सुना है लोग उसे ऑख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त हैं उसको खराब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं
अस्सी घाट। दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हुये पहला घाट। वरूणा और अस्सी नदियों के संगम का घाट। संतों का घाट। चंटों का घाट। कवियों का घाट। छवियों का घाट। गँजेड़ियों का घाट। भँगेड़ियों का घाट। मेरा घाट। दादा का घाट। हमारा घाट।
मंडुआडीह-नईदिल्ली स्पेशल गाजियाबाद स्टेशन से गुजर रही है और मै अभी तक बनारस टॉकीज के हँसते, गुदगुदाते, मुस्कराते, खिलखिलाते, किलकते कथानक मे डूब उतरा रहा हूँ। कल रात मंडुआडीह रेलव् स्टेशन पर बुक स्टाल पर बनारस टॉकीज नाम देख सत्य व्यास का यह बेस्ट सेलर उपन्यास खरीद लिया। ट्रेन में बैठते ही जब पहला पन्ना पढ़ना शुरू किया तो यह मुझे बिलकुल अपनी कहानी लगी। उपन्यास के कहानी के साथ साथ खुद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे बीताये गये अपने पुराने दिन याद आते गये। पूरा उपन्यास चलती ट्रेन, मन मे चलती यादों के साथ कब तक आखिरी पेज पर चलते हुये पहुँच गया पता ही नही चला।
“अच्छा, तो कहानी में interest आ रहा है? पूरी कहानी सुननी है? तो बैठिये; थोड़ा टाइम लगेगा। पेप्सी और चिप्स मँगवा लीजिये।”
अब आपसे क्या छुपाना बाऊ साहब। जब कहानी सुनानी ही है तो कहानी शुरू करने से पहले बता दूँ कि इस कहानी का सूत्रधार मैं हूँ- मैं यानी सूरज। अरे वही! Girl’s hostel and all that. किसी से कहियेगा मत! कसम से, अपना समझ के बता रहे हैं आपको।
तारीख़ी तौर पर बंधी इस कहानी का दौर इक्कीसवीं सदी का पहला दशक है। कहानी उन दिनों शुरू होती है जब तेरह टांगों वाली सरकार जा चुकी थी। सुनामी के लहरों से कहर दिखा दिया था और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई बम विस्फोटों के बीच जीना सीख रही थी।
लेकिन यह कहानी तो देश के सांस्कृतिक राजधानी की है- बनारस। और बनारस की भी क्या है साहब! यह तो भगवानदास होस्टल की कहानी है; जो बनारस के हृदय बी एच यू का छत्तीसवाँ होस्टल है। वकीलों का होस्टल।
हाँ! तो भगवानदास होस्टल जाने के लिये आपको बनारस चलना होगा। अरे, वहीं है ना- सर्व विद्या की राजधानी। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी; जिसे आप बी.एच.यू. भी कहते हैं। आइये चलें :
बनारस हिंदु यूनिवर्सिटी के एक हॉस्टल भगवानदास में रहने वाले तीन दोस्तों सूरज उर्फ बाबा, अनुराग डे उर्फ दादा और जयबर्धन शर्मा के हॉस्टल में बिताए उन खास दिनों की यह कहानी कमोबेस बीएचयू के हर बंदे की कहानी है। थोड़ी मिलती जुलती, थोड़ी ट्विस्ट ले कर बदलती हुई, जिसे सत्य व्यास ने बेहद खूबसूरती से अपने कलम से पिरो कर बनारस टॉकीज तैयार किया है। सत्य व्यास से हमारी कोई सीधी मुलाकात नही है न ही कभी आमना सामना ही हुआ। समय के सतरों मे देखा जाय तो वे हमसे काफी जूनियर होगें। संभवत: हम लोगो के बीएचयू से निकलने के दो तीन सालों बाद उन्होने प्रवेश ही किया होगा पर उनके बताये व चर्चा किये गये एक एक जगह लंका, माडर्न पेन कंपनी, पिज्जेरिया, अस्सीघाट, प्रताप होटल, बनारस बर्गर सेंटर, गोपाल मैंगो शेक , केशव पान , एट्टीज, टडन जी गार्जियन की टी शाप, अस्सी पर चचियवा की कचौड़ी सब्जी, पहलवान दूध, गुपुतनाथ की चाय, वीटी के समोसे व कोल्डकाफी, एग्रो कैफे, मैत्री जलपान, मधुबन जैसे स्थान बीएचयू के छात्र जीवन मे ऐसे रच बस जाते है मानो वे स्थान न होकर जिन्दगी के हिस्से है। इन्ही जगहों का ताना बाना लेकर और बनारस मे हुये आतंकी विस्फोट के मसाले का छौंका देकर सत्य व्यास ने बनारस टॉकीज को बनाया है जो एक सीटिंग मे पढ़ी जाने वाली मस्तमौला अल्हड़ कहानी है, बनारस के काशिका बोली का विशेष अंदाज मे इस्तेमाल, हास्टल लाईफ की बेबाक रूमानियत व महामना के बगिया मे पढ़ने का अभिमान उन पाठकों को ज्यादा आनंद देगा जिन्होने इस जीवन को, बनारस को जीया है, साथ ही उन्हे भी भरपूर मजा देगा जो एक निर्दोष सरल व सरस कहानी पढ़ना चाहते हैं।
अच्छा दादा, एक बात बताओ तुम कभी किसी लड़की को प्रपोज किए हो?” मैने दादा के हाथ से चाय लेते हुए कहा।
“B.Com में एगो को बोले थे, I Love You” दादा ने कहा।
“फिर?”, मैने पूछा।
“फिर लड़की बोली OK। साला! हमको आज तक समझ नहीं आया कि I Love You का जवाब OK कैसे हुआ। यस नो, कुत्ता, कमीना, जानू, पागल कुछ भी बोलती; आइने में शक्ल या पांव का चप्पल दिखाती; लेकिन OK का क्या मतलब?” दादा ने चाय पीते हुए कहा।
“अबे हंसाओ मत, मर जाएंगे।“ चाय मेरे नाक तक चली गई थी।
“हां। हंस लो साले। अभी तुम्हारा फंसा है ना। अब हम हंसेंगे। पूरा भगवानदास हंसेगा।“ दादा ने चास का कुल्हड़ फेंकते हुए कहा।“
यह किस्सा बीएचयू के भगवानदास हॉस्टल लाइफ में दिन रात चलने वाले इश्क, रोमांच और जीवन बदलने वाले अनुभव की एक बानगी भर है। बनारस टॉकीज आपको ऐसे-ऐसे मोड़़ों से लेकर गुजरेगी जहां पर आप कभी खुद को खुल कर हंसने से रोक नहीं पाएंगे तो कहीं पर बाबा और दादा के तनाव का हिस्सा बनते नजर आएंगे। कहीं सुना था कि किताबें भी ट्रेन की तरह होती हैं जो आपको आपकी मंजिल के बींच आने वाले हर मोड़ से रुबरू कराते हुए आगे बढ़ती हैं। बनारस टॉकीज भी एक जीवंत ट्रेन की तरह है जो आपको हंसाती है रुलाती है और कभी-कभी आंखे नम भी कर देती है। तो पढ़ें क्योंकि पढ़ना जरूरी है....
http://chitravansh.blogspot.com
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