एक गलती जो श्राप बन गई....
#इजरायल और #फिलिस्तीन के बीच जंग क्यों हो रही है इसके पीछे इतिहास की एक गलती है जो श्राप बन गई और 2 हजार सालों से यहूदियों के कत्लेआम की वजह बनी रही. अगर आज इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जारी संघर्ष को समझना है तो इतिहास की उन गलियों से गुजरना होगा जहां पत्थर कम और लाशें ज्यादा हैं. मानव इतिहास के सबसे घिनौने नरसंहारों को जानना पड़ेगा और तब जाकर जमीन के लिए यहूदियों की भूख को पहचाना जा सकेगा।
इजराइल और फिलिस्तीन के संघर्ष को समझने के लिए यीशू के जन्म से हजार साल पहले का सफर करना पड़ेगा. उस वक्त दुनिया में धर्म के दो केंद्र थे. पहला हिंदुस्तान का वो हरा-भरा इलाका जहां सनातन धर्म की जड़ें मजबूत हो चुकी थीं. और दूसरा मिडिल ईस्ट का वो रेगिस्तानी इलाका जहां हजरत इब्राहीम उन तीन धर्मों के पैगंबर कहलाने की ओर अग्रेसर थे जिनका पूरी दुनिया में फैलना निश्चित था.
हजरत इब्राहीम को यहूदी, ईसाई और इस्लाम में शुरुआती पैगंबर होने का दर्जा हासिल है. साधारण भाषा में समझें तो इन्हीं इब्राहीम की धार्मिक थ्योरी को मूसा (यहूदी के पैगंबर), ईसा (ईसाई के पैंगबर) और मोहम्मद (इस्लाम के पैगंबर) ने अपने-अपने कालखंड में अपने दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ाया और सभी ने इब्राहीम को सम्मान दिया.
तीनों धर्मों के मुख्य पूर्वज इब्राहीम बने जिनका जिक्र धार्मिक पुस्तकों में मिलता है. इब्राहीम के वंश में इजराइल का जन्म हुआ जो उनके पोते थे. इजराइल ने 12 कबीलों को मिलाकर इजराइल का गठन किया . जिसे आज हम इजराइल देश के नाम से जानते हैं . इजराइल के एक बेटे का नाम जूदा या यहूदा था जिनकी वजह से इस धर्म को Jew या यहूदी नाम मिला.
इब्राहिम, इजराइल और जूदा के बाद जो नाम यहूदियों से जुड़ा वो है हजरत मूसा का. यहूदियों के पैगंबर हुए मूसा इनका उल्लेख कुरान और बाइबल में भी मिलता है. यूं तो यहूदियों के कई पैगंबर हुए लेकिन मूसा प्रमुख हैं. इन्होंने ही वो नियम तय किए जिपर यहूदी आगे बढ़े. यहूदियों की धार्मिक किताब तौराह है जो दुनिया के निर्माण से शुरू होती है जिसे खुदा ने 6 दिन में बनाया और समाप्त होती है मूसा की मृत्यु पर. मान्यता है कि हजरत मूसा ने ही इजराइल के वंशजों को मिस्त्र की सैकड़ों साल पुरानी गुलामी से आजाद कराया था और एक आजाद जिंदगी दी थी.
अब अगर पैगंबरों से नीचे उतरें और यहूदियों के इतिहास पर नजर डालें तो इसका सही सटीक इतिहास ईसा से करीब 1 हजार साल पूर्व किंग डेविड के समय से मिलता है. डेविड को इस्लाम में दाउद के नाम से संबोधित किया गया है. किंग डेविड ने यूनाइडेट इजराइल पर शासन किया. डेविड के बेटे हुए किंग सोलोमन.जो इस्लाम में सुलैमान हुए. इनका कालखंड ईसा से करीब 900 साल पहले का है. किंग सोलोमन ने यहूदियों का पहला टैंपल #यरुशलम में बनवाया जहां भगवान यहोवा की पूजा होती थी. ये यहूदियों का गोल्डन टाइम था. किंग सोलोमन के पास अकूत दौलत थी. उनकी 300 रानियां थीं और इस बात का भी उल्लेख मिलता है की किंग सोलोमन के समय में कई देशों की तरह ही दक्षिण भारत से भी इजराइल का व्यापार होता था.
किंग सोलोमन की मौत के बाद यहूदी बिखर गए और फिर सदियों तक एक छत नसीब नहीं हुई. ईसा पूर्व 931 में यूनाइडट इजराइल में सिविल वॉर होता है और ये इलाका उत्तर में इजराइल किंगडम और दक्षिण में जूदा किंगडम में बंट जाता है. यहीं से इजराइल के पतन की कहानी शुरू होती है लेकिन वो सबसे बड़ी गलती होनी बाकी है. जिसने आने वाले 2 हजार साल तक यहूदियों का पीछा नहीं छोड़ा. इजराइल के बंटवारे के बाद वहां बेबीलोन साम्राज्य का कब्जा हुआ जो इराक के राजा थे. ईसा पूर्व 587 में बेबीलोन ने यरुशलम में किंग सोलोमन के बनाए यहूदियों के पहले मंदिर को गिरा दिया. फिर कुछ समय बीता और 516 ईसा पूर्व में इसे फिर बनाया गया जिसे यहूदी सेकंड टैंपल या दूसरा मंदिर कहते हैं. उस दौर में यहूदी कुछ संभले और इनकी आबादी भी लाखों में पहुंच चुकी थी. यहूदियों ने शिक्षा और व्यापार के जरिए खुद को मजबूत बनाए रखा.
ईसा पूर्व साल 332 में इजराइल की धरती पर सिकंदर ने कदम रखें और उसकी मौत तक वो राजा रहा. सिकंदर के बाद कुछ विशेष नहीं हुआ लेकिन तभी ईसा पूर्व 63 में इजराइल में रोमन की एंट्री होती है और यहूदियों का जमकर कत्लेआम शुरू होता है. और इसी दौर में यरुशलम की उसी जमीन पर जहां आज अल अक्सा मस्जिद है और जो विवाद का केंद्र बना हुआ है वहां ईसा मसीह का जन्म होता है. ईसा एक यहूदी थे लेकिन वो अपनी विचारधारा लेकर आए. उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया जो #रोमन और #यहूदी दोनो को पसंद ना आया. ईसा ने खुद को परमेश्वर का पुत्र कहा और चमत्कार किए कई यहूदी उनके शिष्य बनने लगे और ईसाई धर्म की नींव पड़ी और बस यहीं पर यहूदियों से वो गलती हो गई जिसकी भरपाई अगले 2000 साल तक करनी पड़ी.
ऐसा आरोप है कि यहूदियों ने ही रोमन गवर्नर पिलातुस को भड़काया और ईशु की शिकायत कर दी. पिलातुस ने यहूदियों को खुश करने के लिए ईसा को सलीब पर चढ़ाकर मारने का आदेश दिया तब ईशू की उम्र 30-33 साल बताई जाती है. ईशु की मौत में जिम्मेदार होने का कलंक यहूदियों के साथ चस्पा हो गया कि ये श्राप बन गया इसके बाद तो कई सदियों तक यहूदियों का नरसंहार हुआ है. हालांकि पोप बेनेडिक्ट 16वें ने ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने के आरोप से यहूदियों को मुक्त करार दे दिया है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. इतिहास में इस एक घटना के कारण इतना रक्त बहा जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती. यहूदी धर्म के आलोचकों के मुताबिक यहूदी धर्म को धार्मिक श्राप मिला है और उसका एक बहुत बड़ा कारण ईसा की मृत्यु में रोमन का साथ देना है. ईशु के बाद दुनिया में जहां भी #ईसाई साम्राज्य स्थापित हुए वहां यहूदियों के रक्त से होली खेली गई लेकिन इन दो धर्मों की लड़ाई में #इस्लाम की एंट्री कब और कैसे हुई ये जानना भी दिलचस्प है.
यहूदियों को मिले धार्मिक श्राप का पहला नजारा ईसा की मौत के करीब 37 साल बाद देखने को मिला जब यहूदियों ने इजराइल पर राज कर रहे रोमन साम्राज्य के खिलाफ बगावत की दी और बदले में रोमन सेनाओं ने यरुशलम को रौंद डाला. ऐसा कत्लेआम इतिहास में नहीं देखा गया था कहा जाता है कि एक ही दिन में करीब 1 लाख से ज्यादा यहूदियों को कत्ल कर दिया गया और सेकंड टैंपल भी नेस्तनाबूद कर दिया. यहूदियों की बहुत सी धार्मिक किताबें और धार्मिक चिन्ह और महत्व की चीजें भी तबाह हो गई और यहीं से शुरू होता है यहूदी डायसपोरा. जो साल 1917 तक जारी रहा करीब 1900 साल का कत्लेआम.
यहूदी डायसपोरा का अर्थ है यहूदियों का इजराइल से भागना और दुनिया के दूसरे मुल्कों में शरण लेना. वो यूरोप, अफ्रीका, अरब और एशिया तक में फैल गए पर कत्लेआम नहीं रुका. रोमन को लगता था कि ईसाई और यहूदी एक ही हैं और वो दोनों का दुश्मन रहा जबकि यहूदी और ईसाई एक-दूसरे कि खिलाफ लड़ रहे थे.
वर्चस्व का त्रिकोणीय मुकाबला अगले 300 साल तक जारी रहा और अरब में लाशों के पहाड़ खड़े कर दिए गए . ईसा 300 में बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइंट आया कांस्टैंटिन द ग्रेट जो कि एक रोमन राजा था उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया वो पहला रोमन बादशाह हुआ जिसने ईसाई धर्म को चुना और यहां से यहूदियों की मुश्किलें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि अब रोमन और ईसाई एक हो चुके थे जबकि यहूदी बिल्कुल अकेले पड़ गए. अब तो क्या रोमन और क्या ईसाई. सभी ने मिलकर यहूदियों को कहीं का नहीं छोड़ा. ऐसे दौर भी आए जब यहूदियों पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए. वो गुलाम नहीं रख सकते थे. बाहर शादी नहीं कर सकते थे, अपने धार्मिक स्थल नहीं बना सकते.
अगले 500 साल तक ईसाई ही यहूदियों के दुश्मन रहे लेकिन ईस्वी 570 आ चुकी थी और यहूदी डायसपोरा को करीब 500 साल पूरे हो चुके थे. इसी साल मक्का में हजरत मोहम्मद का जन्म हुआ. ईस्वी 622 में वो मक्का से मदीना गए जिसे इस्लाम में हिजरी कहा जाता है. मदीना में तब अरबी कबीलों के आलावा ज्यादा आबादी यहूदियों की थी और तीन मुख्य कबीले यहूदियों के पास थे. यहां पर इस्लाम और यहूदियों के बीच संधि हुई कि जब मक्के से हमला होगा तो मुसलमान और यहूदी मिलकर उनका मुकाबला करेंगे और यहां से यहूदियों के जीवन में पहली बार इस्लाम की एंट्री हुई. इस्लाम के जानकर आरोप लगाते हैं कि यहूदियों ने पैगंबर मोहम्मद के साथ धोखा ही किया और कई बार उनके दुश्मनों का साथ दिया और यहीं से यहूदियों और इस्लाम के बीच अविश्वास और दुश्मनी की नींव पड़ी जो आज भी बदस्तूर जारी है.
इतिहास में मुसलमान और यहूदी हमेशा एक दूसरे के दुश्मन नहीं रहे दोनो धर्म साथ-साथ भी रहे हैं. खलीफा उमर के दौर में भी ऐसा ही हुआ. जब मुसलमानों ने सातवीं शताब्दी में स्पेन को फतह किया तो दोनो ने वहां अच्छा दौर भी देखा लेकिन साल 1099 में यूरोप के ईसाई भी संगठित हो चुके थे और क्रूसेडर का क्रूर कालखंड आरंभ हुआ. अब यूरोप से लेकर अरब के मैदान में दो नहीं बल्कि तीन धर्म एक दूसरे से वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे थे. ईसाइियों, इस्लाम और यहूदियों के बीच जमकर तलवारें चलीं. साल 1271 तक यूरोप के ईसाइयों ने धार्मिक युद्ध छेड़ दिया वो पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम जहां ईसा का जन्म हुआ था उसे मुसलमानों से छीनने के लिए युद्ध करने लगे. स्पेन से धीरे धीरे मुसलमान और यहूदियों को बाहर निकलना पड़ा और यहूदी या तो दुनिया के अलग हिस्सों में फैले या फिर हजारों की संख्या में अपने पूर्वजों की घरती इजराइल लौटे और बस्तियां बसानी शुरू कर दी.
भारी संख्या में यहूदी फिर से इजराइल लौटते हैं और 12वीं सदी मामलूक पीरियड और फिर उस्मानिया साम्राज्य के तहत रहते हैं. इस दौरान यहूदियों पर बहुत सी पाबंदियां लगाई गईं लेकिन मरता क्या ना करता उनको सबकुछ सहना पड़ा और पिछली कई सदियों से अपने घर के लिए भटक रहे यहूदियों का सब्र जवाब दे गया उनको लगा कि अब कुछ करना होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ियों को क्या मुंह दिखाएंगे. कब तक इस तरह भटकते रहेंगे. इसी विचार को केंद्रबिंदू रख 17वीं शाताब्दी में हशकला मूवमेंट ने जोर पकड़ा . यहूदी राष्ट्रवाद की कल्पना ने पहली बार जन्म लिया. अब यहूदी अपने लिए एक जमीन का टुकड़ा चाहते थे जहां वो अपनी नस्ल को पाल सकें. यहूदियों ने अपने धर्म को फिर से पुर्नजीवित किया और तय किया कि एक देश तो उनके हिस्से होना ही चाहिए.
उस्मानिया साम्राज्य में भी यहूदियों की हालत अच्छी नहीं थी जिसके कारण इन्होंने रूस में भी शरण लेने की कोशिश की लेकिन वहां भी इनका नरसंहार हुआ और ईसा की मृत्यु के साथ चला आ रहा श्राप परछाई बनकर चलता रहा फिर यहूदियों को पौलेंड और लिथुआनिया में सुरक्षित ठिकाना मिला पर वो भी लंबे अरसे तक ना रहा क्योंकि ये भी तो किराए की ही जमीन थी.
बहरहाल अगले संकट से बेखबर यहूदियों ने पौलेंड में खुद को फिर से संगठित किया. ऐसा लगने लगा कि अब यहूदियों को उनके अधिकार मिल जाएंगे क्योंकि नेपोलियन ने फ्रांस की क्रांति के बाद इन्हें फ्रांस बुलाया लेकिन जल्द ही वहां भी इनके दुश्मन पैदा हो गए. यहूदियों ने ना तो कभी यीशू को और ना ही कभी हजरत मोहम्मद को पैगंबर का दर्जा दिया और यही कारण है कि इनको ईसाई और मुसलमानों ने कभी गले नहीं लगाया. कुछ अरसे तक साथ रहा लेकिन लंबा ना चला. कहना गलत नहीं होगा कि मुठ्ठी भर यहूदियों को अपने धर्म पर टिके रहने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
अब तक पहले विश्वयुद्ध का बिगुल बज चुका था यहां से ब्रिटेन की एंट्री मिडिल ईस्ट में होती है. इजराइल की भूमि पर मुसलमान भी रह रहे थे और यहूदी भी ये इजराइल भी था और फिलिस्तीन भी और जिस तरह ब्रिटेन ने भारत और पाकिस्तान का बंटवारा कर कभी ना समाप्त होने वाली दुश्मनी पैदा कर दी ठीक उसी तरह उसी कालखंड में यहूदियों को उनका अधिकार दिलाने का झांसा दिया.
बदले में समर्थन लेते रहे और आखिरी में सब चौपट करके चले गए. पहले विश्वयुद्ध के साथ ही उस्मानिया साम्राज्य का अंत हो गया और इजराइल में बचे यहूदी और मुसलमान जो अपने अपने लिए मुल्क चाहते थे. पहले विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इजराइल के हिस्से में यहूदी आबादी जमना शुरू हो गई जिसका असर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दिखा.
फर्स्ट वर्ल्ड वॉर और सेकंड वर्ल्ड वॉर के बीच का समय यहूदी इतिहास का सबसे काला अध्याय साबित हुआ. जर्मनी के जरिए हिटलर ने दुनिया को हिला दिया और शुरू होता है यहूदी होलोकॉस्ट का चैप्टर. कहा जाता है कि करीब 60 लाख यहूदियों को हिटलर ने गैस चैंबर में मरवा दिया और जो बच गए उनकी हालात मुर्दे जैसी थी. इस दौरान जर्मनी समेत यूरोप के बहुत से हिस्सों से यहूदी अमेरिका और इजराइल पहुंचे.
अमेरिका पहुंचने वालो यहूदियों में से एक थे दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में शुमार अल्बर्ट आइंस्टीन जो जर्मनी में पैदा हुए पर अमेरिका में जाकर शरण लेनी पड़ी. दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर की हार हुई और संयुक्त राष्ट की स्थापना हुई.
संयुक्त राष्ट्र की आगुवाई में दुनिया ने तय किया कि अब यहूदियों को उनका एक देश दे देना चाहिए और इस तरह साल 1948 में उस भूमि का बंटवारा हो गया जहां सबसे पहले यहूदियों ने राज किया था किंग डेविड और किंग सोलोमन के समय. हां बाद में वहां रोमन, सिकंदर, बेबलियोन, मुसलमान और ईसाइयों ने भी राज किया। साल 1948 के बाद का इतिहास तो सबको पता है एक हिस्सा अरब को गया और
दूसरा हिस्सा यहूदियों को मिला मगर ये बंटवारा अरब देश को रास ना आया. कई बार इजराइल और अरब मुल्कों की जंग हुई और हर बाहर अरब मुल्कों को मुंह की खानी पड़ी. इस युद्ध का सबसे ज्यादा खामियाजा उन मुसलामानों को भी उठाना पड़ा जो अलग फिलिस्तीन की मांग कर रहे थे यासिर अराफात इन्हीं के नेता थे. 1967 में 6 दिन का युद्ध हुआ जिस में अरब देशों की हार हुई और इजराइल ने जेरूसलम
के बड़े भाग पर कब्जा कर दिया और फिलिस्तीनी रिफ्यूजी हो गए . तब से जो आग लगी है वो मिडिल ईस्ट को लगातार जला रही है.
इतिहास को बारीकी और निष्पक्षता से देखेंगे तो कुछ तथ्य ज्ञात होंगे जैसे कि यहूदियों के ऊपर 2 हजार साल तक बेशुमार अत्याचार हुए हैं, यहूदियों की रंजिश मुसलामनों से ज्यादा रोमन और ईसाइयों से रही है, मुसलामनों और यहूदियों की दिक्कत तो मात्र 100 साल पुरानी है, रोमन ने यहूदियों का जैसा कत्लेआम किया वैसा इतिहास में कहीं और नहीं दिखता और कई जगहों पर यहूदी और मुसलमान साथ भी रहे हैं जैसे मदीना और स्पेन लेकिन उनके बीच विश्वास कभी पैदा ना हो सका. ईसाई और इस्लाम से भी प्राचीन होने के बावजूद यहूदियों के पास सदियों तक अपना कोई मुल्क नहीं रहा. आज जो इजराइल है वो मणिपुर जितना होगा. यहूदी अपने पूर्वजों की भूमि इजराइल और खासतौर से जेरूसलम को लेकर बहुत इमोशनल हैं क्योंकि यहां पर कभी उनकी सल्तनत थी यहीं पर उनका पहला और दूसरा मंदिर था और यहूदियों को भरोसा है कि यहीं पर उनका तीसरा मंदिर बनेगा.
वो आज भी जेरुशलम को अपना सबसे पवित्र स्थान मानते हैं. यहीं पर टेंपल माउंट भी है और अल अक्सा मस्जिद भी और यीशू का जन्म भी यहीं हुआ है. इसलिए जेरुशलम का ये परिसर अखाड़ा बन चुका है लेकिन ये गलती वर्तमान की नहीं इतिहास की है जिसकी सजा आज की पीढी भुगत रही है चाहे वो यहूदी हो या फिलिस्तीनी.
(काशी, 13मई 2021, गुरूवार)
http://chitravansh.blogspot.in
#यहूदी #यरूसलम #फीलीस्तीन #इजरायल
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