दिल से न निकलेगी मर कर भी वतन की उल्फत
मेरी मिट्टी से भी खूशबू ए वतन आयेगी ।
आजकल राजशेखर व्यास की लिखी किताब भगतसिंह: कुछ अधखुले पन्ने पढ़ रहा हूँ। बेहद बेबाकी और ईमानदारी से भगतसिंह पर लिखी गई इस शोधपरक किताब ने सही अर्थों मे यह साबित किया है कि जीवनीकारों औऱ इतिहासकारों ने सही मायने मे भगत सिंह के साथ न्याय नही किया। भगतसिंह की सच्ची और संपूर्ण कहानी लिखने वाला कभी न कभी कोई होगा भी? कभी कभी लगता है कि अगर भगतसिंह कुछ और समय जीवित रह गये होते तो अपनी आत्मकथा स्वयं कहते। भगतसिंह जैसी शख्सियत बार बार नही होती। ऐसे लोग सदियों युगों मे एकाध बार होते है, सच है कि भगतसिंह ने स्वयं मृत्यु का वरण किया ताकि हम सब सुख से जी सके। पर यह हमारा दुर्भाग्य भी है कि हम भगतसिंह के बारे मे ज्यादा नही जानते बल्कि उतना ही जानते है जितना जनाया गया है। यह भगतसिंह ही नही बल्कि हमारे इतिहास के साथ, हमारे सम़य काल के साथ एक छल है जिसे साजिशन रचा गया और हमे जानबूझ कर अपने इस युगदृष्टा महान भारतीय , जांबाज क्रान्तिकारी के इतिहासबोध से परे रखा गया।
अपने समय के सभी क्रांतिकारियों मे भगतसिंह निसंदेह सर्वश्रेष्ठ चिंतक,विचारक व दृष्टा थे। वे सिर्फ आदर्शवादी भावुक व्यक्ति ही नही वरन यथार्थवादी विचारक थे और इसीलिये उन्होने आजादी के बाद के भारत की परिकल्पना आजादी मिलने के लगभग डेढ़ दशक पहले ही कर ली थी जबकि उनके समकालिको के पास ऐसी कोई दृष्टि या सोच नही थी। यही वजह है कि भगतसिंह आज भी सामयिक व प्रासंगिक है। आज भगतसिंह को महज कामरेड या सरदार के रूप मे देखने व मानने वालो को निकट दृष्टिदोष से पीड़ित ही कहा जायेगा कि उन्हे भगतसिंह एक समग्र भारतीय के रूप मे नजर नही आते।
२६ सितंबर १९०७ को बंगा गॉव के चक नं० १०५, जरानेवाला तहसील जिला लायलपुर ( वर्तमान मे पाकिस्तान) मे जन्म लेने वाले भगतसिंह कुल २३ साल ५ महीने २६ दिन की उम्र पूरी कर २३ मार्च १९३१ को लाहौर सेण्ट्रल जेल मे अंग्रेजो द्वारा फॉसी की नियमविरूद्ध सजा को पूरा करने के लिये राजगुरू व सुखदेव के साथ फॉसी पर झूल गये। अंग्रेजी शासन से तो न्याय की आशा नही की जा सकती थी पर हम भारतीयों व हमारे देश के नेताओं ने क्या भगतसिंह के साथ न्याय किया? यह राजशेखर जी ने बहुत ही संतुलित ढंग से लिखा है। जब भगतसिंह फॉसी के पहले जेल मे थे तो नेताजी, मोतीलाल नेहरू, रफी अहमद किदवई, जवाहर लाल नेहरू उनसे मिलने गये पर गॉधी जी नही गये, यह सवाल मुझे पूरे समय कचोटता रहता है कि क्या एक ही उद्देश्य को पाने के लिये दो विचारधाराओं के बीच इतना अंतर स्वाभाविक हो सकता है अथवा यह गॉधी जी के छद्म महात्मावाद की एक पराकाष्ठा है। ऐसा ही सवाल गॉधी इरविन समझौते वार्ता के दौरान इरविन से अति मधुर संबंध मे बँध चुके गॉधी जी के स्वभाव व जिद पर पुन: उठता है कि जब पूरा देश यह चाहता था कि गॉधी जी भगतसिंह के सजामाफी हेतु इरविन से कहे वहॉ गॉधी द्वारा माफी की बात करने के बजाय केवल फॉसी के तारीख पर वह भी समझौते के लिहाज से हामी भरना मेरे मन मे उनकी महानता के प्रति सवाल उठाते हैं। जबकि इसके पहले गॉधी खुद ही अपील कर स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे की सजा माफ करा चुके थे, तो क्या गॉधी जी की सारी करूणा व सारी प्रेम व सहिष्णुता कुछ विशेष लोगो के लिये ही थी? क्या यह तुष्टिकरण व अंध महात्मावाद की स्वार्थपरक दबाव वाले राजनीति की शुरूआत नही थी ? ये सवाल किताब पढ़ने के दौरान भी व बाद मे भी मुझे उलझाते रहते है। हो सकता है कि मै गलत होऊँ पर मेरे सवाल अपने जगह वाजिब है जिनका जबाब तमाम महानताओं के रेत के बनते बिगड़ते टीलो के समान बदस्तूर कायम है।
हालॉकि मुझे नही लगता कि किसी तरह की सजामाफी को भगतसिंह स्वीकार करते क्योंकि भगतसिह के उनके पिता जी द्वारा फॉसी से बचाने के लिये दिये गये हलफनामे की जिस तरह से भर्त्सना उन्होने की थी व उनके लिखे लेखो मे देश व अपने मिशन के प्रति कटिबद्धता से यह स्पष्ट जाहिर होता है कि भगतसिंह अंग्रेजो के किसी भी एहसान को स्वीकार करने को शायद ही तैयार होते।
कुछ इसी तरह की साजिश भगतसिंह के लेखन सामग्री के साथ भी हुई। मात्र २३ वर्ष की अल्पायु मे हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, पंजाबी, बंगला और आयरिस भाषा के मर्मग्य चिंतक व विचारक भगतसिंह ने फॉसी की कोठरी मे बैठे बैठे भीअनेक पत्र, लेख,दस्तावेज व पर्चे लिखे साथ ही साथ कई पुस्तक व पुस्तिकाये लिखी व कई विदेशी भाषा की पुस्तको का अनुवाद भी किया। बताते है जब उन्हे फॉसी पर चढ़ना था तो कालकोठरी से निकलने तक वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। उनकी जेल मे लिखी पुस्तकों मे Idea of socialism, the door to death, autobiography, the revolutionary movement of india with short biographic sketch of the revolutionaries आदि थी। पर वे पुस्तके आम भारतीयो के हाथों तक पहुँचने के बजाय तितिर बितिर हो गई, बल्कि जानबूझ कर तितिर बितिर कर दी गई। दुर्भागयत: इसमे भी हमारे कुछ बड़े नेताओ व भगतसिंह के कुछेक बेहद करीबी माने जाने वालो का हाथ रहा। यह भगतसिंह के आम भारतीय के प्रति स्वीकार्यता व लोकप्रियता है जिसे प्रखर न होने देने के लिये चंद लोग हमेशा शंकालु रहे कि कही जन जन मे बसे इस देदिप्तमान सूर्य भगतसिंह के आगे उनकी छवि ऩ धूमिल हो जाये।
फिर भी आज आजादी के लगभग ८ दशको के बाद भी भगतसिंह उतने ही प्रासंगिक व सामयिक लगते है तो उसके पीछे वजह उनके विचारो की ताजगी ही है, वर्तमान मे देश मे जो अफरातफरी दिख रही है उसके बीच भगतसिंह याद आये बिना रह भी नही सकते। ये दूसरी बात है कि इतिहास ने उनके साथ न्याय नही किया क्योंकि इतिहास के नियन्ताओ ने समय के शिला पर उसे स्पष्ट सच लिखने की अनुमति ही नही दिया। आज जब पाकिस्तान पर सेना द्वारा किये गये सर्जिकल आपरेशन के बाद हमारे अपने नेताओं द्वारा आरोप प्रत्यारोप सबूत सेहरा को लेकर बेमतलब की बहस जारी है तो ऐसे मे भगत सिंह और भी महत्वपूर्ण हो जाते है तभी तो भगतसिंह ने कहा था
जिन्हे मर जाना चाहिये,
वे धरती पर बोझ बने हुये है
जिन्हे जिंदा रहना चाहिये
वो हर पल शहीद हो रहे हैं।
अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016
भगतसिंह : कुछ अधखुले पन्ने > व्योमेश चित्रवंश की डायरी 17अक्टूबर2016
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