रविवार, 2 जून 2019

व्योमवार्ता/हालिया पढ़ी गई किताबें : व्योमेश चितर्वंश की डायरी, 1जून 2019, शनिवार

व्योमवार्ता/ हालिया पढ़ी गयी किताबें: व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 1 जून 2019, शनिवार

इधर जीवन के अस्तव्यस्तता और अनियमितता के वजह कहें या हाथ मे मोबाइल रहने पर सोशल मीडिया का शुरूआती नशा, किताबें पढ़ने का शौक बिलकुल छूटने लगा था। पिछले जन्मदिन ९ मई पर बच्चो के साथ यह संकल्प लिया कि हर सप्ताह कम से कम एक किताब जरूर पढ़ना है चाहे वह पाकेटबुक्स ही क्यों न हो, ताकि किताबे पढ़ने की आदत जीवन मे फिर से शुमार हो, लिहाजा हर सप्ताह एक नही पर मई महीने मे तीन हिन्दी बेस्ट सेलिंग किताबें पढ़ कर संकल्प का आगाज किया, उम्मीद है कि एक किताब हर हफ्ते वाला संकल्प जून से चलने लगेगा।
जो तीन किताबें सत्य व्यास की चौरासी, विनोद दूबे की इण्डियापा और निखिल सचान की यूपी 65 पढ़ी, आज के युवा लेखकों का ट्रेंड व किस्सागोई को बताती है, तीनो ही आखिरी तक आपको अपने कहानी के जादू से बॉधी रखती है, पढ़ के सचमुच मजा आ गया।
सत्य व्यास बीएचयू छात्र जीवन मे मेरे अनुज रहे हैं इसलिये उनसे थोड़ा अपनापन लगना स्वाभाविक है पर यह स्वाभाविकता वास्तविकता मे बदलने को तब मजबूर हो जाती है जब उनकी लेखनी बनारस टाकीज और दिल्ली दरबार की यात्रा करते हुये चौरासी के बोकारों मे भी अपने को उम्दा साबित करती है। सत्य ने पाठकों को अपने तिलस्म मे बॉधे रखने की जादूगरी को बरकरार ही नहीं रखा बल्कि उसे धारदार तेवर दिया है।
विनोद दूबे का इंडियापा समुंदर के नमकीन हवाओं मे सफर करने के बावजूद बनारस के गली मोहल्ले और घाट पर पसरा रहता है। वही बनारस, जहॉ मै बसता हूँ, जहॉ होना ही मेरा वजूद है, जहॉ के गली मोहल्ले घाट दुकाने माल सब आपको खुद के साथ कहानी का भागीदार बनाते हुये चलते है।हवा और पानी मे तेजी से सफर कर रहे आधुनिकीकरण के इस दौर मे बनारस और आसपास के समाज की परंपरा को न छोड़ पाने की कसक व टीस को महसूस करते हुये मन मे आखिर तक यह ख्याल आता रहता है कि काश कहीं से कुछ ऐसा हो जाता कि दोनो मिल जाते पर आपके सारे कयासों पर रोक लगाते हुये विनोद दूबे का इण्डियापा कहानी को ले जा कर वही छोड़ता है जहॉ आज के मध्यवर्गीय परिवारों की सोच पहुँचती है। विनोद दूबे की पहली किताब, पर सधी थीम पर आखिरी तक बॉधने वाला किस्सा। चैन व सूकूं देता है इण्डियापा पढ़ना। संतोष इस बात का कि सोशल मीडिया के इस जमाने मे भी अच्छी किताबें आ रही हैं ।
निखिल सचान की यूपी 65 बीएचयू के आईआईटी के राजपूताना से शुरू हो बीएचयू गेट पर आये दिन होने वाली पालिटिक्स पर चर्चा है। कानपुरिया व इलाहाबादी भाषा के तालमेल मे तलती हुई यह उपन्यास यात्रा सुसुवाही से अस्सी घाट और मुमुक्षु भवन तक फैल जाती है पर इसका फैलना रायता की तरह नही खट्टी मीठी चटनी जैसे है जो महत्वाकांक्षा के चरम पर जाकर भी शांति व शून्यता के लिये बेचैन है। अपने जीवन मे सब कुछ पाकर भी कुछ न पाने की बेचैनी, अपनों के इंतजार मे तरसती मृत्यु के लिये प्रतिक्षित जीवन संध्या, पिता के सपनों को पूरा करने मे जुटे अपने सपनों को अब तक न जानने वाले मेधावी होनहार आज की सच्चाई बयां करते है। बीएचयू के माहौल पर कोई किताब पढ़ते हुये आज भी मेरा मन बीएचयू वाला हो जाता है पर निखिल की यूपी उसे बीएचयू से निकाल कर भौतिकवाद के मकड़जाल मे खुद को ढूढ़ने के समस्या की जटिलताओं की ओर ईशारा करते चलती है। बहुत अच्छे निखिल ।
(बनारस,1जून 2019, शनिवार)
http://chitravansh.blogspot.com

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