व्योमवार्ता / जून 2019 में पढ़ी किताबें :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 30जून 2019
आज जून 2019 के आखिरी रात डायरी के इस पृष्ठ को लिखते हुये खुशी महसूस कर रहा हूँ। अप्रैल तक अपने पढ़ने की आदत छूटने से मन मे एक बेचैनी महसूस कर रहा था सोशल मीडिया और मोबाईल ने पढ़ने की आदत को समाप्त तो नही पर बहुत कम कर दिया था, लिहाजा पिछले जन्मदिन को यह संकल्प लिया कि प्रत्येक सप्ताह एक किताब अवश्य पढ़ूगॉ। मई मे लिया गया यह संकल्प इस माह भी आशुतोष अवढर दानी की कृपा से सफलतापूर्वक संपूर्ण हुआ। प्रभु की कृपा हैऔर खुद को बहुत संतोष अनुभव हो रहा है।
इस महीने कुल चार किताबें हमने पढ़ा जिनमे से तीन तो वर्ष भर पूर्व से खरीदने के बाद आलमारी की शोभा बनी हुई थी। आश्विन संघी की the rozabal line , प्रभात बांधुल्या की बनारस वाला ईश्क, आशुतोष राणा की मौन मुस्कान की मार और शारदेन्दु बंधोपाध्याय की व्योमकेश बख्शी की रहस्यमयी कहानियॉ जाने कब से आलमारी से ताकते हुये हमारा इंतजार कर रही थी।
दि रोजाबल लाईन वर्ष 2015 मे दशहरे की छुट्टीयों मे दिल्ली रहने के दौरान लिया था, पचास साठ पेज पढ़े भी फिर किताब धरा गई तो उसका नंबर ही नही आया, हालॉकि उसके बाद आश्विन सांघी की आई किताबों कृष्णा की, चाणक्या चैंट, प्राईवेट इंडिया,दि स्यालकोट सागा, 13 स्टेप्स टू ब्लडी गुडलक को हमने आनलाईन मंगा कर पढ़ लिया था, पर रोजाबल लाईन बेचारी बेकसूर होते हुये भी मेरे पुस्तक संग्रह मे आश्विन सांघी के प्रथम पुस्तक व स्वयं उनकी लिखी हुई प्रथम पुस्तक हो कर भी हसरतों से हमे देखा करती थी। आखिरकार जून के संकल्प मे यह पढ़ ली गई। अकसर हमे आश्चर्य होता है आश्विन सांघी के लेखन क्षमता पर कि वह एक सफल व्यापारी होते हुये भी कैस विभिन्न विषयों की विविधताओं को समेटे इतनी जबर्दस्त रचनायें कर लेते है, उनके लेखन मे विज्ञान धर्म इतिहास मिथक अध्यात्म राजनीति का अद्भुत सामंजस्य रहस्य व रोमांचक कल्पनाओं से जुड़ा रहता है कि आप पूरी किताब पढ़ते समय यह तय ही नही कर पाते कि हम उपन्यास पढ़ रहे है कि विशेष शोधपरक तथ्य। रोजाबल लाईन की कहानी ईसा से २००० वर्ष पूर्व से प्रारंभ हो सन २०१२ तक के कालखण्ड के बिखरे मिथकों को ले कर पिरोई गई है जिसमे गौतम बुद्ध से लेकर जीसस क्राईस्ट और मोहम्मद से होते हुये ओसामा बिन लादेन तक के पात्रों को समेटते हुये रहस्य, षडयंत्र, अपऱाध का तानाबाना है, शुरूआती पृष्ठों मे बिखरे कालखण्ड के मिथक समेटने मे परेशानी होती है पर बाद मे किताब आपको पूरी तरह बॉधने मे सफल रहती है और अपने सवाल कि क्या जीसस भारत आये थे और भारत मे ही उनकी मृत्यु काश्मीर मे हुई थी। कश्मीर का रोजाबल दरगाह किसी मुस्लिम धर्मावलंबी की नही बल्कि जीसस क्राईस्ट की कब्र है । यह स्थापित करने मे लगभग सफल रहती है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है किताब के साथ दिये गये संदर्भ सूची जिसमे प्रमाण सहित २०९ संदर्भों का उल्लेख है, वे कहानी को अपने प्रामाणिकता व मूल तक पहुँचाने मे सहायक है। एक और बात जो इस किताब के बारे मे याद रखने लायक है वह यह कि प्रचलित धारा व मान्यताओं के विपरीत लिखे इस कथानक को आश्विन संघी भी पहली बार प्रकाशित करते समय अपने नाम से छपवाने की हिम्मत नही कर सके थे और द रोज़ाबाल लाइन, 2007 में एक छद्मनाम शॉन हेगिन्स से स्वयं प्रकाशित करवाया था। इस सिद्धांत पर आधारित यह धर्म शास्त्रीय थ्रिलार कि जीज़स की मृत्यु कश्मीर में हुई थी, बाद में उनके अपने नाम से 2008 में वैस्टलैंड से प्रकाशित हुआ और वैस्टसैलर बन गया और कई महीनों तक राष्ट्रीय वैस्टसैलर सूचियों में बना रहा।
अश्विन व्यवसाय से उद्यमी हैं लेकिन रोमांच विधा में ऐतिहासिक उपन्यास लिखना अश्विन का जुनून और शौक़ है। सांघी ने कैथीड्रल एंड जॉन कॉनन स्कूल, मुंबई, और सेंट ज़ेवियर कॉलेज, मुंबई से शिक्षा प्राप्त की थी और येल विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की और क्रिएटिव राइटिंग में पीएचडी किया है।
अश्विन के लेखन व रोजाबल लाईन के बारे समीक्षकों के विचार देखें तो अश्विन हम सब को विभिन्न दशकों में दुनिया की सैर पर ले जाते हैं तो धर्म, इतिहास और राजनीति के प्रति सांघी का रुझान स्पष्ट झलकता है। तुलनात्मक धर्म, ख़तरनाक रहस्यों और रोमांचकारी कथानक का मेल एक रहस्यपूर्ण उपन्यास रचता है। हमारे लिए रोज़ाबाल वंशावली जो सर्वश्रेष्ठ प्रतिफल समेटे है, वह है आश्चर्यों का ख़ाज़ाना जो इसमें भरा है, जिस प्रकार से इतिहास प्रस्तुत किया जाता है... आनंददायक, हैरान कर देने वाली साधारण बातों के रूप में। इस तरह सांघी आतंकवादी हमलों, गुप्त समाजों, मारे गए प्रोफ़ेसरों, संभ्रमित पादरियों और आकर्षक घातक महिलाओं का ज़बर्दस्त मिश्रण परोसते हैं। एक पंक्ति मे कहें तो रोज़ाबाल वंशावली वह वाक़ई मज़ेदार सवाल पूछती है—अगर ऐसा होता तो?”
प्रभात बांधुल्या की बनारस वाला ईश्क किताब का शीर्षक देख कर पढ़ने को जी किया। हमने यह स्वीकार करने मे कभी गुरेज नही किया कि बनारस हमारी कमजोरी है। बनारस वाला ईश्क गया से बीएचयू पढ़ने आये एक युवा युगल की इश्किया किस्सागोई है, जिसे मसालेदार और चटकदार बनाने के लिये उसमे छात्र राजनीति का छौंका लगाया गया है। बिहार के मगधी टच जुड़े डायलॉग अच्छे लगते है और प्रेमकहानी को ईश्क प्यार और मोहब्बत के रूमानी लहरों से बिड़ला हास्टल, छित्तूपुर, लंका तक की सैर कराते है । कहानी बनारस से बाहर निकलते ही ठहर सी जाती है जब ठकुराईन के रोड हादसे मे मरने के साथ ही जैसे रूक जाती है। हॉलाकि प्रभात कहानी को खींच कर क्लाईमेक्स तक पहुँचाने की कोशिस करते है और कुछ हद तक कामयाब भी रहे है पर कहानी मे वह जान नही आ पाती है । कुल मिला जुला कर छात्र जीवन के ईश्क प्रेम व मोहब्बत पर अच्छा उपन्यास है जो पढ़ने के बाद निराश नही करता।
अभिनेता आशुतोष राणा की लिखी मौन मुस्कान की मार को पढ़ने की प्रेरणा मेरी छात्र जीवन की छोटी बहन प्रज्ञा मोहले ने दी। प्रज्ञा जबलपुर से है और आशुतोष जी की पड़ोसन व फैन है। प्रज्ञा स्वयं भी साहित्यिक अध्यासु है और हिन्दी साहित्य मे बीएचयू से डाक्टरेट है, यह अलग बात है कि अब वह साहित्यिक क्षेत्र के बजाय जबलपुर के सांस्कृतिक गतिविधियाें मे अधिक क्रियाशील है। बहरहाल बात मौन मुस्कान के मार की। आशुतोष के साहित्यिक प्रतिभा के हम सभी तब से कायल है जब हमने उनकी कविता "हे भारत के राम जगो, मै तुम्हे जगाने आया हूँ " पहली बार सुनी थी। आशुतोष हिन्दी फिल्मों के उन अभिनेताओं मे से है जो मजे हुये विशुद्ध कलाकार है और साहित्यिक व सांस्कृतिक जागरूकता उनके रगों मे बसी है। हमे नही मालूम कि आशुतोष की इससे पहले भी कोई किताब आई थी कि नही पर मौन मुस्कान की मार एक सधी हुई लेखनी का परिणाम लगती है। आशुतोष ने अपने अगल बगल के पात्रों को अपने शहर के बुंदेलखंडी बोली मे चुटीले व्यंग्यो को पिरो कर अपने मौन मुस्कान की मार को तेज धार दी है जो पढ़ने वाले को बुंदेलखंड की दुनिया मे ले जा कर गुदगुदाती है, और घटना से संबंधित कथानक व पात्रों को अपने आस पास के लोगों मे और अपने जीवन व परिवेश मे खोजने के लिये मजबूर करती है। अपनी बात से शुरू भूमिका से ही आशुतोष का प्रभाव परिलक्षित हने लगता है जो भक्क जी महराज, विष्पाद गुधौलिया, बीसीपी उर्फ भग्गू पटेल, रामरवा लपटा महाराज, यश व राज का चक्कर, मौन मुस्कान की मार और शार्टकट कटशार्ट तक की कहानियॉ हमे अपने स्थानीय छोटे शहरों के परिवेश से जोड़ती है जहॉ एक सहसंबधता का रिश्ता आज भी दिखता है । इन व्यंग्य रचनाओं को पढ़ते हुये हम अगर भाषा बदल दे तो वह हमे अपनी और बनारस, कानपुर, गोरखपुर जैसो अपने शहरो की अपनी सी कहानी दिखती है। पढ़ के मजा आया कि अपने अास पास के लोगो से जुड़ी छोटे छोटे संस्मरणों को इतना शानदार स्वस्थ व्यंग्य का रूप दिया जा सकता है। निश्चित ही मौन मुस्कान की मार पढ़ने के बाद आशुतोष की आने वाली पुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी।
शारदेन्दु बंद्योपाध्याय की व्योमकेश बख्शी की रहस्यमय कहानियॉ हम सबलके लिये नई नही है। दूरदर्शन पर अपने शुरूआती दिनो मे हमने इस भारतीय जासूसी धारावाहिक को देखा था, एक ऐसा जासूस जो स्वयं को जासूस कहने के बजाय सत्यान्वेषी कहलाना पसंद करता था और उसका किरदार किसी पश्चिमी डिटेक्टिव पात्रो की नकल न हो कर मूल भारतीय चरित्र था। व्योमकेश की एक दो कहानियॉ अभी तक याद हने के बावजूद जब व्योमकेश बख्शी की रहस्यमय कहाँनियॉ नजरो के सामे पड़ी तो उसे पढ़ने का लोभ संवरण नही कर पाया। कुल १३० पृष्ठों मे ५ कहानियॉ सत्यान्वेषी, ग्रामोफोन पिन, तरनतुला का जहर , वसीयत का जंजाल, विपदा का संहार कुछ मंहगी लगती है पर आज भी एक बैठकी मे पूरी किताब पढ़ लेने का मोह बनाये रखती है। आज हमारे देश मे ऐसे साफ सुथरे रहस्य रोमांच से भरे आकर्षक कथानक वाले उपन्यासों की कमी खलती है।
कमी तो पढ़ने वालो की भी खलती है , हम अभी हाल मे ही इसी ख्याल को लफ्जों मे कह बैठे " आलमारी की किताबें हसरतों से देखती है हमें, बदल रहे है शौक अब जमाने के।"
(बनारस, 30 जून 2019, रविवार)
http://chitravansh.blogspot.com
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