अभी अभी सुबह के टहलाव (मार्निंग वाक) से वापस आया हूं। आज तीन चक्कर के बजाय दो ही चक्कर पूरा कर के इस दैनिक कार्यक्रम का इतिश्री कर लिया। कारण आज बहुत गर्मी है। सुबह के छ:बजे ही तापमान 36डिग्री और फीलिंग लाईक 38 दिखा रहा है। आज हमारे बनारस का चुनावी तापमान भी अपने चरम है। लोकसभा चुनाव का आज आखिरी प्रचार दिवस है। यू पी कालेज जहां हम सुबह के टहलाव पर जाते है वहीं से दो विधानसभा क्षेत्र के लिये पोलिंग पार्टियों की रवानगी होने से प्रशासन ने खेल के मैदान को अपने कब्जे मे ले लिया है लिहाजा मैदान के अंदर टहलने और खेलने वालों की भीड़ भी हमारे पैदल परिक्रमा पथ पर ही आ कर उसे ओवरक्राउडेड बना दी है। गर्मियों की छुट्टियां होने से और मायके विजिट के इस महीने मे वैसे भी मायके आये और साल भर के बोरिंग बिजी रूटीन से निजात पायी विवाहित महिलाओं और बच्चों के उत्साह से भी कालेज की सुबह शाम कुछ ज्यादा चहल पहल वाली हो जाती है। बहरहाल मै चर्चा गर्मी की कर रहा था पिछले वर्षों से तापमान का मिजाज लगातार बढ़ता जा रहा है। बनारस मे आ रहे यात्रियों की तरह। गणित के अनुमान से कहे तो प्रतिवर्ष लगभग 15 से 20 प्रतिशत। यहां के लोकप्रिय सांसद मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शहर के बिजली व्यवस्था मे अभूतपूर्व परिवर्तन आया। जहां बनारस 8से12 घंटे बिजली पा कर अपने दैनिक जीवन को समायोजित करने का अभ्यस्त हो चला था वहीं शुरूआती वर्षों मे 24 घंटे बिजली उसके लिये मुंहमांगी नियामत थी। इनवर्टर के बैटरी की बिक्री गिर कर 10-15 प्रतिशत रह गई। लोग बाग महानगरीय जीवन को सच्चे अर्थों मे जीने के अभ्यस्त होने लगे।पुराने नंगे अल्युमुनियम तारों को हटा कर इंसुलेटेड केबुल फैला कर, तो पुराने काले चांद कांटा वाले मीटरों के जगह स्मार्ट मीटरों को लगा कर बिजली चोरी पर लगाम कसा गया तो धीरे धीरे सुबह तड़के उठ कर मौसम के मिजाज परखने वाला मस्त बनारसी भी आरामदायक जीवन जीने का आदी होने लगा। मंहगाई का रोना लेकर जोर जोर से ढपोरसंख बजाने वाले भी शहर मे आये तब्दीली और जेब मे आये गरमी को महसूस करने लगे। कभी काले पंखों का निर्माता शोधकर्ता रहा पूरा शहर अब पंखे से एसी पर शिफ्ट होने लगा। आज स्थिति यह है कि हर घर मे दो तीन एसी लटक कर घर वालों को ठण्डा तो गली और शहर को गर्म बना रहे हैं।
बनारस शहर पहले कूंये, पोखरे, बावली, बाग बगीचे के नाते जाना जाता था। बहरी अलंग,गहरेबाजी, अड़ी और गंगापूजैया गलियों व मंदिरों के इस शहर का मौलिक स्वभाव था पर आज बनारस मे हो रहे माईग्रेशन और इंपोर्टेड आबादी शहर का मिजाज बदल रही है। बाग बगीचे खत्म हुये तो उनसे जुड़ा बहरी अलंग खत्म हो गये। गहरेबाजी तो बीसवीं सदी के आंठवे दशक के बाद इतिहास बन कर रह गया। मंदिरों को पर्यटन व व्यवसायिक बनाने व सौन्दर्यीकरण विस्तारीकरण के नाम पर गलियों व स्थानीय छोटे छोटे मंदिरों का जो सत्यानाश हुआ उसने शहर का मिजाज बदल कर रख दिया। सड़को को चौड़ी कर के उनके फुटपाथ व पटरियों को अगलबगल के दुकानदारों को दे कर उन्हे रोजाना कमाई का हिस्सा बना लिया गया । तारकोल,पत्थर के चौके, सीमेन्टेड ब्रिक्स के डमरू बिछा कर रहे सहे पेड़ों की सांस रोक कर उन्हे आत्महत्या को मजबूर कर दिया गया आज हालात यह है कि बनारस की सड़कों पर चलते हुये पन्ना लाल पार्क के बाद शायद ही आपको कहीं पेड़ की छाया मिल सके। यह कमाल किया शहर के भाग्यनियंता बने जिम्मेदार अधिकारियों ने, जिन्हे न बनारस शहर के मिजाज का पता है न ही यहां भूगोल इतिहास संस्कृति और सामाजिक परिवेश का। शहर मे आने वाले हर सड़क को फोरलेन सिक्सलेन बना दिया गया या बनाया जा रहा है पर उन बढ़ते लेनों के लिये हम शहरवासिंयों ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है वह आज के बढ़ते पारे से समझा जा सकता है। सड़को के किनारे लगे नीम जामुन पीपल गुलमोहर पाकड़ काट कर उनके जगह बोगेनबीलिया और कनेर के पेड़ लगा कर पर्यावरण का समायोजन करेगें तो सूरज को दोष देना बेमानी ही होगा। इधर सात आठ सालों से एक नया फैशन चला है जून के मध्य दूपहरिया मे पेड़ लगाने का विश्वरिकार्ड बनाने का। मुझे लगता है अगर वृक्षारोपड़ का हमारा रिकार्ड वाकई धरातल पर होता तो अब तक पूरा देश घनघोर जंगल मे तब्दील हो गया होता। पर जुलाई के पहले हफ्ते मे मै प्राय: देखता हूं कि वर्ल्डरिकार्ड प्लांटेशन वाले वे सभी गड्ठे, ट्रीगार्ड ,बोर्ड सहित जगहें भी अगले साल वर्ल्डरिकार्ड बनाने के लिये खाली हो चुके होते है। आज तक हम यह नही समझ पाये कि वह कौन सा वानिकी और पर्यावरण विशेषज्ञ है जो बनारस और मैदानी जिलों मे जून के 45डिग्री टेम्परेचर मे प्लांटेशन करवा कर पैसों का पेड़ उगाते हैं?
आज हर दूसरा व्यक्ति इस बात को लेकर परेशान है कि टेम्परेचर बढ़ रहा है, एसी काम नही कर रहा है,बिजली कट रही है, ट्रांसफार्मर जल रहा है पर कभी खुद से नही पूछता कि इसके लिये उसने व्यक्तिगत तौर पर क्या प्रयास किया है?
आज मेरे आगे आगे टहल रहे दो बुजुर्गवार मे से एक सज्जन दूसरे को बता रहे थे कि गांव के दरवाजे पर लगा चार नीम का पेड़ इस साल बेंच कर एक दो टन का और एसी ड्राइंगरूम मे लगवा लिये. पेड़ बेकार ही पड़े हुये थे. बच्चे तो अब गांव जाने वाले नही, तीस हजार रूपये मिल गये थे। उन पेड़ो के नीचे दिन भर गांव के आवारा लड़के बैठ के तास खेलते थे। दूसरे सज्जन ने उनके निर्णय से सहमति जताते हुये कहा कि सही बात है एसी तो काम आयेगा पेड़ तो बेकार ही पड़े हुये थे। अभी तो एसी का दाम और बढ़ेगा इसलिये अभी खरीद लेना सही रहा। उनकी आपसी बातचीत बढ़ते गर्मी मे बिजली न रहने के लिये सरकार को कोंसने, सूरज के बढ़ते तापमान और व्यवस्था की आलोचना के साथ खत्म हुई। हम दोनो बुजुर्गवार को पहचानते है एक सात आठ साल पहले केन्द्रिय विद्यालय के प्रिंसपल पद से रिटायर हुये है दूसरे बैंक से। मै नीम के पेड़ो की कीमत की तुलना दो टन के एसी से कर रहा हूं। कुल गणितीय गुणाभाग के सही होने के बावजूद हमें नीम के मूल्य एसी से बहुत ज्यादा समझ मे आ रहे हैं। बहरहाल अपना अपना हिसाब है। पर यह हिसाब आने वाले समय के साथ अभी के लिये कितना भारी पड़ने लगा है यह हम कब समझेगें ? कब तक आम के फल खाने की ईच्छा के बावजूद नागफनी और कैक्टस गमले मे लगा अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान सरकार की आलोचना करते रहेगें?
#व्योमवार्ता
(बनारस,30मई2024,गुरूवार)
#बोयेगें_पेड़_कैक्टस_का.....
http://chitravansh.blogspot.com
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