शरिफा: संस्था जिसे हम परिवार कहते है....
(डॉ०शंभुनाथसिंह शोध संस्थापन - वाराणसी)
कल डॉ०शंभुनाथ सिंह शोध संस्थापन की रजत जयन्ती थी। कैण्ट रेलवे स्टेशन के सामने प्रताप पैलेस होटल मे सपरिवार जाना हुआ। राजीव भैय्या का निमंत्रण व रोली भाभी का स्नेह व अधिकार सहित आदेश टाला भी नही जा सकता। कचहरी व घर की व्यस्तता से निपट कर जब हम आयोजन मे पहुँचे तो कार्यक्रम चल रहा था। संस्था का बोर्ड मेम्बर होने के बावजूद बिलंब से पहुँचने पर थोड़ी झेंप व ग्लानि के साथ पीछे बैठा ही था कि आयोजन मे शामिल सभी चेहरों पर अभिवादन के साथ ऑखो मे देर से आने पर ढेरों सवाल दिखने लगे।अभी सफाई दे पाता कि ऱाजीव भैय्या की नजर मंच पर से मुझ पर पड़ गई साथ ही आदेश का परवाना भी कि कार्यक्रम मे समापन व धन्यवाद ग्यापन तुम्हे करना है। मै पीछे बैठा हुआ वरिष्ठ कवि व अपर आयुक्त डॉ० ओम प्रकाश चौबे " ओम धीरज " जी का प्रभावपूर्ण संबोधन चल रहा है। बेहद सुलझे हुये वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, सहज व सरल स्वभाव के डॉ० ओम धीरज जब साहित्यिक व सांस्कृतिक आयोजनों मे होते है तो उनमे कहीं से भी प्रशासनिक रूतबा व प्रभाव नही दिखता तब वे बेहद सरल भाषा वाले सहज ओम जी होते है ।भतृहरि के कठिनतम श्लोको को सरलतम व हम जैसों के समझ मे आने वाला हिन्दी छन्दमयअनुवाद ओम जी का हमारी पीढ़ी व आने वाली पीढ़ी के लिये अपने संस्कारो से जोड़ने वाली अनुपम भेंट है जिसे समय के परे भी याद रखा जायेगा।
बहरहाल पीछे की पंक्तियो मे बैठा हुआ मै ओम जी के संबोधन के साथ समय के पीछे जा रहा था। आज से लगभग 27-28 वर्षों पूर्व हिन्दी नवगीत के शलाका पुरूष श्रद्धेय डॉ०शंभुनाथ सिंह जी केआशीर्वाद से राजीव भैया द्वारा संस्था स्थापित की गई थी। तब संस्था एक गोष्ठी के अतिरिक्त कुछ विशेष नही थी। राजीव भैया भी तब इधर के बजाय दर्पण मे ज्यादा व्यस्त रहा करते थे। हॉलाकि वे यू पी कालेज मे मेरे सीनियर थे पर हमारा जुड़ाव दर्पण से ही ज्यादा प्रगाढ़ हुआ था। एमएसडब्ल्यू करने के बाद वे बनारस से बाहर नौकरी करने चले गये पर बनारसी मन तो " ज्यों जहाज के पंछी फिर जहाज पर आवै" जैसा होता है, जो हम लेौगो के अंदर के बनारसी को कहीं टिकने नही देता तो वे फिर बाबूजी (डॉ०शंभुनाथ सिंह) के अनुमति से नौकरी छोड़ बनारस आ गये और दैनिक जागरण मे काम करने लगे। बाबूजी का व्यक्तित्व बेहद गौरवपूर्ण था। एक कड़क अध्यापक वाला रोबीला चेहरा, गौर वर्ण पर उन्नत चमकता ललाट व बोलती ऑखे, पहले हम लोग उनसे सहमे सहमे रहते। पर जैसे जैसे उनके करीब आये तो कड़े नारियल खोल के अंदर मीठी मुलायम गरी वाले व्यक्तित्व का बोध हुआ। बेहद नम्र, और छोटी छोटी बातो हम लोगो के पानी चाय पहनावे व तबियत का भी ध्यान रखने वाले बाबूजी। अम्मा भी स्वभावत: उन्ही की प्रतिरूप थी, अम्मा की बातें फिर कभी। इसी बीच राजीव भैया व रोली भाभी की शादी हो गई। मजेदार तथ्य यह रहा कि जहॉ राजीव भैय्या यूपीकालेज मे हमारे सीनियर थे वहीं रोली भाभी बीएचयू मे हमारी बैचमेट, ये अलग बात है कि उनके हिन्दी मे होने के कारण उनसे हमारा कोई प्रत्यक्ष परिचय नही था। रोली भाभी ने आने के पश्चाच संस्था को नये सिरे से सवॉरा। 1991 मे बाबूजी के देहान्त के पश्चात हम लोगो ने संस्था को उनके स्मृति के रूप मे एक कलेवर देने का प्रयास किया। संस्था का नामकरण " डॉ० शंभुनाथ सिंह शोध संस्थापन" भी उन्ही के नाम व स्मृति मे किया गया। हम लोगो ने संस्थापन के मूल में शिक्षा, साहित्य व संस्कृति को उद्देश्य के रूप मे रखा। इसके पीछे एक कारण यह भी था कि प्राय: बाबूजी को हिन्दी साहित्य के नवगीत के प्रवर्तक के रूप मे ही प्रतिष्ठित किया जाता है जबकि वे एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार, पुरातत्वविद व संस्कृति के अध्येता थे। मानव आचरण, तुलसी साहित्य , वर्तमान संदर्भ मे मानस की प्रांसगिकता, प्राचीन मूर्तियों, अवशेषों व पुरावशेषों का संकलन के क्षेत्र मे किये गये कार्य नवगीत के आवरण मे कहीं छिप गये हैं। रोली भाभी व राजीव भैया अकेले अपने दम पर संस्थापन की उपस्थिति बनारस से लेकर पूर्वॉचल, प्रदेश व देश तक दर्ज कराते रहे। इन लोगो के नेतृत्व मे हुऑ हुऑ करने वालों की तरह हम लोग भी कभी कभार लग जाते थे। पर असली मेहनत इन्ही दो लोगों की तब भी थीऔर आज भी है। राजीव भैया को देख कर सही अर्थों मे कहा जा सकता है कि 'हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल तलक, लोग मिलते ही गये और कारवॉ बनता गया।' हम लोगो मे कभी कोई संस्थागत क्रमबद्धता (orgnizatiinal hierarchy) नही होने से संस्थापन मे कभी साहबियत (बासिज्म) जैसी परंपरा नही पनप सकी। हम लोग राजीव व रोली को भैया व भाभी कहते थे तो बाद मे संस्थापन से जुड़ने वाले कर्मचारी, व कार्यकर्ता, स्वैच्छिक कार्यकर्ता भी हमी लोगो के परंपरा का पालन करते हुये भैया भाभी ही संबोधन करने लगे इसका सकारात्मक परिणाम यह रहा कि हमारी संस्था महज एक संगठन न होकर एक परिवार के रूप मे पुष्पित पल्लवित हुई। बाद के बरसों मे सुधीर, महेन्द्र, अखिलेश, सरोज, बंशीधर, कुसुम, मधुरिमा, प्रीति, दीप्ति, शांति, शशि, अन्नपूर्णा, नीलम,राजेश, चंद्रबली, सुनील, ममता, राकेश, सत्यदेव,विनय, प्रमोद जैसे कर्मठी कार्यकर्ताओं की एक लंबी परंपरा आज भी कायम है। आज भी हमसे जुड़े कार्यकर्ता कहीं भी हो पर शरिफा परिवार का नाम आते ही जो प्यार, स्नेह व चमक उनकी ऑखो मे आती है वही हमारे परिवार के प्रतिबद्धता व आदर को बताती है। शरिफा परिवार , हॉ यह शब्द ज्यादा चर्चित हुआ ऩागर संगठनों में। डॉ०शंभुनाथसिंह शोध संस्थापन सफलता की राहों पर चलते हुये कब 'शंभुनाथसिंह रिसर्च फाउण्डेशन' और फिर उसका संक्षिप्त रूप 'शरिफा' हो कर हमारा 'शरिफा परिवार' हो गया इसका समयबद्ध विश्लेषण करना मुश्किल है।
साथ ही साथ राजीव भैय्या के साथ के ढेर सारे मित्रगण जैसेअरविन्द भटनागर, राजीव, गोपाल, रमाशंकर, मुन्ना पाणे, अजीत, रंजना , राहुल, रोहित वगैरह समाजकार्य व समाजसेवा से जाने अनजाने होते हुये भी शरिफा के प्रगति के हर चरण पर अपने विश्वास व सहयोग के साथ हमारे संग खड़े रहे उनके भी योगदान को भुलाया नही जा सकता। साथ ही साथ राजीव भैय्या के परिजन व रिश्तेदार जो उनके अनवरत चलने वाले सामाजकार्य यग्य मे अपने सहयोग की समिधा दी व देते जा रहे है वे भी शरिफा के विकास यात्रा के संबल रहे हैं।
एकाएक मेरी तंद्रा झटके से टूटती है, मंच से मेरा नाम बुलाया जा रहा है। मंच पर उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकार पूर्व आईएएस अधिकारी डॉ०राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, अपर आयुक्त सहदेव आईएएस, पूर्व न्यायाधीश चंद्रभान सुकुमार, डॉ० राम सुधार सिंह के संबोधन हो चुके है। मै अपनों को ही धन्यवाद ग्यापन करने की औपचारिकता कर रहा हूँ। मेरे सामने बैठे हुये हर चेहरे मे मुझे शरिफा परिवार के प्रति सहयोग व स्नेह नजर आ रहा है। सभी चेहरे अपने लग रहे है विजयश्री दीदी, संतोष सर, रेखा श्रीवास्तव,अध्यक्षा सीडब्लूसी, राजेश श्रीवास्तव, दीपक पुजारी, डा०लेनिन,श्रुति, मिन्तू, कामनादी, अरविन्द जीजा, आज पहरूआ सम्मान से गौरवान्वित सलीम राजा जी और वे ढेरो चेहरे जिनका नाम लिखने मे ही सारा समय बीत जायेगा , धूप छॉव के मुक्ताकाशी बच्चे। सब की ऑखो मे शरिफा परिवार के साथ स्वयं के लिये सम्मान पा कर गर्व नहसूस कर रहा हूँ।
पिछले पचीस वर्ष के शरिफा के विकास संकल्प यात्रा के एक एक पड़ाव ऑखों के सामने से गुजर रहे है ।इस यात्रा के हिस्सो को मैने भी जीया है कभी यात्री बन, कभी मार्गदर्शक बन , कभी मात्र दर्शक बन कर। शरिफा के विकास यात्रा के साथ साथ बाबूजी डॉ० शंभुनाथ सिंह जी याद आ रहे हैं पुराने वाले बैठक मे कुर्सी की पुस्त पर अपनी छड़ी टिकाये गुनगुनाते हुये
मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।
तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
जंगलों में या पहाड़ों में,
मंदिरों में, खंडहरों में,
सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,
मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।
शाल-वन की छाँव में
चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
पास मृगछौने बुलाता हूँ,
पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।
डॉ० शंभुनाथ सिंह शोध संस्थारन के कार्यकारिणी मण्डल, निदेशक मणडल, कार्यकर्तागण, स्वैच्छिक कार्यकर्तागण, मित्रों परिजनों, शुभेच्छुओं सहित शरिफा परिवार के समस्त सदस्यों को ऱजत जयंती वर्ष की ढेरों शुभकामनायें।
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