे सिर्फ एक 'मिथक ही नहीं वरन वैज्ञानिक और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति भी करते हैं। चाहे ये होली हो या दीवाली, मकर संक्रान्ति हो या लोहरी, ओणम् हो या वीहू हर त्यौहारों के पीछे सामाजिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक परिवेश दृष्टिगत होते हैं परन्तु आज की वास्तविकता यह है कि ये सभी त्यौहार महज औपचारिकताएं बन गये हैं।
सृष्टि जब कभी बनी थी, अन्धेरा ही अन्धेरा था, फिर प्रकाश आया अन्धकार के पीछे। प्रकाश का साक्षात्कार करने वाली सृष्टि खुली। उजाला ही अंधरे का अगला कदम है। हमें उजाले के सुखद आशा हेतु अंधियारे के अस्तित्व को स्वीकार करना ही होगा बल्कि होना तो यह चाहिये कि हम स्वयं प्रकाश के वाहक बने। पर आज स्थिति दूसरी है हम प्रकाश चाहते तो हैं पर अंधेरे से नहीं लड़ना चाहते। अपने को उजाले का वाहक और उपासक समझना, जताना हम सब को अच्छा लगता है। यह स्वाभाविक है और सही भी है। किसी हद तक उजाला है ही ऐसी प्यारी वस्तु और अनमोल चीज जिसे हम सभी चाहते हैं और पूजते हैं। उजाला हमारे जगने का, चैतन्य और जागरण का स्त्रोत है। पूर्व दिशा में उजाला फूटने के साथ या उससे तनिक आगे पीछे हम जागते है और अपनी चहचहाहट शुरू करते हैं। रात की बोझिल नींद से जगी हमारी आँखों को सुबह के सुनहरे उजालें में धुली दुनिया अजब सुन्दर लगती है। हर पुरानी ठहरी हुई चीज भी नयी लगती है क्योंकि नव प्रकाश के चलते हमारी सोच, हमारी दृष्टि नयी लगती है। फिर हम अपनें कार्यक्रम में व्यस्त हो जाते हैं और उजाले के रथ को अस्ताचल होने के साथ ही हम पुनः निद्रा की शरण में खो जाते हैं क्योंकि हमारा विश्वास बना है कि रात बीतने के साथ ही अंधेरे का साम्राज्य पुनः ध्वस्तहो जायेगा और आने वाला नव प्रभात नयी आशा का संचार करने आयेगा।
अंधेरे को हम उजाले में बदलने को हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं क्योंकि उजाला अभयता का परिचायक है। अन्धेरा यह आंशका जगाता है कि कहीं कोई शत्रु अंधेरे का प्रश्रय लेकर हम, पर आक्रमण न कर बैठें। इसीलिए अधेरा ढलते ही हम प्रकाश के कृत्रिम स्त्रोतों का सहारा लेते हैं। जीवन में जो कुछ भी शुभ है. सुखद है. रपूणीग है। उन सब का सम्मिलित रूप है, उजाला, प्रकाश। इसीलिए शुभ कार्यों में सूर्य या अग्नि को साक्षी मानने का रिवाज कई धर्मों में है। हम मांगलिक अवसरों पर दीया और स भोमबत्ती जलाते हैं। और आनन्दोत्सव में रोशनी और है आतिशबाजी करते हैं। यह सच है कि उजाला जीवन के के मौलिकता का स्वरूप देता है पर जब यही उजाला दुराग्रही और आक्रामक हो उठता है तब क्या वह कम अनर्थ करता है? धर्म हो या राजनीति, जब कोई समुदाय वर्ग या दल जिद ठान लेता है कि हमारा उजाला ही एक मात्र उजाला है, सिर्फ वही मुक्तिवान है कबाकी सभी उजालें बेकार हैं, तुम चाहो या न चाहो, हम तुम्हें अपने उजाले के जरिये मुक्ति दिलवा कर ही मानेगें, ऐसी स्थिति में यह उजाला मृत्यु का दूत ही बनकर आता है, जीवन का नहीं। मृत्यु से भी अधिक मारक इस उजाले का तांडव मानव इतिहास ने बार-बार देखा है। इस तरह अगर उजाले के उपकार अनगिनत है तो अंधेरे का उपहार भी कम नहीं है। ऐसा नहीं है कि अंधेरा हलाहल विष है तो प्रकाश स्वर्ण मंजूषा में रखा अमृत है। बल्कि यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। उजाले का नमन करने हेतु हमें अंधेरे को भी नमन करना ही होगा। आज का महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि दीपावली का शुभ प्रकाश किसके लिये है? कौन है जो इस प्रकाश से अपने देश के और समाज में व्याप्त अन्धकार को दूर करना चाहता है? सब अपने-अपने मोहजाल में भटक गये हैं। सबने अपने-अपने स्वार्थ के अंधेरे का वरण कर लिया है। विदेशों की भौतिक जिन्दगी का आकर्षण हमने बटोर लिया है लेकिन वहाँ की कार्य करने की लगन हमनें नहीं सीखी। सुविधाओं के लिये लालायित रहते हैं पर काम करना नहीं चाहते। दरअसल हमारे सामाज में यह अहसास ही नहीं रहा है कि हमनें आजादी किस कीमत पर पायी? इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत युद्ध की घनी छाया में कभी नहीं रहा। इसलिये आजादी और संघर्ष का मूल्य वह नहीं जान पा रहा है। आज की मानसिकता को देखकर लगता है कि आजादी के लिये किसी ने बलिदान नहीं किया बल्कि वह अपने आप मिल गयी। यह मानसिकता राष्ट्र और लोकतन्त्र दोनों के लिये ठीक नहीं हैं। लोकतन्त्र में लोग अपना भविष्य तय करते हैं पर अब ऐसा लगने लगा है कि लोग अपने भविष्य को मेहनत से नहीं बल्कि खैरात में पाना चाहते हैं। इस तरह देखा जाय तो आज की स्पर्धा से सामान्य लोग पिछड़ जायेगें। अन्धेरा घना होता जा रहा है। ऐसे में हमें स्वयं मनसा वाचा कर्मणा उजाले का वाहक बनना होगा। तभी हम दीपोत्सव की कल्पना को साकार कर सकेगें और उजाले को नमन भी....

व्योमेश चित्रवंश

सोमवार, 26 अगस्त 2024

व्योमवार्ता/ऊमस भरे दिन मेरे शहर में 05जुलाई2024

मेरे शहर में,
मेरा शहर इस समय गर्मी के ताप से लरज रहा है। सूरज से बरसते अंगारे और धरती से निकलती तपिश के साथ पारे ने ऊपर और ऊपर चढ़ने की होड़ लगा रखी है। कितना अजीब है नदियों के नाम पर बसा गंगा के खूबसूरत घाटों वाला यह शहर आज खुद में हैरान व परेशान है। परेशान भी क्यों न हो? शहर को नाम देने वाली नदियों या तो विलुप्त हो चुकी या विलुप्त होने के कगार पर है और गंगा के घाट? आह ! जब कल गंगा ही नही रहेगी तो ये घाट क्या करेगे? मुझे याद नहीं कहाँ लेकिन कहीं सुना था कि एक बार माँ पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा था कि बनारस की उम्र क्या और कितनी होगी तो अवधूत भगवान शंकर ने कहा था कि "यह आदि काल से भी पहले अनादि काल से बसी है यानि मानव सभ्यता के आदिम इतिहास काशी से जुड़ते है और जब तक सुरसर गामिनी भगीरथ नन्दिनी गंगा बनारस के घाट पर रहेगी तब तक काशी अक्षुण्ण रहेगी।" तो क्या गंगा के घाटों को छोड़ने के साथ ही मेरा शहर......? और कहीं अन्दर तक मन को हिला देती है यह भयानक कल्पना याद आता है, चना चबेना गंगा जल ज्यों पुरवै करतार, काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार। अब तो न गंगा में 'गंगा जल' रह गया, न ही सबके लिये मुअस्सर 'विश्वनाथ दरबार। अब तो दोनों ही सरकारी निगहवानी में दिल्ली और लखनऊ के इशारों पर मिलते हैं। माँ गंगा और भगवान विश्वनाथ के सरकारीकरण से अपने शहर की स्थिति उतनी नहीं खराब हुई जितनी हम बनारसियों के नव भौतिकवादी सोच और तोर से बढ़कर मोर वाली अपसंस्कृति ने अपने शहर का नुकसान किया। शहर बढ़ता गया और हमारी सोच का दायरा सिकुड़ता गया। कभी लंगड़े आम व बरगद के पेड़ों और लकड़ी के खिलौने के लिए मशहूर बनारस में पेड़ों की छाँव अब गिने चुने उदाहरण बनकर रह गयी। 'मेरे घर की नींव पड़ोस के घर से नीची न रहे क्योंकि ऊँचे नाक का सवाल है।' इस 'नाँक' के सवाल ने बरसाती पानी के रास्तों को सीवर जाम, नाली जाम के भुलभुलैया में उलझा दिया तो पड़ोसी के दो हाथ के बदले हमारी चार हाथ सड़क की जमीन की सोच ने इस शहर को एक नई समस्या अतिक्रमण के नाम से दी। तालाब पोखरों का तो पता ही नहीं, कुयें क्या हम इन आलीशान मकानों के बेसमेन्ट में मोमबत्ती जलाकर ढूंढ़ेगें? ऊपर से तुर्रा यह कि तालाब, पोखरों, नदियों के सेहत का ख्याल रखने वाला वाराणसी विकास (उचित लगे तो विनाश भी पढ़ सकते है) प्राधिकरण खुद ही मानसिक रूप से बीमार होने की दशा में है। कितने तालाब, पोखरे पाट डाले गये यह कार्य उसके लिए "आरूषि हत्या काण्ड" की तरह किसी मर्डर मिस्ट्री, फाइनल रिपोर्ट, क्लोजर रिपोर्ट, रिइनवेस्टिगेशन से कम नही है और तो और दो तीन को तो वी०डी०ए० ने खुद ही पाट कर अपने फ्लैट खड़े कर दिये। शहर के जमींन मकान और योजनाओं का लेखा-जोखा रखने वाले तहसील, नगर निगम और वी०डी०ए० के पास अपना कोई प्रामाणिक आधार ही नहीं है जिस पर वे अतिक्रमणकारियों के खिलाफ ताल ठोंक सके। कम से कम वरूणा नदी और सिकरौल पोखरे के बारे में तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही सिद्ध करता है।
कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन लब्बोलुआब यह है कि शहर की सेहत ठीक नही है। इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक अगर कहीं मानसून आ गया तो आम शहरी की चिन्ता यही है कि गर्मी की तपिश तो कम हो जायेगी लेकिन नाले बने गडढ़ेदार सड़कों से घर कैसे पहुँचेगें? इसी से तो बरसात चाहते हुए मन में एक दबी सी चाहत है कि दो चार दिन और मानसून टल जाये तो शायद..
अपनी ही नहीं सारे शहर की बात कहें तो एक शेर याद आता है- 
सीने में जलन, आँखों में तूफान सा क्यूँ है।
 इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है।

शनिवार, 24 अगस्त 2024

बनारस मे नाश्ता यानि चौचक चकाचक चपंत व्यवस्था



बनारस की कुछ मशहूर नाश्ते की दुकान है 

1.मैदागिन वाली दुकान पर प्रकाश सरदार की दूध की क्वालिटी सबसे उम्दा है
2.भरत मिलाप नाटी इमली का कचौड़ी परिवार कचौड़ी और चने की घुघरी,आलुदम, छोला की क्वालिटी के लिए मशहूर है ।
3.पांडेयपुर चौराहे पर आजादी के पहले से ही रम्मन भंडार गुलाब जामुन की दुकान मशहूर है।
4. चेतगंज चौराहे के पास शिवनाथ मिष्ठान भंडार की मसालेदार खस्ता कचौड़ी व छोला जलेबी मशहूर है ।
5 . लक्सा की पनारू वीर बाबा जलपान गृह की कचौड़ी जलेबी मशहूर है ।
6. वरुणा ब्रिज बाजार में 1958 से स्थित रानू दादा का टोस्ट कटलेट टी स्टाल
7. गिरजाघर चौराहे पर सुबह 4 बजे ही लगने वाली संजय कनोजिया की इडली की दुकान
8- राम भण्डार, ठठेरी बाज़ार की कचौड़ी- जलेबी
9- लक्ष्मी चाय, चौक का मलाई टोस्ट
10- विश्वनाथ चाट, विश्वनाथ गली का गोलगप्पा
11- सोराकुवां की हींग वाली छोटी कचौड़ी
12- मार्कण्डेय, चौखंबा की मलइयो
13- कल्लू, चौक का समोसा-काला चना, गाजर का हलवा और मटर चूड़ा
14- सिगरा का बाटी चोखा
15- दीना चाट, राजा दरवाजा का टमाटर और टिक्की
16- मोछू, चौक की झालमुड़ी
17- लक्ष्मण, भारतेंदु भवन की मलइयो
18- रसवंती, ठठेरी बाज़ार की मलाई गिलौरी
19- मधुर मिलन, सिगरा का लौंगलता
20-बाबा स्लाइस जगत गंज का ब्रेड पकौड़ा,
21-बंगाल स्वीट हाउस भिखारीपुर का रसगुल्ला
22-रामनगर की लस्सी,
23-पिपलानी कटरा पर ठेले वाले का आलूदम
24-यूपी कालेज भोजूबीर का लाल पेड़ा
25-केशव ताम्बूल भंडार रविदासगेट का पान
26-मडुवाडीह थाने के पास स्पेशल गुलाब जामुन
27-लहुराबीर पर कुल्हड़ वाली काफी
28-संकट मोचन मंदिर जाने वाले मार्ग पर स्थित 18 वर्ष पुराना बनारसी चाट कॉर्नर
29- देढ़सी पुल विश्वनाथ गली में श्री कुंजू साव का फलाहारी मिष्ठान भंडार
30-पहाड़िया चौराहे पर शाम 5:00 बजे से बबलू उर्फ राजकुमार गुप्ता के ठेले पर क्रिस्पी वेज कटलेट खाने की भीड़ लगती है ।
30-रामनगर चौक स्थित शिवनाथ यानी घिसियावन साव की 12:00 से 3:00 बजे तक खुलने वाली शुद्ध देसी घी की सोन पापड़ी वाली दुकान
31-जंगम बाड़ी में 1965 से ही चल रही बाबा यानी बिज्जू यादव की पकौड़ी वाली दुकान। इस दुकान पर बैगन, गोभी, लौकी ,आलू , केला, शिमला मिर्च और ब्रेड पकौड़ा भी मिलता है
32-गोदौलिया स्थित 60 वर्ष पुराना काशी चाट भण्डार। जहां देसी घी से सारे व्यंजन जैसे कुल 16 तरह की चाट,पानी पूरी ,दही पूरी ,आलू टिक्की, टमाटर चाट, पापड़ी चाट,चूड़ा मटर, गर्मा गर्म गुलाब जामुन, कुल्फी फालूदा और गाजर के हलवे के लोग कुछ ज्यादा ही मुरीद हैं ।
33 - कबीरचौरा स्थित गोपी ब्रदर्स की गरमा गरम रसभरी केसरिया इमरती की दुकान
34- कोतवालपुरा में भुल्लन चा ( बैजनाथ पटेल) की 150 साल पुरानी पं की दुकान
35- नीचीबाग के नारायण कटरा में चंद्रमोहन पाठक की शिवम ठंडई के नाम की दुकान
36- विश्वनाथ गली में बिज्जू का सांभर इडली , सांभर वड़ा ,दही बड़ा , मसाला डोसा 
37- पहले सरस्वती फाटक पे एक यादव जी की दूध की मिठाइयों की दुकान होती थी जो अब शायद Corridor बन जाने के कारण कहीं अन्यत्र चली गई है 
38.राजेंद्र प्रसाद घाट पे रात 11 से 2 बजे तक बिकने वाली चाय और लेमन tea. ऐसी चाय आपने जिंदगी में न पी होगी 
39. अस्सी पे पप्पू की अड़ी पे चाय के साथ चर्चा...
40. गोदौलिया चौराहे पे देर शाम बिकने वाला बेहद करारा तीखा घुघनी चना 

बुधवार, 19 जून 2024

व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते हैं...../जरूरत परिवार संस्था को बचाने की...

जरूरत 'परिवार' संस्था को बचाने की-

            क्या आपको आशा साहनी, विजयपति सिंघानिया और सुरेन्द्र दास याद हैं? नाम कुछ सुना हुआ लग रहा है पर सही-सही याद नहीं आ रहा है। आज कुछ ऐसी ही स्थिति परिवार नामक संस्था की है। परिवार की प्रवधारणा हमारे मन मस्तिष्क में है पर हम उसके वास्तविक महत्व को नहीं समझ पा रहे हैं। चलिए, पहले आपकी उत्सुकता भरी उलझन दूर करते हुए इन तीनों के बारे में बताते हैं। वर्ष 2018 में इन तीनों व्यक्तियों के साथ घटित घटनाओं ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया था। शायद आप भी विचलित होते हुए हो, पर जीवन की रोजमर्रा की आपधापी में दो-चार दिन के बाद ये तीनों घटनायें विस्मृत हो गयी। आशा साहनी उम्र 63 वर्ष, मुम्बई के अभिजात्य इलाके के एक हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट में रहती थी, उसी सोसाइटी में उनका एक और फ्लैट भी था। दोनों फ्लैटों की कीमत आज की तारीख में लगभग 8 करोड़ रूपये से अधिक होगी। वर्ष 2013 में पति की मृत्यु के बाद वह अकेले ही रहती थी क्योंकि एकमात्र पुत्र रितूराज साहनी अमेरिका में बहुराष्ट्रीय कम्पनी में डालर की मोटी गड्डी वाली नौकरी करता था। अप्रैल 2016 में आशा ने अपने पुत्र रितूराज को फोन पर बताया था कि उसे अकेलापन सताता है, अकेले रहने में डर लगता है इसलिए वह उसे ले चले क्योंकि वह अकेली नही रहना चाहती। बेटे ने माँ की बात सुनकर फिर फोन पर बात करने का आश्वासन दिया। अप्रैल 2016 के पश्चात माँ के बारे में सोचने की फुरसत बेटे रितूराज को अगस्त 2018 में 6 तारीख को मिली, जब वह कम्पनी में काम से मुम्बई आया। फ्लैट अन्दर से बन्द था। पड़ोसियों ने बताया कि उन्होंने पिछले सात-आठ महीनों से फ्लैट को कभी खुलते नहीं देखा। बार-बार घण्टी बजाने पर जब दरवाजा नहीं खुला और बेटे रितूराज ने फ्लैट का दरवाजा तोड़वाया तो माँ आशा साहनी बेड पर बैठी मिली। कपड़ों के भीतर सिर्फ हड्डियों के ढाँचे में, उसके मॉस व चमड़े गलकर अलग हो गये थे जिन्हें चींटियों ने खा डाला था। कंकाल रूपी मॉ के बैठने की स्थिति देखकर लग रहा था कि उसकी आँखे दरवाजे पर ही टिकी थी बेटे के इंतजार में। पर क्या बेटा समय पर आकर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाया?
                    दूसरी घटना रेमण्ड ग्रुप ऑफ इण्डस्ट्रिज के मालिक 80 वर्षीय विजयपति सिंघानिया की है। देश के नामी उद्योगपतियों में शामिल विजयपति सिंघानिया बारह हजार करोड़ के औद्योगिक साम्राज्य के स्वामी होने के साथ-साथ बेहद जिन्दादिल और अपने शौक को पूरा करने वाले खुशनसीब इंसानों में शुमार हुआ करते थे। एक अच्छे पायलट होने के साथ सामाजिक क्रिया कलापों एवं साहसिक कारनामों में दखल जैसे कार्यों के चलते वे पद्मविभूषण सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। एक जमानें में मुंबई की सबसे ऊँची 36 मंजिली ईमारत में जे.के. हाउस में रहने वाले विजयपति आज किराये के कमरे में रहने के साथ-साथ पैसे पैसे को मोहताज हैं। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र गौतम सिंघानिया पर व्यापार, सम्पत्ति, घर सब कुछ हड़पने का आरोप लगाया है।
          सुरेन्द्र दास बलिया के एक मध्यमवर्गीय परिवार से निकले आईआईटी खड्गपुर से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में बीटेक थे। उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा को उत्तीर्ण कर अपने गाँव का प्रथम आईपीएस बनने का गौरव प्राप्त किया। आईपीएस बनने के बाद उन्होंने पेशे से चिकित्सक डॉ० रवीना से मैट्रिमोनियल साईट पर परिचित होकर अन्तर्जातीय विवाह किया। विवाह के एक वर्ष बाद ही पारिवारिक उलझनों के चलते साथ-सुथरी छवि वाले मात्र तीस वर्ष के ईमानदार आईपीएस सुरेन्द्र दास ने जहर खाकर सितम्बर 2018 में आत्महत्या कर लिया। ये तीनों घटनायें तीन विभिन्न परिस्थिति, परिवेश और अलग-अलग स्थानों की हैं जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। आर्थिक व सामाजिक ताने-बाने में भी ये तीनों घटनाएं उच्च, मध्यम व टप्रवर मध्य वर्ग से हैं परन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाये तो तीनों ही घटनाओं के पीछे व्यक्ति की हताश मनोवृत्ति है जो उसे स्वयं से अन्दर ही अन्दर जूझते हुए कमजोर करती है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह महसूस होता है कि इस कमजोरी का मुख्य कारण आत्मबल का अभाव या कमी है जिसकी भरपाई परिवार संस्था से की जाती है। हमारे समाज में दिनोदिन परिवार के ताने-बाने के कमजोर होने या नष्ट होने से इस तरह की घटनायें हो रही हैं और होती रहेंगी। बात आशा साहनी के बेटे के जीवन शैली से करें तो कारण ज्यादा स्पष्ट होंगे। वर्ष 2013 में अपने पिता के मृत्यु के पश्चात क्या रितूराज यह जानता नहीं था कि मुंबई जैसे महानगर में उसकी बूढ़ी माँ अकेले रह रही है। क्या वर्ष अप्रैल, 2016 में माँ के डर व अकेलेपन की बात फोन पर सुनने के बाद भी वह अपनी 60 वर्षीय मॉ के दर्द को नहीं समझ पाया? और तो और, अन्तिम बार अप्रैल, 2016 में बूढ़ी माँ का फोन मिलने के बाद उसे अपनी माँ को फोन करने और हाल-चाल जानने में उसे दो साल से भी ज्यादा वक्त में समय ही नही मिल सका? क्या मुंबई जैसे शहर में अपना बचपन और जवानी के आठ-दस वर्ष बिताने वाले रितूराज का पूरे शहर में कोई रिश्तेदार, दोस्त, परिजन ऐसा नहीं था जिससे वह उन सवा दो वर्षों के अन्तराल में माँ का हाल पता कर सके? बात विजयपति सिंघानिया की करें तब भी ऐसे ही ढेरों सवाल उठते हैं। क्या कारण थे कि बाप विजयपति की बनाई हुई सारी सम्पत्ति से इकलौते बेटे गौतम ने उन्हें बेदखल करते हुए कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बना दिया? क्या गौतम को समझाने, बताने वाला उसके परिवार, रिश्तेदार, नातेदार में ऐसा कोई नहीं जो उसे पिता के महत्व को बता सके? क्या विजयपति का कोई परिचित, दोस्त, परिजन और रिश्तेदार नहीं जो उन्हें सूकून की छाया और दोनों वक्त दो रोटी दे सके? सुरेन्द्र दास का प्रकरण तो हासिये से और परे हो जाता है। स्व० सुरेन्द्र के ससुर जो चिकित्सा विभाग में निदेशक स्तर के अधिकारी हैं, उनका आरोप है कि सुरेन्द्र के परिवार वाले उसे पैसा कमाने की मशीन समझते थे और पैसे के लिए हमेशा परेशान करते थे। जबकि सुरेन्द्र केम माँ और भाई का कहना है कि सुरेन्द्र की पत्नी सुरेन्द्र को अपने घेरे में लेकर उसे सुरेन्द्र के मौलिक परिवार से अलग-थलग कर दी थी और पिछले महीनों से उसे मॉ से बात भी नहीं करने देती थी जिससे वह काफी परेशान होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गया। 
सच क्या है? 
इस बारे में सिर्फ कयास लगाया जा सकता है परन्तु इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि आदमियत के रिश्तों में फर्क पड़ता जा रहा है। परिवार की अवधारणा सिमट कर न्यूक्लियस फैमिली हम दो हमारे दो से और संकीर्ण हो हम दो हमारे एक से होते हुए अब एकाकी पर केन्द्रित होकर रह गया है। ये अहसास कि दुनिया में मेरा कोई नहीं है, किसी को मेरी जरूरत नहीं है। मैं कुछ भी होने की वजह नहीं हूँ। इससे बड़ी बदनसीबी किसी भी इन्सान और इंसानी समाज के लिए कुछ भी नहीं। एक शायर की पंक्तियों याद आ रही है-
'इक जमाना था कि 
सब एक जगह रहते थे 
और अब कोई कहीं, 
कोई कहीं रहता है 
पहले तो हर बात पर 
रूसवाई का डर लगता था 
अब कोई भी टोकने वाला नहीं, 
मेरे परिवार में। 
यह टोकना ही परिवार का अपनापन था जो पूरे परिवार को सामूहिक बन्धन व जिम्मेदारियों में जकड़ा रहता था। तब हर सदस्य घर के बाकी लोगों के साथ अपनी खुशियों ही नहीं, दुःख और परेशानियाँ भी बॉटता था। सबकी लाठी एक का बोझ बनकर थे, परेशानी कब हवा में कपूर बन खत्म हो जाती थी, एहसास भी नहीं होता था। भारतीय परिवेश से दूर आगस्त कांटे ने परिवार के लिए कहा है कि परिवार समाज की आधारभूत इकाई है. जहाँ अच्छा परिवार समाज के लिए वरदान है, वहीं बुरा परिवार एक अभिशाप से कम नहीं है। प्लेटों ने भी परिवार को जीवन की बुनियादी पहलू की प्रथम पाठशाला कहा है। भारतीय परिवेश में तो परिवार के कई मायने हुआ करते थे। एक जन्मना परिवार जहाँ बच्चा जन्म लेकर नाम पाने के साथ-साथ मॉ, पिता, चाचा, बुआ, ताई, दादा-दादी, भैया-बहना के रिश्ते पाता था, वहीं गुरूकुल में जाने पर उसका एक समवयस्क परिवार मिलता था जिसे गोत्र के नाम से जाना जाता था। गुरू और आश्रम के द्वारा दिये हुए गोत्र परिवार से एक अलग सामाजिक संरचना बनती थी। इन दोनों से ऊपर गाँव के रिश्ते जिसमें ढेर सारे मुँहबोले रिश्तों का परिवार होता था। 
उस जमाने में परिवार में कितने ही लोग रहते थे, परिवार हँसता, खेलता था और एक दूसरे से एकदम जुड़ा रहता था, पैसे कम होते थे पर उसमें भी बड़ी बरक्कत होती थी। घर में कोई खुशी की बात होती थी तो बाहर वालों को बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, पर आज परिवार कितने छोटे हो गये हैं और टूटते जा रह हैं, हमारे रिश्ते बिखरते जा रहे हैं। रिश्तों में वो मिठास नहीं रह गयी है। एलपीजी (लिबरलाईजेशन, प्राइवेटाईजेशन, ग्लोबनाईजेशन) के अवधारणा के बाद सदी के आखिरी दशक से भौतिकता के प्रति अंधी दौड़, शहरों में पलायन और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने संयुक्त परिवार को समाप्त कर रिश्तों में दरारें डाल एकल परिवार की भूमिका को समाज में सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया। समाज की व्यक्तिवादी सोच ने दादी-दादा, चाचा-चाची, बुआ, मौसी और मामा के रिश्ते ही खत्म कर दिये। घर के दरवाजे छोटे होते थे पर घर बड़े और घर की दहलीज के अंदर रहने वाले बड़े मन व सोच के होते थे उनके मन मे एक दूसरे के प्रति अपनापन और अपार स्नेह था। आज घर छोटे हो गये बस दरवाजे बड़़े हो गये परन्तु  उनके भीतर रहने वालों की सोच संकीर्ण और छोटी हो गई। आज परिवार के टूटन के साथ गांव हटते गये और हमने गांव की सरहद पर ही संस्कार भी छोड़ दिया। खरीदी गयी शिक्षा व्यवस्था ने नारी पुरूष समानता के नाम पर संस्कार विहीन व्यक्तिवादी अधिकार के ऐसे बीज रोप दिये कि उनकी जड़ व भविष्य विहीन लहलहाती फसल परिवार न्यायालयों में विवाह विच्छेद से लेकर गुजारे भत्ते की मुकदमों में दिख रही है। एक दरवाजे की हवेली से निकले परिवारों ने शहरी अपार्टमेण्ट के कई दरवाजे वाले फ्लैट में रिहाईस तो बना लिया पर पूरे गाँव को जानने व पहचान वाले व्यक्ति के समक्ष आज अपने पड़ोसी से पहचान का प्रश्न ही उठा रहा। आज के दिखावा भरे जीवन में सहजता नही हैं। फेसबुक पर पाँच हजार फ्रेण्ड्स लिस्ट वाले बन्दे के पास वास्तविक जीवन में पाँच सही मित्र हो, यह सम्भावना भी सवाल खड़ी करती है। आज का एकल परिवार
स्वयं में एक बिडम्बना है। यहाँ बच्चों को तो छोड़िये, बड़ों पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं है। परिवार में यदि अनुशासन नहीं तो परिवार को बिखरते देर नहीं लगती। बढ़ते पारिवारिक झगडे, तलाक, बच्चों को उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार, इसका ज्वलन्त उदाहरण है। 
अब बच्चों में दादा-दादी का दुलार भरा संरक्षण, स्नेहसिक्त उलाहना और परियों की कहानियों में रूचि नहीं होने के साथ-साथ दिली लगाव भी उत्पन्न नहीं हो पाता क्योंकि एकल परिवार के संचालक उनके आधुनिक माता-पिता अपने बूढ़े माँ-बाप (बच्चों के दादा-दादी) को अपने साथ रखने में असमर्थ हैं, जो साथ हैं वे भी तिरस्कृत हैं। बच्चा वही सीखेगा जो देखेगा। दूसरों पर दोषारोपण करना ठीक नहीं, न ही यह समस्या का समाधान है। मोबाईल, सोशल मीडिया, ओटीटी पर परोसे जाने वाले फूहड़ मनोरंजन और डीटीएच चैनल्स ने आज की सामाजिक सामंजस्यता को समाप्त कर दिया है। मोबाईल पर रोज बात करने वालों को आपस में मिले सालोंसाल बीत जाते हैं। दिन भर कानों में लगे मोबाईल और खाली वक्त मोबाईल पर घूमती उंगलियों ने हमें खुद से ही कितना दूर कर दिया है इसका अहसास हमें होने लगा है। मोबाईल के निजी जीवन में अत्यधिक हस्तक्षेप से परिवार की आपसी बातचीत बन्द कर दिया है। सच कहें तो 
एक अरसा हुआ 
अहसासों को बातों में भींगा देखे, 
कम्बख्त इस मोबाईल ने 
अल्फाजों का वजूद खत्म कर डाला।'
         एक वाक्य में कहें तो परिवार वट वृक्ष की तरह है जो समस्याओं व तनाव के तपती झुलसती धूप से हमें समाधान रूपी राहत देता है। एकल परिवार क्षणिक वर्तमान के लिए सुखद तो हो सकता है, पर लम्बी यात्रा के लिए हमें सहयोग व संबल लेने परिवार को ही अपनाना होगा। हमें परिवार की महत्ता स्वीकार करना ही होगा और एकाकी जीवन व अकेलेपन के प्रश्नों के उत्तर हमें खुद तलाशना होगा। झाँकना होगा अपने अन्तर्मन में टटोलना होगा स्वयं को, क्योंकि समाज एवं स्वयं की इस स्थिति के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। प्रतिस्पर्धा एवं दिखावे की अंधी दौड़ में पड़कर हम सिर्फ अपना स्वार्थ हल कर रहे हैं। भूला बैठे है अपनी प्राथमिकताओं को। नकार रहे हैं उन मूलभूत दायित्वों को जो एक संस्कारिक परिवार एवं समाज की आवश्यकता ही नही आधारशिला है।
सम्बन्धों में जुड़ाव विश्वास आपसी समझ बनाये रखने के लिए कुछ त्याग करने पड़ेंगे। इस बदलते परिदृश्य में नई पीढ़ी को गर्त में जाने से बचाने के लिए उनमें चारित्रिक सृदृढ़ता लाने के लिए माता-पिता को अपने एकाकी सोच में बदलाव लाना होगा। उन्हें अपने पिछली पीढ़ी और परिवार को समय, प्यार एवं भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करनी होगी। उनके समक्ष दम तोड़ रहे रिश्तों को, सम्बन्धों को मान, सम्मान, आदर देना होगा और सबसे बढ़कर 'मैं' की भावना से हटकर 'हम' की भावना का विकास करना होगा। तभी शायद हम आने वाले दिनों में 'परिवार' संस्था को बचाने व स्वयं को सुदृढ़ करने में सफल होंगे। क्योंकि हमारे जीवन का यह बड़ा सच है कि परिवार और मिट्टी का मटका दोनों एक जैसे होते हैं। इसकी कीमत बस बनाने वालों को पता होती है, तोड़ने वालों को नही।
#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं....

(अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस (15मई) समारोह मे उद्बोधित विचार)
नोट: यह उदबोधन वाराणसी के हिन्दी मासिक पत्रिका कर्मपथ के परिवार विशेषांक मे प्रकाशित हो चुका है।
http://chitravansh.blogspot.in

मंगलवार, 18 जून 2024

नवगीत के प्रणेता डाॅ०शंभुनाथ सिंह की जयन्ती पर विशेष

स्वतंत्रता संग्राम और डॉ०शंभुनाथ सिंह

स्वतंत्रता संग्राम में काशी का अप्रतिम योगदान रहा है। राजा चेतसिंह और वारेन हेस्टिंग्स घटना से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक वाराणसी कान्तिकारी गतिविधियों का गढ़ रहा है। न केवल कान्तिकारी विचार धारा के लोग बल्कि उदारवादी और गांवीवादियों ने भी वाराणसी को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। 'आज, 'संसार, 'अग्रगामी', 'रणमेरी' से लेकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, अभिमन्यु पुस्तकालय, सरस्वती सदन पुस्तकालय इन गतिविधियों के केन्द्र थे। जहां एक ओर आजाद, सान्याल जैसे कान्तिकारी पुलिस की आंखो में धूल झोंक कर अपनी गतिविधियों को अन्जाम दे रहे थे, वहीं काशी विद्यापीठ के छात्र एवं अध्यापक गांधीजी के रास्तों पर चल कर तिरंगे की लडाई लड रहे थे, ठीक उसी समय काशी की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परम्परा के अनेक साहित्यकारों, संस्कृति एवं शिक्षाविदों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना अमूल्य योगदान दिया। आज स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती वर्ष में जब स्वाधीनता सेनानियों के रूप में केवल राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ही सम्मानित किया जा रहा है, वहीं यह अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि राष्ट्र वाराणसी के उन अमर स्वतंत्रता सेनानियों को स्मरण करें जिन्होंने अपने कार्यों से स्वतंत्रता हेतु सतत् प्रयास किए। किन्तु ऐसे लोगों ने कभी भी स्वयं को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का दावा प्रस्तुत नहीं किया और न ही इस अवसर को भुनाने की कोशिश की, बल्कि निस्वार्थ भाव से अपनी साधना में रत रहे। शायद यही कारण है कि आज आजादी की 50 वी साल गिरह पर हम उनके योगदान को भूल चुके है।
ऐसे ही स्वतंत्रता आन्दोलन कारियों में 'समय की शिला -जैसे अमर गीत के रचनाकार डा० शम्भुनाथ सिंह पर जी भी थे। बहुत से लोग शायद ही इस तथ्य पर विश्वास करें कि हिन्दी साहित्य के नवगीत विवा के उन्नायक और मधुर गीतों के रचनाकार ने आजादी आन्दोलन में सड़क मी काटा एवं रेलवे लाइन उखाड़ने की योजना बनाई। मृदुभाषी, व्यवहार के धनी और कोमल हृदय डा० शम्भुनाथ सिंह जी में देशभक्ति की भावना कितनी बलवती थी. उसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां वे श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे कान्तिकारी के सहायक थे, वहीं गांधी जी को अपनी कविता भेंट करने के लिए सरदार बल्लभभाई पटेल से उलझ पड़े थे। घटनाओं को बताते हुए स्मृतियों 1 के पुंलिके में खो जाते है समाजवादी चिन्तक, वरिष्ठ अधिवक्ता और कवि श्री सागर सिंह जी जो डा० शम्भुनाथ सिंह के अनन्यतम मित्रों में रहे है।
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, संस्कृतिविद् एवं समाजसेवी डा०शम्भुनाथ सिंह का जन्म 17 जून 1916 को देवरिया जनपद के ग्राम रावतपार अमेठिया में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा बिहार के सिवान जिले के अन्तर्गत ग्राम रामगढ़ तथा माध्यमिक शिक्षा देवरिया जनपद के मझौली राज में सम्पन्न हुयी। मिडिल स्कूल में अध्ययन करते समय ही बालक शम्भुनाथ के मन में राष्ट्रीयता एवं - देशभक्ति की प्रवृत्ति का जन्म हुआ। सन् 1930 में गांधी जी उत्तर  प्रदेश दौरे के सिलसिले में देवरिया जिले का दौरा करते समय भाटपार रानी नामक स्थान पर आये। वहां पर गांधी जी के दर्शन और उनके भाषण सुनने के लिए ये अपने स्कूल से ही गये। अपार भीड़ में एक ऊंचे मंच पर गांधी जी बाबा राघव दास जी के साथ आये। बालक शम्भुनाथ ने सर्वप्रथम गांधी जी का भाषण वहीं सुना, उनके भाषण का आप पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होने उसीसमय से खद्दर पहनने का व्रत ले लिया, जिसका पालन वे जीवन पर्यन्त करते रहे। गांधी जी के सत्याग्रह के अन्तर्गत समी जगह नमक कानून तोड़ा जा रहा था, इन्होने भी अपनी कक्षा के भागीरथी नामक छात्र के साथ नमक बनाने का प्रयोग किया। एक दिन दोनों पढ़ाई छोड़ कर देवरिया भाग गये और सत्याग्रही शिविर में प्रविष्ट होना चाहा, किन्तु कम उम्र होने के कारण इन्हें शिविर में प्रवेश नहीं मिला। उसी वर्ष 1930 में के जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती कमला नेहरू तवा डा० राजेन्द्र प्रसाद का बिहार के मैरवा नामक स्थान पर आगमन हुआ। इन राष्ट्रीय नेताओं के भाषण से आपकी राष्ट्रीयता की भावना और बलवती हुयी। हालांकि उनके परिवार के लोग आमिष भोजी थे, पर गांधी जी के अहिंसा प्रेरणा से उन्होंने उसी समय मांस खाना छोड़ दिया।

सन् 1930-31 में सत्याग्रह आन्दोलन के शिथिल होने पर महात्मा गांधी ने हरिजनोद्वार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस सम्बन्ध में वे पूरे देश का भ्रमण करते हुए सन् 1934 में वाराणसी आये और तीन दिनों तक काशी विद्यापीठ में ठहरे। इस अवसर पर गांधी जी को मेंट करने के लिए शम्भुनाथ जी ने हरिजन' शीर्षक नामक एक कविता लिखी और उसे छपवाकर शीशे में मढ़वाया। काशी विद्यापीठ में नित्य संध्या समय गांधीजी की प्रथर्याना समा होती थी, जिसमें वे हरिजनोद्धार के लिए चंदा मांगते थे। लोग पैसों के अलावा अपने आभूषण, घड़ी आदि वस्तुएं उन्हें दान करते थे जिसे वे सभा में ही नीलाम कर देते थे। एक दिन प्रार्थना सभा में गांधी जी एक चौकी पर बैठे हुए थे और उनके पीछे तथा बगल में अन्य कई नेता विराजमान थे। शम्भूनाथ जी अपनी भेंट लेकर मंच के पास तक पहुंचे किन्तु गांधीजी तक पहुंचना बहुत कठिन था। गांधी जी के बगल में सरदार बल्लभ भाई पटेल बैठे थे और यदि कोई कुछ दान देना चाहता था तो उसे वहीं ले लेते थे। फेम में मढ़ी हुई कविता को भी सरदार पटेल ने लेना चाहा, किन्तु शम्भुनाथ जी ने कहा मैं इस कविता को स्वयं अपने हाथ से गांधी जी को भेंट करूंगा। सरदार पटेल ने उन्हे ऐसा करने से रोका किन्तु तब तक शम्भुनाथ जी उन्हे फटकारते हुए मंच पर पहुंचकर महात्मा जी के चरणों में समर्पित कर दिया। थोड़ी देर बाद जब गांधी जी ने भेंट की गई -वस्तुओं की नीलामी प्रारम्भ की तो सबसे अधिक बोली 50/ रू० लगाकर श्री शिवप्रसाद गुप्त जी ने उस कविता को अपने पास सहेज लिया।
जब शम्भूनाथ जी उदय प्रताप कालेज की दसवी कक्षा में पढ़ रहे थे उसी समय ब्रिटिश आर्मी के रिटायर्ड कैप्टन ए.डब्ल्यू. लांग वहा प्रिंसिपल होकर आये। प्रिसिपल कैप्टन लांग का छात्रों के साथ व्यवहार अत्यन्त बर्बर था. जिससे छात्र बहुत असन्तुष्ट थे। प्रिसिंपल महोदय ये छात्रों की परीक्षाओं से एक माह पूर्व होने वाले अभ्यासावकाश को समाप्त कर देने की घोषणा की। इस पर सभी छात्रों ने शम्भूनाथ जी के नेतृत्व मे यह निर्णय लिया कि इस तानाशाही निर्णय के विरूद्ध हड़ताल की जाय। अन्ततोगत्वा हडताल हुयी, जिससे अंग्रेज प्रिंसिपल को अपने निर्णय से डिगना पड़ा और छात्रों को अवकाश मिला। जब हाईस्कूल परीक्षा समाप्त हुयी तो विदाई समारोह में प्रिसिंपल एवं उनके पिट्दू अध्यापकों के भाषण में छात्रों ने "शर्म-शर्म" की आवाज लगाई, परिणामतः उन अध्यापकों ने चिढ़े हुऐ प्रिसिंपल से यह शिकायत की कि यह बेइज्जती शम्भूनाथ के उकसावे पर हुयी है, बस क्या था? प्रिसिंपल ने छात्रावास में जाकर चिल्लाकर पूछा कि 'शम्भुनाथ कौन है?" उस समय छात्रावास के विद्यार्थी मेंस में भोजन कर रहे थे। हाथ धोकर शम्भुनाथ जी ने कहा की "मैं हूं।" इस पर प्रिसिंपल ने उन्हे बिना कारण बताये मारना शुरू कर दिया। प्रिंसिपल के इस कूर व्यवहार को इन्होने भी उसी भाषा में उत्तर दिया। इतने में छात्र इकट्ठे हो गये और अंग्रेजों के खिलाफ उनके जोश ने जोर मारा और फिर प्रिंसिपल की खूब पिटाई हुयी। प्रिसिंपल की पिटाई की घटना दूसरे दिन अखबारों में छपी और लोगों ने इस घटना की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोध छात्र श्री रामप्रवेश शुक्ल अपने शोध कार्य 'हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'डॉ० शम्भुनाथ सिंह का योगदान' में लिखते हैं कि जब शम्भुनाथ जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी०ए० के छात्र थे, उसी समय दैनिक पत्र 'भारत' में मुशी ईश्वर चन्द्र ने यह विज्ञापन निकलवाया कि एक सवर्ण छात्र की आवश्यकता हो जो गंगा तट पर स्थित 'हरिजन आश्रम में हरिजन छात्रों के साथ रहे और उनके साथ मिल कर आश्रम का कार्य करे, उसके निवास और भोजन की व्यवस्था आश्रम की ओर से होगी। विज्ञापन पढ़कर शम्भूनाथ जी मुंशी जी से मिलकर आश्रम में रहने लगे, जहां इन्हें चमार, पासी, ६ कि गोबी, मुसहर आदि हरिजन छात्रों के साथ रहना और उनके साथ मिलकर भोजन बनाना, बर्तन साफ करना, झाडू लगाना आदि कार्य करना पड़ता था। सबको अपनी जूठी का थाली स्वयं साफ करनी पड़ती थी। यह आप पर गांधी जी के हरिजन सेवा का प्रभाव था।
बी०ए० करने के पश्चात् जब आप बनारस आये तो इनके कर्तव्य मार्ग के समक्ष दो प्रश्न थे, जहां एक ओर शम्भुनाथ जी एम०ए० करना चाहते थे वहीं देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय हाथ बंटाना चाहते थे। इनके अभिन्न मित्र श्री सागर सिंह ने उसी समय इनका परिचय प्रसिद्ध कान्तिकारी वि नेता श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल से कराया, जो उस समय अपने कान्तिकारी जीवन के अनुभव लिख रहे थे और उन्हे एक हिन्दी लेखक की आवश्यकता थी। श्री सान्याल ने शम्भूनाथ जी को उसकार्य पर नियुक्त कर लिया। कुछ समय बाद सान्याल जी के संपादकत्व में 'अग्रगामी' नामक दैनिक पत्र निकला और सान्याल जी ने इन्हें 'अग्रगामी' का सहायक सम्पादक नियुक्त कर लिया। सान्याल जी इन्हे अपना प्रधान सम्पादक बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने आपको 'आज' कार्यालय में जाकर सम्पादन कार्य सीखने की सलाह दी। शम्भुनाथ जी ने मुंशी कालिका प्रसाद के साथ बैठ कर अंग्रेजी समाचारों का हिन्दी में अनुवाद करने, शीर्षक लगाने और प्रूफ देखने का काम सीखा। इसके एक मास बाद वे 'अग्रगामी' के समाचार सम्पादक बना दिया गये।
जुलाई सन् 1942 में जब उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम०ए० द्वितीय वर्ष में दाखिला लिया तोउसके अगले ही महीने में 9 अगस्त को देश में 'अंग्रेजो! भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। गांधी जी ने यह घोषणा की कि इस बार आन्दोलन समाप्त नहीं होगा, कार्यकर्ताओं को करो या मरो का संकल्प लेकर जो करना चाहें वह करें। यह अनुमति पाकर देश भर में रेल पटरियां उखाड़ी जाने लगीं, सड़कें काटी जाने लगी, पुल तोड़े जाने लगे, कचहरियों, थानों और जेलों पर कांग्रेस का झण्डा फहराने लगा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी कान्ति की चिन्गारी फैल गयी। समाजवादी छात्र नेता श्री राजनारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का बहुत बड़ा जुलूस कचहरी की ओर बढ़ा। शम्भुनाथ सिंह जी भी अपने मित्र साहित्यकार श्री गंगारत्न पाण्डेय तथा प्रसिद्ध गीतकार श्री मोती बी०ए० के साथ जुलूस में शमिल थे। कचहरी में छात्रों ने कांग्रेस का झण्डा फहरा दिया। पुलिस बौखला उठी, लाठी चार्ज हुआ और छात्र तितर-बितर हो गये। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बन्द कर दिया गया और बके सेना ने वहां घेरा खाल दिया। शम्भुनाथ जी अपने मित्र सागर सिंह बडू के साथ बबुरी स्थित उनके गांव खरहुआ चले गये। लेकिन मित्रों ठी की गतिविधियां वहां भी बन्द नहीं हुयी। 10 अगस्त को उन्होंने बबुरी जी बाजार में जनसमा में भाषण दिया कि 'हमें आज से यह मान लेना चाहिए कि भारत में अंग्रेजी राज्य समाप्त हो गया अब यहां हमारे देश जो की जनता का राज होगा। इसके लिए आवश्यक है कि सड़कों को और काट दिया जाय, ताकि ब्रितानी सरकार की पुलिस एवं सेना की ना गाडियां न आने पावे। उन्होने सागर सिंह के साथ मुगलसराय से त्र बबुरी जाने वाली सड़क को गांव के लोगों के साथ मिलकर काट री दिया। इन लोगों का लक्ष्य यह था कि चन्दौली थाने को फूंक दिया ने जाय और रेलवे लाइन उखाड़ दिया जाय। परन्तु उसी समय अपनी कोमाता की मृत्यु के कारण इन्हे अपनी यह योजना छोड़कर अपने गाव जाना पड़ा। गाव से लौटने के बाद आपने यह महसूस किया कि एक पत्रकार के रूप में वे स्वाधीनता आन्दोलन में अधिक सक्रिय ढंग से भागीदारी कर सकेंगे। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने पं० - कमलापति त्रिपाठी के सम्पादकत्व में 'आज' के सम्पादकीय विभाग में साप्ताहिक सम्पादक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। बाद में वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक 'आज, उदयप्रताप कालेज की पत्रिका 'क्षत्रिय मित्र तथा अपने अग्रज एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ० स्वामीनाथ  सिंह द्वारा प्रकाशित 'नया हिन्दुस्तान' का सम्पादन करते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात आपने अपने को पूर्णतः साहित्य एवं अध्यापन - कार्य से सम्बद्ध कर लिया एवं आचार्य नरेन्द्रदेव के निर्देश पर काशी विद्यापीठ में अध्यापन कार्य करने लगे।
             इस प्रकार देखा जाय तो डॉ० शम्भुनाथ सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय योगदान देकर भी कभी स्वतंत्रता पश्चात स्वतंत्रता संनानी के रूप में स्वयं के परिचय के आग्रही नहीं रहे। न ही उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में किसी सुविधा का उपभोग करना पसन्द किया। काशी के सांस्कृतिक परिवेश को देखते हुए स्वतंत्रता आन्दोलन में डॉ० शम्भुनाथ सिंह जैसे साहित्यकार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। स्वतंत्रता के इस स्वर्ण जयन्ती वर्ष में इस महान साहित्यकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके द्वारा अपनी आजन्म हिन्दी सेवा के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से प्राप्त पुरस्कार राशि द्वारा स्थापित आचार्य नरेन्द्रदेव संग्रहालय एवं तिलक पुस्तकालय, जो वर्तमान में डॉ० शम्भुनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन के अन्तर्गत कार्यरत है, को राज्य एवं केन्द्र सरकारें उचित संरक्षण एवं सहयोग प्रदान करें, जिससे हम अपने राष्ट्र की महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों तथा विरासत की रक्षा कर सकें।
वाराणसी,16 जून 2024

गुरुवार, 30 मई 2024

महावीर स्वामी

#भगवान_महावीर_स्वामी
सत्य अहिंसा के प्रेरणास्तंभ भगवान महावीर जैन धर्म के चौबीसवै तीर्थकर के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें महावीर वर्द्धमान भी कहते है। तीर्थकर का अर्थ सर्वोच्च उपदेशक होता है जो समाज को अपने उपदेशों एवं जीवन चरित्र व कार्यों के माध्यम से एक सही दिशा दिखाये। महावीर स्वामी का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में 540 ईसा पूर्व में कुण्डग्राम वैशाली में हुआ था । तत्कालीन महाजनपद वैशाली वर्तमान बिहार प्रदेश में स्थित था। उनकी माता का नाम प्रियकारणी त्रिशला व पिता का नाम सिद्धार्थ था। मान्यताओं के अनुसार महावीर के माता पिता तेइसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ जी के अनुयायी थे। जब महावीर का जन्म होने वाला था उसके पूर्व से ही इंद्र ने यह जानकर कि प्रियकारिणी त्रिशला के गर्भ से महान आत्मा का जन्म होने वाला है, प्रियकारिणी त्रिशला की सेवा के लिये षटकुमारी देवियों को भेजा। रानी त्रिशला ने स्वप्न में ऐरावत हाथी और अनेकों शुभ चिन्ह देखे जिससे यह अनुमान लगाया कि नये तीर्थकर इस पावन धरा पर पुनर्जन्म लेने वाले है। चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन वर्द्धमान का जन्म हुआ। महावीर के जन्म वर्ष में कृषि व्यापार, उद्योग में जबदस्त लाभ हुआ। लोगों को आत्मिक, भौतिक व शारीरिक सुख शान्ति का अनुभव हुआ। इस लिये उनके जन्म पर पूरे राज्य में उत्सव मनाये गये और बालक को विभिन्न नामों से विभूषित किया गया। कुलगुरु सोधमेन्द्र ने उनका नाम नगर में उत्साह व वृद्धि को ध्यान में रख कर 'वर्द्धमान' रखा तो ऋद्धिधारी मुनियों ने उन्हें 'सन्मति' कह कर पुकारा। संगमदेव ने उनके अपरिमित साहस की परीक्षा ले कर 'महावीर नाम से अभिहित किया।
बचपन से ही महावीर सांसारिक क्रिया कलापों के बजाय आध्यात्मिक एवं आत्मिक शांति, ध्यान जैसे कार्यों में अधिक समय बीताते थे। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपने परिजनों से अनुमति ले कर सभी सांसारिक सम्पतियों, सुख सुविधाओं को त्याग दिया  और आध्यात्मिक जागृति की खोज में घर छोड़ कर तपस्या करने लगे। साढ़े बारह वर्षों तक गहन ध्यान और कठोर तपस्या के पश्चात उन्हें सर्वज्ञता की प्राप्ति हुई। सर्वग्यता का अर्थ शुद्ध एवं केवल ज्ञान होने से इसे कैवल्यता प्राप्ति भी कहते हैं। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात 'वर्द्धमान' जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर के रूप में जाने जाने लगे और 'महावीर जैन' के रूप में प्रतिष्ठित हुये। महावीर जैन का अर्थ है वह महावीर जिसने स्वयं हो जान लिया और सर्वस्व को जीत लिया। इसके पश्वात महावीर समाज में अहिंसा सत्य अपरिग्रह की शिक्षा देने लगे। महावीर ने सिखाया कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय अर्थात चोरी न करना, ब्रह्‌मचर्य अर्थात शुद्धता एवं अपरिग्रह अर्थात किसी से लगाव व मोह का न होना आध्यात्मिक मुक्ति के लिये आवश्यक है। उन्होंने अनेकांतवाद अर्थात बहुपक्षीय वास्तविकता के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। महावीर की शिक्षाओं को उनके प्रमुख शिष्य इंद्रभूति गौतम ने जैन आगम के रूप में संकलित किया था। माना जाता है कि जैन भिक्षुओं द्वारा मौखिक रूप से संप्रेषित ये ग्रंथ ईषा की पहली शताब्दी तक आते आते काफी हद तक विलुप्त हो गये।
महावीर ने जीवन चर्चा के लिये सर्वजन हेतु एक आचार संहिता बनाई जिसमें किसी भी जीवित प्राणी अथवा कीट की हिंसा न करना, किसी भी वस्तु को किसी के दिये बिना स्वीकार न करना, मिथ्या भाषण अर्थात झूठ नहीं बोलना आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, मात्र शारीरिक आवरण के वस्त्रों के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का संचय न करना प्रमुख है।
जैन ग्रंथों एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित है कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं है। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवे तीर्थकर है जिन्होंने आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बना कर भारतीय साधना परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया। महावीर ने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रांति संपन्न करते हुये उद्‌घोष किया कि आँख मूंद कर किसी का अनुकरण या अनुशरण मत करो। धर्म दिखावा नहीं है, धर्म रूढ़ि नहीं है, धर्म प्रद‌र्शन नहीं है एवं धर्म किसी के प्रति घृणा एवं द्वेषभाव भी नहीं है। महावीर ने धर्म को कर्म काण्डों, अंधविश्वासों, पुरोहितों के शोषण तथा भाग्यवाद की अकर्मण्यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकाल धर्मो के आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठाया। महावीर ने घोषणा किया कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है। धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिसमें आत्मा का शुद्धिकरण होता है। धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। साधना की सिद्धि परम- शक्ति का अवतार बन कर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन होने में नहीं है बाल्के वह तो बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है।
जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार तपश्या को अवधि पूर्ण कर कैवल्य प्राप्ति के पश्चात लगभग तीस वर्षों तक महावीर धर्म का प्रचार करते रहे और उनका निर्वाण 527 ईषा पूर्व नालन्दा जिले के पावापुरी में हुआ।
महावीर स्वामी के अनेक नाम है जिनमें अर्हत, जिन, निर्ग्रथ, महावीर, अतिवीर प्रमुख है। मान्यता है कि 'जिन' नाम से ही उनके अनुयायियों ने धर्म का नाम जैन धर्म रखा। जैन धर्म में अहिंसा तथा कर्मो की पवित्रता पर विशेष बल दिया जाता है। भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह को साक्षात मूर्ति थे। वे सभी के साथ समान भाव रखते थे और किसी को भूल कर भी कोई दुख नहीं देना चाहते थे। भगवान महावीर के अनुयायी उनके नाम का स्मरण श्रद्धा और भक्ति से लेते हैं। उनका यह मानना है कि महावीर स्वामी ने इस जगत को न केवल मुक्ति का संदेश दिया अपित मुक्ति की सरल व सच्ची राह भी बताई। भगवान महावीर ने आत्मिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। पूरे भारत में  भगवान महावीर के उपदेशों का पालन करते हुये श्रद्धापूर्वक उनका जन्मदिन महावीर जयंती के रूप में मनाता है।
(दिगंबर जैन मंदिर धर्मशाला मे महावीर जयंती पर उद्बोधन,जिसका प्रसारण #आकाशवाणी वाराणसी द्वारा दिनांक 21अप्रैल 2024 को सायं 5 बजे हुआ।)

व्योमवार्ता/ बोयेगें पेड़ कैक्टस का....../व्योमेश चित्रवंश की डायरी 30मई2024

   
                    अभी अभी सुबह के टहलाव (मार्निंग वाक) से वापस आया हूं। आज तीन चक्कर के बजाय दो ही चक्कर पूरा कर के इस दैनिक कार्यक्रम का इतिश्री कर लिया। कारण आज बहुत गर्मी है। सुबह के छ:बजे ही तापमान 36डिग्री  और फीलिंग लाईक 38 दिखा रहा है। आज हमारे बनारस का चुनावी तापमान भी अपने चरम है। लोकसभा चुनाव का आज आखिरी प्रचार दिवस है। यू पी कालेज जहां हम सुबह के टहलाव पर जाते है वहीं से दो विधानसभा क्षेत्र के लिये पोलिंग पार्टियों की रवानगी होने से प्रशासन ने खेल के मैदान को अपने कब्जे मे ले लिया है लिहाजा मैदान के अंदर टहलने और खेलने वालों की भीड़ भी हमारे पैदल परिक्रमा पथ पर ही आ कर उसे ओवरक्राउडेड बना दी है। गर्मियों की छुट्टियां होने से और मायके विजिट के इस महीने मे वैसे भी मायके आये और साल भर के बोरिंग बिजी रूटीन से निजात पायी विवाहित महिलाओं और बच्चों के उत्साह से भी कालेज की सुबह शाम कुछ ज्यादा चहल पहल वाली हो जाती है। बहरहाल मै चर्चा गर्मी की कर रहा था पिछले वर्षों से तापमान का मिजाज लगातार बढ़ता जा रहा है। बनारस मे आ रहे यात्रियों की तरह। गणित के अनुमान से कहे तो प्रतिवर्ष लगभग 15 से 20 प्रतिशत। यहां के लोकप्रिय सांसद मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शहर के बिजली व्यवस्था मे अभूतपूर्व परिवर्तन आया। जहां बनारस 8से12 घंटे बिजली पा कर अपने दैनिक जीवन को समायोजित करने का अभ्यस्त हो चला था वहीं शुरूआती वर्षों मे 24 घंटे बिजली उसके लिये मुंहमांगी नियामत थी। इनवर्टर के बैटरी की बिक्री गिर कर 10-15 प्रतिशत रह गई। लोग बाग महानगरीय जीवन को सच्चे अर्थों मे जीने के अभ्यस्त होने लगे।पुराने नंगे अल्युमुनियम तारों को हटा कर इंसुलेटेड केबुल फैला कर, तो पुराने काले चांद कांटा वाले मीटरों के जगह स्मार्ट मीटरों को लगा कर बिजली चोरी पर लगाम कसा गया तो धीरे धीरे सुबह तड़के उठ कर मौसम के मिजाज परखने वाला मस्त बनारसी भी आरामदायक जीवन जीने का आदी होने लगा। मंहगाई का रोना लेकर जोर जोर से ढपोरसंख बजाने वाले भी शहर मे आये तब्दीली और जेब मे आये गरमी को महसूस करने लगे। कभी काले पंखों का निर्माता शोधकर्ता रहा पूरा शहर अब  पंखे से एसी पर शिफ्ट होने लगा। आज स्थिति यह है कि हर घर मे दो तीन एसी लटक कर घर वालों को ठण्डा तो गली और शहर को गर्म बना रहे हैं। 
बनारस शहर पहले कूंये, पोखरे, बावली, बाग बगीचे के नाते जाना जाता था। बहरी अलंग,गहरेबाजी, अड़ी और गंगापूजैया गलियों व मंदिरों के इस शहर का मौलिक स्वभाव था पर आज बनारस मे हो रहे माईग्रेशन और इंपोर्टेड आबादी शहर का मिजाज बदल रही है। बाग बगीचे खत्म हुये तो उनसे जुड़ा बहरी अलंग खत्म हो गये। गहरेबाजी तो बीसवीं सदी के आंठवे दशक के बाद इतिहास बन कर रह गया। मंदिरों को पर्यटन व व्यवसायिक बनाने व सौन्दर्यीकरण विस्तारीकरण के नाम पर गलियों व स्थानीय छोटे छोटे मंदिरों का जो सत्यानाश हुआ उसने शहर का मिजाज बदल कर रख दिया। सड़को को चौड़ी कर के उनके फुटपाथ व पटरियों को अगलबगल के दुकानदारों को दे कर उन्हे रोजाना कमाई का हिस्सा बना लिया गया । तारकोल,पत्थर के  चौके, सीमेन्टेड ब्रिक्स के डमरू बिछा कर रहे सहे पेड़ों की सांस रोक कर उन्हे आत्महत्या को मजबूर कर दिया गया आज हालात यह है कि बनारस की सड़कों पर चलते हुये पन्ना लाल पार्क के बाद शायद ही आपको कहीं पेड़ की छाया मिल सके। यह कमाल किया शहर के भाग्यनियंता बने जिम्मेदार अधिकारियों ने, जिन्हे न बनारस शहर के मिजाज का पता है न ही यहां भूगोल इतिहास संस्कृति और सामाजिक परिवेश का। शहर मे आने वाले हर सड़क को फोरलेन सिक्सलेन बना दिया गया या बनाया जा रहा है पर उन बढ़ते लेनों के लिये हम शहरवासिंयों ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है वह आज के बढ़ते पारे से समझा जा सकता है। सड़को के किनारे लगे नीम जामुन पीपल गुलमोहर पाकड़ काट कर उनके जगह बोगेनबीलिया और कनेर के पेड़ लगा कर पर्यावरण का समायोजन करेगें तो सूरज को दोष देना बेमानी ही होगा। इधर सात आठ सालों से एक नया फैशन चला है जून के मध्य दूपहरिया मे पेड़ लगाने का विश्वरिकार्ड बनाने का। मुझे लगता है अगर वृक्षारोपड़ का हमारा रिकार्ड वाकई धरातल पर होता तो अब तक पूरा देश घनघोर जंगल मे तब्दील हो गया होता। पर जुलाई के पहले हफ्ते मे मै प्राय: देखता हूं कि वर्ल्डरिकार्ड प्लांटेशन वाले वे सभी गड्ठे, ट्रीगार्ड ,बोर्ड सहित जगहें भी अगले साल वर्ल्डरिकार्ड बनाने के लिये खाली हो चुके होते है। आज तक हम यह नही समझ पाये कि वह कौन सा वानिकी और पर्यावरण विशेषज्ञ है जो बनारस और मैदानी जिलों मे जून के 45डिग्री टेम्परेचर मे प्लांटेशन करवा कर पैसों का पेड़ उगाते हैं?
         आज हर दूसरा व्यक्ति इस बात को लेकर परेशान है कि टेम्परेचर बढ़ रहा है, एसी काम नही कर रहा है,बिजली कट रही है, ट्रांसफार्मर जल रहा है पर कभी खुद से नही पूछता कि इसके लिये उसने व्यक्तिगत तौर पर क्या प्रयास किया है?
आज मेरे आगे आगे टहल रहे दो बुजुर्गवार मे से एक सज्जन दूसरे को बता रहे थे कि गांव के दरवाजे पर लगा चार नीम का पेड़ इस साल बेंच कर एक दो टन का और एसी ड्राइंगरूम मे लगवा लिये. पेड़ बेकार ही पड़े हुये थे. बच्चे तो अब गांव जाने वाले नही, तीस हजार रूपये मिल गये थे। उन पेड़ो के नीचे दिन भर गांव के आवारा लड़के बैठ के तास खेलते थे। दूसरे सज्जन ने उनके निर्णय से सहमति जताते हुये कहा कि सही बात है एसी तो काम आयेगा पेड़ तो बेकार ही पड़े हुये थे। अभी तो एसी का दाम और बढ़ेगा इसलिये अभी खरीद लेना सही रहा। उनकी आपसी बातचीत बढ़ते गर्मी मे बिजली न रहने के लिये सरकार को कोंसने, सूरज के बढ़ते तापमान और व्यवस्था की आलोचना के साथ खत्म हुई। हम दोनो बुजुर्गवार को पहचानते है एक सात आठ साल पहले केन्द्रिय विद्यालय के प्रिंसपल पद से रिटायर हुये है दूसरे बैंक से। मै नीम के पेड़ो की कीमत की तुलना दो टन के एसी से कर रहा हूं। कुल गणितीय गुणाभाग के सही होने के बावजूद हमें नीम के मूल्य एसी से बहुत ज्यादा समझ मे आ रहे हैं। बहरहाल अपना अपना हिसाब  है। पर यह हिसाब आने वाले समय के साथ अभी के लिये कितना भारी पड़ने लगा है यह हम कब समझेगें ? कब तक आम के फल खाने की ईच्छा के बावजूद नागफनी और कैक्टस गमले मे लगा अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान सरकार की आलोचना करते रहेगें?
#व्योमवार्ता
(बनारस,30मई2024,गुरूवार)
#बोयेगें_पेड़_कैक्टस_का.....
http://chitravansh.blogspot.com

सोमवार, 27 मई 2024

व्योमवार्ता/ टूटते हुये बनते परिवार,कौन है जिम्मेदार /व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 24मई2024,शनिवार


       रोज कचहरी मे परिवार न्यायालयों के सामने नव विवाहितों व नवयुवतियों की भीड़ देख मन में परिवार संस्था पर प्रश्नचिन्ह उठता है। विवाह जैसे विश्वासी गठबंधन और संस्कार भी समयचक्र मे अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। वैवाहिक कार्यक्रमों मे शौक और दिखावे के लिये पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद साल दो साल कभी कभी महीनों और अब दिनों के अंदर विवाह को तोड़ने के लिये नव वर वधू न्यायालय के शरण मे देखे जा रहे है प्रतिदिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है, इसके कारण और जड़ पर कोई नहीं जा रहा। कभी सोचिये तो इसके पीछे महत्वपूर्ण कारण क्या है?
1, माँ बाप की अनावश्यक दखलंदाज़ी।
2, संस्कार विहीन शिक्षा।
3, आपसी तालमेल का अभाव।
4, ज़ुबान।
5, सहनशक्ति की कमी।
6, आधुनिकता का आडम्बर।
7, समाज का भय न होना।
8, घमंड।
9, अपनों से अधिक गैरों की राय।
10, परिवार से कटना।
11.और सबसे ऊपर मोबाईल फोन
मेरे ख्याल से बस यही 11 कारण हैं जो विवाह के अस्तित्व को घर की दहलीज से न्यायालय के देहरी तक ले जाते हैं।
शायद पहले भी तो परिवार होता था और वो भी बड़ा, लेकिन वर्षों आपस में निभती थी, भय भी था प्रेम भी था और रिश्तों की मर्यादित जवाबदेही भी।
पहले माँ बाप ये कहते थे कि मेरी बेटी गृह कार्य मे दक्ष है, और अब मेरी बेटी नाज़ो से पली है आज तक हमने तिनका भी नहीं उठवाया, तो फिर करेगी क्या शादी के बाद??
शिक्षा के घमँड में आदर सिखाना और परिवार चलाने के सँस्कार नहीं देते। माँएं खुद की रसोई से ज्यादा बेटी के घर में क्या बना इसपर ध्यान देती हैं, भले ही खुद के घर में रसोई में सब्जी जल रही हो, ऐसे मे वो दो घर खराब करती है।
मोबाईल तो है ही रात दिन बात करने के लिए, परिवार के लिये किसी के पास समय नहीं, या तो टीवी सीरियल्स या फिर पड़ोसन से एक दूसरे की बुराई या फिर दूसरे के घरों में ता‌ंक झांक, जितने सदस्य उतने मोबाईल, बस लगे रहो।
बुज़ुर्गों को तो बोझ समझते हैं, पूरा परिवार साथ बैठकर भोजन तक नहीं कर सकता, सब अपने कमरे में, वो भी मोबाईल पर।बड़े घरों का हाल तो और भी खराब है, कुत्ते बिल्ली के लिये समय है, परिवार के लिये नहीं, सबसे ज्यादा गिरावट तो इन दिनों महिलाओं में आई है।
दिन भर मनोरँजन, मोबाईल, स्कूटी..समय बचे तो बाज़ार और ब्यूटी पार्लर, जहां घंटों लाईन भले ही लगानी पड़े, भोजन बनाने या परिवार के लिये समय नहीं। होटल रोज़ नये नये खुल रहे हैं।
जिसमें स्वाद के नाम पर कचरा बिक रहा है, और साथ ही बिक रही है बीमारी और फैल रही है घर में अशांति, क्योंकि घर के शुद्ध खाने में पौष्टिकता तो है ही प्रेम भी है, लेकिन ये सब पिछड़ापन हो गया है।
आधुनिकता तो होटलबाज़ी में है, बुज़ुर्ग तो हैं ही घर में चौकीदार, पहले शादी ब्याह में महिलाएं गृहकार्य में हाथ बंटाने जाती थी, और अब नृत्य सीखकर। क्यों कि महिला संगीत मे अपनी प्रतिभा जो दिखानी है। जिस की घर के काम में तबियत खराब रहती है वो भी घंटों नाच सकती है।
घूँघट और साड़ी हटना तो ठीक है, लेकिन बदन दिखाऊ कपड़े?? ये कैसी आधुनिकता है?
बड़े छोटे की शर्म या डर रही है क्या??वरमाला में पूरी फूहड़ता, कोई लड़के को उठा रहा है, कोई लड़की को उठा रहा है ये सब क्या है?? और हम ये तमाशा देख रहे है मौन रहकर।
सब अच्छा है माँ बाप बच्ची को शिक्षा दे रहे है।
ये अच्छी बात है लेकिन उस शिक्षा के पीछे की सोच?? ये सोच नहीं है कि परिवार को शिक्षित करे, बल्कि दिमाग में ये है कि कहीं तलाक वलाक हो जाये तो अपने पाँव पर खड़ी हो जाये।
कमा खा ले, जब ऐसी अनिष्ट सोच और आशंका पहले ही दिमाग में हो तो रिज़ल्ट तो वही सामने आना है, साइँस ये कहता है कि गर्भवती महिला अगर कमरे में सुन्दर शिशु की तस्वीर टांग ले तो शिशु भी सुन्दर और हृष्ट पुष्ट होगा।
मतलब हमारी सोच का रिश्ता भविष्य से है, बस यही सोच कि पांव पर खड़ी हो जायेगी, गलत है संतान सभी को प्रिय है लेकिन ऐसे लाड़ प्यार में हम उसका जीवन खराब कर रहे हैं पहले स्त्री छोड़ो पुरुष भी कोर्ट कचहरी से घबराते थे और शर्म भी करते थे।
अब तो फैशन हो गया है पढे लिखे युवा तलाकनामा तो जेब मे लेकर घूमते हैं पहले समाज के चार लोगों की राय मानी जाती थी और अब माँ बाप तक को जूते पर रखते है अगर गलत है तो बिना औलाद से पूछे या एक दूसरे को दिखाये रिश्ता करके दिखाओ तो जानूं??
ऐसे में समाज या पँच क्या कर लेगा, सिवाय बोलकर फ़जीहत कराने के?? सबसे खतरनाक है औरत की ज़ुबान, कभी कभी न चाहते हुए भी चुप रहकर घर को बिगड़ने से बचाया जा सकता है।
लेकिन चुप रहना कमज़ोरी समझती है। आखिर शिक्षित है और हम किसी से कम नहीं वाली सोच जो विरासत में लेकर आई है आखिर झुक गयी तो माँ बाप की इज्जत चली जायेगी इतिहास गवाह है कि द्रोपदी के वो दो शब्द...अंधे का पुत्र भी अंधा ने महाभारत करवा दी, काश चुप रहती गोली से बड़ा घाव बोली का होता है।
आज समाज सरकार व सभी चैनल केवल महिलाओं के हित की बात करते हैं पुरुष जैसे अत्याचारी और नरभक्षी हों बेटा भी तो पुरुष ही है एक अच्छा पति भी तो पुरुष ही है जो खुद सुबह से शाम तक दौड़ता है, परिवार की खुशहाली के लिये।
खुद के पास भले ही पहनने के कपड़े न हों, घरवाली के लिये हार के सपने देखता है बच्चों को महँगी शिक्षा देता है मैं मानती हूँ पहले नारी अबला थी माँ बाप से एक चिठ्ठी को मोहताज़ और बड़े परिवार के काम का बोझ। अब ऐसा है क्या? सारी आज़ादी।
मनोरंजन हेतु TV, कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन, मसाला पीसने के लिए मिक्सी, रेडिमेड आटा, पानी की मोटर, पैसे हैं तो नौकर चाकर, घूमने को स्कूटी या कार फिर भी और आज़ादी चाहिये। आखिर ये मृगतृष्णा का अंत कब और कैसे होगा? घर में कोई काम ही नहीं बचा।दो लोगों का परिवार, उस पर भी ताना, कि रात दिन काम कर रही हूं।
ब्यूटी पार्लर आधे घंटे जाना आधे घंटे आना और एक घंटे सजना नहीं अखरता। लेकिन दो रोटी बनाना अखर जाता है। कोई कुछ बोला तो क्यों बोला? बस यही सब वजह है घर बिगड़ने की। खुद की जगह घर को सजाने में ध्यान दे तो ये सब न हो। समय होकर भी समय कम है परिवार के लिये, ऐसे में परिवार तो टूटेंगे ही। पहले की हवेलियां सैकड़ों बरसों से खड़ी हैं और पुराने रिश्ते भी।
आज बिड़ला सिमेन्ट वाले मजबूत घर कुछ दिनों में ही धराशायी। और रिश्ते भी महीनों में खत्म। इसका कारण है घरों को बनाने में भ्रष्टाचार और रिश्तों मे ग़लत सँस्कार। खैर हम तो आधा जीवन जी लिये, सोचे आनेवाली पीढी, घर चाहिये या दिखावे की आज़ादी ? दिनभर घूमने के बाद रात तो घर में ही महफूज़ रहती है।
मेरी बात क‌इयों को हो सकता है बुरी लगी हो, विशेषकर महिलाओं को लेकिन सच तो यही है, समाज को छोड़ो, अपने इर्द गिर्द पड़ोस में देखो। सब कुछ साफ दिख जायेगा। यही हर समाज के घर घर की कहानी है जो युवा बहनें हैं और जिनको बुरा लगा हो वो थोड़ा इंतजार करो क्यों कि सास भी कभी बहू थी के समय में देरी है लेकिन आयेगा ज़रुर ।
मुझे क्या है जो जैसा सोचेगा सुख दुःख उन्हीं के खाते में आना है बस तकलीफ इस बात की है कि हमारी ग़लती से बच्चों का घर खराब हो रहा है वे नादान हैं। क्या हम भी हैं? शराब का नशा मज़ा देता है लेकिन उतरता ज़रुर है फिर बस चिन्तन ही बचता है कि क्या खोया क्या पाया?? पैसों की और घर की बर्बादी।
उसके बाद भी शराब के चलन का बढ़ना आज की आधुनिक शिक्षा को दर्शाता है अपना अपना घर देखो सभी। अभी भी वक्त है नहीं तो व्हाटसप में आडियो भेजते रहना, जग हंसाई के खातिर, कोई भी समाजसेवक कुछ नहीं कर पायेगा, सिवाय उपदेश के।
आपकी हर समस्या का निदान केवल आप ही कर सकते हो। सोच के ज़रिये, रिश्ते झुकने पर ही टिकते है तनने पर टूट जाते है। इस खूबी को निरक्षर बुज़ुर्ग जानते थे, आज का मूर्ख शिक्षित नहीं, काश सब जान पाते।
#व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 24मई 2024