व्योमवार्ता/ दिसंबर 2019 मे पढ़ी किताबें
#किताबें मेरी दोस्त : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 31 दिसंबर 2019
दिसंबर 2019 काफी सर्द और सूकून भरा रहा। मौसममापी यंत्रों ने बताया कि इस साल ठंड ने 118 सालों का रिकार्ड तोड़ा। बनारस में 30दिसंबर को 2.3डिग्री सेल्सियस था । कचहरी मे दोनो बार के चुनाव के चलते चलते फिर शीतकालीन अवकाश ने थोड़ी फुरसत दिया तो ठंड ने घर के बाहर वाली अन्य गतिविधियों से। लिहाजा मेरी दोस्त किताबों ने अधिकार सहित मेरे साथ खूब समय बिताया । अप्रैल से किताबों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ने की संकल्पयात्रा दिसंबर के पाव मे बेहद सूकूनभरी रही। इस महीने हमने कुल दस किताबें शरद असष्ठाना की "कन्हैया तूने यह क्या किया", डॉ० सुधा चौहान राज की " महोबा: आल्हा ऊदल की महागाथा, नीलोत्पल मृणाल की "औघड़", सुधा मूर्ति की " महाश्वेता ", जावेद अख्तर की कैलियोग्राफिक शैली मे लिखी गई "ख्वाब के गॉव में", दिव्य प्रकाश दूबे की मुसाफिर cafe", सीमा त्रेहन की "सरल ज्योतिषीय उपाय", डॉ० शैलेन्द्र कुमार मिश्र की " बड़ी परेशानी है भाई" के अतिरिक्त दो लुगदी उपन्यास रीमा भारती का "कंकाल बादशाह" व केशव पंडित का " कब आओगे किशन कन्हैया" पढ़ा।बहुत दिनो बाद एक महीने मे पढ़ी जाने वाली किताबों की संख्या दहाई तक पहुँची।
शुक्रिया मेरी दोस्त।उम्मीद है कि दोस्ती की यह संकल्प यात्रा सन 2020 मे भी जारी रहेगी।
#किताबें मेरी दोस्त
(बनारस,31 दिसंबर 2019, मंगलवार)
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अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
मंगलवार, 31 दिसंबर 2019
व्योमवार्ता/ दिसंबर 2019 मे पढ़ी किताबें #किताबें मेरी दोस्त : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 31 दिसंबर 2019
रविवार, 29 दिसंबर 2019
व्योमवार्ता/आल्हा कथानक का प्रामाणिक इतिहास: डॉ० सुधा चौहान राज की पुस्तक महोबा, आल्हा ऊदल की महागाथा: व्योमेश चित्रवंश की डायरी
व्योमवार्ता/आल्हा कथानक का प्रामाणिक इतिहास: डॉ० सुधा चौहान राज की पुस्तक महोबा, आल्हा ऊदल की महागाथा : व्योमेश चित्रवंश की डायरी,28दिसंबर 2019
अप्रैल 2019 से हर माह कम से कम चार पुस्तकें पढ़ने के संकल्पयात्रा मे बुंदेली इतिहास पर रेडग्रैब बुक्स, इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुस्तक डॉ० सुधा चौहान राज की महोबा : आल्हा ऊदल की महागाथा मिल गई। सत्यनिष्ठा से यह स्वीकार करने मे मुझे कोई गुरेज नही है कि मेरी इतिहास मे रूचि कम है पर बचपन मे हर चौमासे आल्हा गा कर सुनाने वाले मोछू चाचा और उनके ढपले की तीखी व नकियाती आवाज हमें सदैव से आल्हा ऊदल के बारे मे जानने की उत्सुकता जगाती थी। एक बार शारदा देवी के दर्शन के लिये मैहर जाने पर वहॉ आल्हा के अब तक अमर होकर प्रतिदिन देवी दर्शन के बारे मे सुना था तो उत्सुकता और बढ़ गई।आज भी पन्ना, दतिया, समथर, कालिंजर, कन्नौज, कुंडा, अजय गढ़, ओरछा, गढ़ा नरेश के अलावा और भी बहुत से राजदरबारों, रियासतों में भी आल्हा गायन होने के प्रमाण मिलते हैं। यह प्रथा मौखिक रूप से ज्यादा विकसित हुई क्योंकि हर कवि एक दूसरे से सुनकर याद करके गाया करते थे, पर इसका आधार आल्हा रायसो था। सौ साल के अंतराल में ही यानी कि सन् 1320 तक यह गायन सारे भारत में गाया जाने लगा। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि युद्ध पर जाने के पहले सेना इसे सुनकर वीर रस मे डूब जाती थी और अपनी जन्मभूमि की आन बान और शान के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर हो जाती थी। इस प्रकार आल्हा-ऊदल सारे देश के वीरों के आदर्श बन गए थे। यह वीरों की वो गाथा है जो सदियों से चली आ रही है और आज 900 सौ सालों बाद भी उसी जोश खरोश और उत्साह के साथ गाया जाता है।
16वीं सदी में रानी दुर्गावती, जो महोबा राजवंश के राजा कीर्तिपाल चंदेल की बेटी थीं, उन्हें आल्हा सुनना बहुत पसंद था इसीलिए उन्होंने अपने कालिंजर के दरबार में बहुत से चारण-भाट आल्हा गायन के लिए रखे था। उन्होंने बहुत सी पुरानी पांडुलिपियों को सहेजकर बुंदेली बोली में लिपि बद्ध कराया था। उन पर इनकी वीरता का बहुत प्रभाव था, इसी कारण उन्होने दलपतशाह की बीरता से प्रभावित होकर उनका वरण किया था और उनसे प्रेम विवाह किया था; उसी का प्रभाव था कि उन्होने अपनी वीरता दिखाते हुए मुगलों से लोहा लिया था। मुगल दिल्ली के आस-पास तो आते जाते थे, पर कभी वह बुंदेलखंड में अपनी जड़ें नहीं जमा पाये। इसीलिए जब आल्हा ऊदल के बाद उनका आक्रमण बुंदेलखंड पर हुआ तो उन्होंने यहां के भवन, इमारत, मंदिर, मठ आदि तुड़वा दिये। दरबारों से कवियों से सारा इतिहास लूटकर सागर में बहा दिया था। उनका कहना था कि इसे पढ़कर भारतीय सैनिकों में अद्भुत जोश आ जाता ।
डॉ० सुधा चौहान के इस शोधपरक पुस्तक से पता चलता है कि आल्हा की प्रामाणिकता- आल्हा उदल का विस्तृत वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। आल्हा ऊदल की प्रमाणिकता इस बात से सिद्ध होती है कि पृथ्वीराज चौहान का इनसे अलग-अलग स्थानों पर पाँच बार युद्ध हुआ है। उस समय तीन महाशक्तियां भारत में राज्य कर रही थीं। दिल्ली में चैहान वंशी राजा पृथ्वीराज, कनवज में राठौर वंशी राजा जयचंद और महोबा में चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव जिनके धर्म भाई दच्छराज और बच्छराज के पुत्र आल्हा ऊदल और मलखान थे। पृथ्वीराज की पुत्री बेला का विवाह चंदेल राजकुमार ब्रह्मदेव के साथ हुआ था। जिसकी अगुवाई आल्हा और ऊदल ने की थी। सन 1191 में सबसे अंतिम युद्ध पृथ्वीराज का आल्हा ऊदल से महोबा के मैदान में हुआ था। उसके बाद अपनी सारी सेना को गंवा कर पृथ्वीराज ने युद्ध जीता था जिसका वर्णन चंदेलकालीन बुंदेलखंड के इतिहास में मिलता है। बेटी के गौने के बाद पृथ्वीराज ने गौरी से आखिरी युद्ध लड़ा था।
इसके लिए सबसे बड़ा प्रमाण पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंदबरदायी का लिखा पृथ्वीराज रासो है, जिसमें इनकी सभी लड़ाइयों का क्रमवार ब्योरा दिया रहेंगे ।
यूं तो सत्य को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती, वह तो अपने आप में स्वयं ही बड़ा प्रमाण होता है। सन 1130 से ले कर 1192 के कालखण्ड की घटनाओं को समेेटे ऐतहासिक संदर्भों, गजेटियर्स, प्रमाणों व शिलालेखों का संदर्भ देते हुये लेखिका ने पुस्तक के शीर्षक के साथ पूरा न्याय किया है। जो आल्हा कथानक के गायन के प्रति आज भी आमजन को जोड़ते है
इसीलिए तो आज 900सौ सालों बाद भी वह लोंगों के दिलो-दिमाग में हैं। यह तो हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि ऐसे वीरों का इतिहास सुरक्षित तरीके से संजोकर नहीं रखा गया और मुगलों द्वारा इसे विलुप्त कर दिया गया।
आल्हा गायन एक इतिहास है, वीरों की संस्कृति है, एक राग है, एक आग है, एक जोश है, जो रग-रग में वीरता का जोश जगा देता है। आल्हा उदल आज भी लोगों के दिलों में वास करते हैं। वो आज भी अमर हैं और सदियों तक अमर रहेंगे। भारत के इतिहास के जनप्रिय कथानक को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने हेतु डॉ० सुधा चौहान राज को बधाई ।
(बनारस, 28दिसंबर2019,शनिवार)
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सोमवार, 9 दिसंबर 2019
व्योमवार्ता/ वह संस्कारों वाली पीढ़ी जा रही है....... :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 9दिसंबर 2019,सोमवार
व्योमवार्ता/ वह संस्कारों वाली पीढ़ी जा रही है....... :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 9दिसंबर 2019,सोमवार
आने वाले दस से पन्द्रह साल के भीतर, एक पीढी संसार छोड़ कर जाने वाली है, इस पीढ़ी के लोग बिलकुल अलग ही हैं...
रात को जल्दी सोने वाले, सुबह जल्दी जागने वाले,भोर में घूमने निकलने वाले।
आंगन और पौधों को पानी देने वाले, देवपूजा के लिए फूल तोड़ने वाले, पूजा अर्चना करने वाले, प्रतिदिन मंदिर जाने वाले।
रास्ते में मिलने वालों से बात करने वाले, उनका सुख दु:ख पूछने वाले, दोनो हाथ जोड कर प्रणाम करने वाले, छोटों को आशीर्वाद देने वाले.. पूजा होये बगैर अन्नग्रहण न करने वाले लोग
उनका अजीब सा संसार......तीज त्यौहार, मेहमान शिष्टाचार, अन्न, धान्य, सब्जी, भाजी की चिंता तीर्थयात्रा, रीति रिवाज, सनातन धर्म के इर्द गिर्द उनकी छोटी सी दुनियां है।
पुराने फोन पे ही मोहित, फोन नंबर की डायरियां मेंटेन करने वाले, इतने सरल कि.. रॉन्ग नम्बर से भी बात कर लेते हैं , समाचार पत्र को दिन भर में दो-तीन बार पढ़ने वाले लोग... समय पर खाना खाने वाले लोग... घर के आगन में इनके जानवर आए या मनुष्य सब को अतिथि देवो भवः समझ आदर सत्कार करने वाले लोग.. जिनके दरवाजे से कोई भूखा नहीं लौटता....
हमेशा एकादशी याद रखने वाले, अमावस्या और पूरनमासी याद रखने वाले लोग, भगवान पर प्रचंड विश्वास रखनेवाले, समाज के अनुकूल चलने वाले , पुरानी चप्पल, बनियान, चश्मे को संभाल के रखनेवाले लोग
गर्मियों में अचार पापड़ बनाने वाले, घर का कुटा हुआ मसाला इस्तेमाल करने वाले और हमेशा देसी टमाटर, बैंगन, मेथी, साग भाजी ढूंढने वाले।
नज़र उतारने वाले, सब्जी वाले से 1-2 रूपये के लिए, झिक झिक करने वाले फ़िर उस पर दया कर 5 रुपये उसकी ईमानदारी पर देने वाले लोग
क्या आप जानते हैं...
ये सभी लोग धीरे धीरे, हमारा साथ छोड़ के जा रहे हैं। कई उम्र के इस पड़ाव में है जो खाट पकड़ चुके है कुछ को बीमारियों ने घेर लिया कुछ की ज़िन्दगी दवा और दुआ के बीच सीमित हो गयी..... लेकिन फिर भी इन्होंने अपने किसी दिनचर्या को नहीं बदला सुबह घूमने एक किलोमीटर जाते थे तो भले बिस्तर पकड़ लिया हो अब घर के 10 चक्कर काट लेते है, पूजा करने ना बैठ पाते तो लेटे लेटे भगवान् का भजन गा लेते है। खाना बना कर ना खिला सकते तो अपनी प्लेट से अपने नाती पोतों को निवाला खिला देते है।
क्या आपके घर में भी ऐसा कोई है? यदि हाँ, तो उनका बेहद ख्याल रखें। उनके अनुसार अपने को ढाले,
न जाने उनका हाथ हमारे सर से कब उठ जाए.. उनको मान सम्मान, स्नेह दे उनकी हर इच्छा को पूरी करने का प्रयत्न करे और हो सके तो उनकी तरह बने.. उनको कभी बदलने को ना कहे उन्हें अपनापन समय और आपका प्यार दीजिये ।। जितना हो सके उनके साथ अनमोल पल बिताए और उनसे सादगी भरा जीवन, प्रेरणा देने वाला जीवन, मिलावट और बनावट रहित जीवन, धर्म सम्मत मार्ग पर चलने वाला जीवन और सबकी फिक्र करने वाला आत्मीय जीवन जीना सीखे..... अन्यथा एक महत्वपूर्ण सीख, उन ही के साथ हमेशा के लिए चली जायेगी....
(बनारस, 9दिसंबर2019, सोमवार)
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शनिवार, 30 नवंबर 2019
व्योमवार्ता/ टाटी के नेनुआ से गमले के क्रोटन तक : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 30 नवंबर 2019 शनिवार
व्योमवार्ता/ टाटी के नेनुआ से गमले के क्रोटन तक : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 30 नवंबर 2019 शनिवार
कभी नेनुआ टाटी पे चढ़ के रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था, कभी खपरैल की छत पे चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी.. कभी बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कँहड़ोड़ी सावन भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी.. वो दिन थे जब सब्जी पे खर्चा पता तक नहीं चलता था.. देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे लेकिन खिचड़ी आते आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी.. तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था, सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं.. लोहे की कढ़ाई में किसी के घर रसेदार सब्जी चूरे, तो गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी.. संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था.. रातें बड़ी होती थीं.. दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो.. किसान लोगो में लोन का फैशन नहीं था.. फिर बच्चे बड़े होने लगे.. बच्चियाँ भी बड़ी होने लगी.. बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही अंग्रेजी सेंट लगाने लगे.. बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे.. किसान क्रेडिट कार्ड सरकारी दामादों की डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया.. इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी.. बीच में मूछमुंडे इंजीनियरों का दौर आया.. अब दीवाने किसान अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे.. बेटी गाँव से रुखसत हुई.. पापा का कान पेरने वाला रेडियो साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था.. अब आँगन में नेनुआ का बिया छीटकर मड़ई पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी.. और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं..
(बनारस, 30नवम्बर 2013,शनिवार)
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मंगलवार, 6 अगस्त 2019
व्योमवार्ता/ जुलाई 2019 मे पढ़ी गई किताबें : व्योमेश चित्रवंश की डायरी , 31 जुलाई 2019
गुरुवार, 25 जुलाई 2019
व्योमवार्ता/ ब्रह्माण्ड के प्रमेय पर आधारित काशी की आध्यात्मिक वैज्ञानिक संरचना
व्योमवार्ता/ ब्रह्माण्ड के प्रमेय पर आधारित काशी की आध्यात्मिक वैज्ञानिक संरचना
भौमानामपि तीर्थनां पुणयत्वे कारणं ॠणु।
यथा शरीरस्योधेशा: केचित् पुण्यतमा: समृता:।
तथा पृथिव्यामुधेशा: केचित् पुण्यतमा: समृता:।।
प्रभावाध्दभुताहभूमे सलिलस्य च तेजसा।
परिग्रहान्युनीमां च तीर्थानां पुण्यता स्मृता।।
(महाभारत, कृ.क.त., पृ. ७-८)
वाराणसी जिसे बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है, की संस्कृति का गंगा नदी और इसके धार्मिक महत्व से एक अटूट और अहम रिश्ता है। वाराणसी से कई प्राचीन से प्राचीन कहानियां जुड़ी हुई हैं। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन ने तो वाराणसी के लिए यह भी लिखा है कि, "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।"
वाराणसी मात्र एक नगर नही वरन एक यंत्र है, यह एक असाधारण आध्यात्मिक यंत्र है। ऐसा यंत्र इससे पहले या फिर इसके बाद कभी नहीं बना।
इसे केवल एक नगर समझने का भूल नही करना चाहिये। आध्यात्मिक संरचना के दृष्टिकोण से देसा जाय तो मानव शरीर में जैसे नाभी का स्थान है, वैसे ही पृथ्वी पर वाराणसी का स्थान है। शरीर के प्रत्येक अंग का संबंध नाभी से जुड़ा है और पृथ्वी के समस्त स्थान का संबंध भी वाराणसी से जुड़ा है।
इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया, जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो और जो हमेशा सक्रिय रह सके... और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले।
काशी की रचना सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है।
आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।
इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है। यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है।
सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सूर्य के व्यास से 108 गुनी है। आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।
अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे।
हम उन चक्रों पर काम नहीं करते।
शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां है।
पूरे काशी यनी बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पांच तत्वों से बना है, और आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से, उनका विशेष अंक पांच है। इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोश है। इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाईं। यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामिति बनावट दिखाता है। गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्यां दिखा रहे हैं।
सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।
यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है। असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।
वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया था
यहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया। एक इंसान के शरीर में नाडिय़ों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये - जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं।यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं - इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।तो यह नाडिय़ों की संख्या के बराबर है।
यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी। इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था। इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो। काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है।
कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है।रोशनी का एक दुर्ग बनाने के लिए, और ब्रह्मांड की संरचना से संपर्क के लिए, यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई।
ब्रह्मांड और इस काशी रुपी सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोडऩे के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई। मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं, और 54 शक्ति या देवी के हैं। अगर मानव शरीर को भी हम देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा। दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का।
यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है - आधा हिस्सा नारी का और आधा पुरुष का। यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं - इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए। आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है।
सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं। इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना।
अगर आप अपने मूल तत्वों पर कुछ अधिकार हासिल कर लें, तो अचानक से आपके साथ अद्भुत चीजें घटित होने लगेंगी।
मैं आपको हजारों ऐसे लोग दिखा सकता हूं, जिन्होंने बस कुछ साधारण भूतशुद्धि प्रक्रियाएं करते हुए अपनी बीमारियों से मुक्ति पाई है। इसलिए इसके आधार पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया। इस तरह भूत शुद्धि के आधार पर इस शहर की रचना हुई।यहां एक के बाद एक 468 मंदिरों में सप्तऋषि पूजा हुआ करती थी और इससे इतनी जबर्दस्त ऊर्जा पैदा होती थी, कि हर कोई इस जगह आने की इच्छा रखता था। भारत में जन्मे हर व्यक्ति का एक ही सपना होता था - काशी जाने का।
यह जगह सिर्फ आध्यात्मिकता का ही नहीं, बल्कि संगीत, कला और शिल्प के अलावा व्यापार और शिक्षा का केंद्र भी बना। इस देश के महानतम ज्ञानी काशी के हैं। शहर ने देश को कई प्रखर बुद्धि और ज्ञान के धनी लोग दिए हैं।अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, 'पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।’ यह गणित बनारस से ही आया।
इस गणित का आधार यहां है।
जिस तरीके से इस शहर रूपी यंत्र का निर्माण किया गया, वह बहुत सटीक था। ज्यामितीय बनावट और गणित की दृष्टि से यह अपने आप में इतना संपूर्ण है, कि हर व्यक्ति इस शहर में आना चाहता था। क्योंकि यह शहर अपने अन्दर अद्भुत ऊर्जा पैदा करता था।
यह हमारी बदकिस्मती है कि हम उस समय नहीं थे जब काशी का गौरव काल था। हजारों सालों से दुनिया भर से लोग यहां आते रहे हैं। गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था।गौतम के बाद आने वाले चीनी यात्री ने कहा, ‘नालंदा विश्वविद्यालय काशी से निकलने वाली ज्ञान की एक छोटी सी बूंद है।’ और नालंदा विश्वविद्यालय को अब भी शिक्षा का सबसे महान स्थान माना जाता है।
आज भी यह कहा जाता है कि ‘काशी धरती की जमीन पर नहीं है। वह शिव के त्रिशूल के ऊपर है।’ लोगों ने एक भौतिक संरचना बनाई, जिसने एक ऊर्जा संरचना को उत्पन्न किया। जो भी हो पर आज के इस भौतिकवादी युग मे आध्यात्मिक काशी की वैज्ञानिक संरचना स्पष्टत: दिखती है।
(बनारस,२४जुलाई २०१९, बुधवार)
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