गंगा यमुना के संगम पर
जहां सरस्वती भी है ज्ञान, भक्ति, श्रद्धा के
अदृश्य अंतर में,
आपस में संगम कर मिलते हुये
उस प्रयागराज में
हां मैंने कुंभ देखा है
रवि को मकर राशि में
माघ के ठण्ड में प्रवेश करते हुये
सभी ऋषि महर्षि मनीषी के संग
आमजन को कल्प वास करते हुये
आस्था के ज्वार भाटा को
उल्टे नदी तट पर विचरते हुये
हां मैंने कुंभ देखा है
समस्त आनंद मंगल मूल वाली
दु:ख हरणी सुखदायिनी गंगा को
अकालमृत्यु और यमदंड को त्रासती
समस्त प्रदूषण के गरल पीती
यमुना को
अपनी गरिमा को गंभीरता देती
अदृश्य सरस्वती को
त्रिवेणी तट पर,
हां मैने कुंभ देखा है
काशी से प्रयागराज के पथ पर
चलते जन सैलाब के श्रद्धा में
अयोध्या-चित्रकूट के मध्य
प्रयाग राज के रज को माथे पर चढ़ाते
अंदावा से फाफामऊ तक
नैनी से अरैल नागवासुकी तक
रसूलाबाद से किला के द्वार तक
इहलोक में एक दुबकी लगा
परलोक के शुभ की इच्छा लिये
श्रद्धा से नत
जन जन के विश्वास में
हां मैंने कुम्भ देखा है
महामंडलेश्वरो के आखाड़े में
जगद्गुरूओं के धर्मपताकाओं में
घाटों पर खुले आसमां के नीचे
ठंड शीत को जीतते श्रद्वालुओं में
खोया पाया केन्द्रों मे
और कुंभ के माटी मे रमे लोगों मे
हां मैंने कुम्भ देखा है
कुंभ स्नान की अनुभूति को
श्रद्धा की अपार चाह में
स्नान के पूर्व पश्चात
थकते पैरों के बावजूद
पुण्य कमाने की खुशी मे
बीस-तीस किलोमीटर के न थकने वाले
नंगे पाँवों से यात्रा में
हां मैंने कुंभ देखा है
हे मन तुम फिर आना
अगले अर्द्धकुंभ, कुंभ
और महाकुंभ में
इस श्रद्धा के महातट पर
अंतर की शांति को खोजने
प्रयागराज आकर
प्रकृति मां गंगा यमुना को यह बताने
कि आज भी प्रकृति हमारी आस्था है
उस आस्था का दर्शन कर
हम अपने अंतर के सरस्वती को
पा सकते हैं
जो ईश्वर रूपी परमात्मा का स्वरूप है।
(२फरवरी२०२५ वसंत पंचमी)
http://chitravansh.blogspot.com
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