बुधवार, 5 सितंबर 2018

व्योमवार्ता/ आरक्षण समीक्षा की राजनीतिक आवश्यकता ,देश और निजी स्वार्थ

व्योमवार्ता/ आरक्षण समीक्षा की राजनीतिक आवश्यकता ,देश और निजी स्वार्थ : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 04 सितंबर 2018

एससी-एसटी एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक सम्बन्धी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के हिंसक विरोध के बाद आरक्षण नीति पर एक बार पुनः बहस और राजनीति प्रारम्भ हो गयी है|
डॉ.भीमराव अम्बेडकर जिस आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा इसके लागू होने के दस वर्ष के अन्दर कराना चाहते थे| उसकी समीक्षा सत्तर वर्षों बाद भी नहीं हो सकी है| डॉ.भीमराव अम्बेडकर का जीवन-दर्शन पढ़कर कोई भी यह कह सकता है कि आज यदि वे इस दुनियां में होते तो आरक्षण व्यवस्था भारतवर्ष से न जाने कब समाप्त हो गयी होती लेकिन कांग्रेस और
उसके बाद के सभी राजनीतिक दलों ने वोट बैंक की राजनीति के तहत इसे न केवल आज तक जीवित रखा
बल्कि उसका दायरा बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक कर दिया| जिसके कारण योग्यता जैसा शब्द जहाँ आज बेईमानी
लगने लगा है वहीं अनारक्षित वर्ग के युवाओं में कुंठा और हताशा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है|
डॉ.भीमराव अम्बेडकर एक बुद्धिमान व्यक्ति थे| वह जानते थे कि आरक्षण एक दिन नासूर बन सकता
है| इसलिए वह इसे बीस-पच्चीस वर्ष से अधिक लागू नहीं करना चहते थे| साथ ही प्रत्येक दस वर्ष में वह
इसकी समीक्षा भी कराना चाहते थे| उन्होंने कहा था कि ‘दस साल में यह समीक्षा हो कि जिनको आरक्षण
दिया जा रहा है, क्या उनकी स्थिति में कुछ सुधार हुआ या नहीं?’ उनका स्पष्ट मानना था कि आरक्षण से
यदि किसी वर्ग का विकास हो जाता है तो उसके आगे की पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नहीं देना चाहिए|
क्योंकि आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं है| यह तो मात्र एक आधार है, विकसित होने का| लेकिन दलित वर्ग
को थोक वोट बैंक के रूप में देखने वाले राजनीतिक दलों ने इस बात की कभी भी समीक्षा नहीं करायी कि
जिनको आरक्षण दिया गया है उनकी स्थिति में कितना सुधार हुआ है| आरक्षण का लाभ लेकर विकसित हुए
व्यक्ति की अगली पीढ़ी को आरक्षण न देने के सवाल पर तो चर्चा करने तक से सभी राजनीतिक दल प्रायः
बचते रहते हैं|
संविधान के अनुच्छेद 15(1) में स्पष्ट अंकित है कि राज्य अपने नागरिकों के मध्य मूलवंश, धर्म,
जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर किसी प्रकार का विभेद नहीं करेगा| अनु.16(2) भी जनसमायोजन में
अवसर की समानता प्रदान करता है| डॉ.अम्बेडकर अपने समाज के लोगों से सदैव कहते थे कि मानव, मानव
सब समान हैं| उनमें किसी प्रकार के भेदभाव का चलन अमानवीय और अनैतिक है| जिस समाज और धर्म में
छुआछूत, असामनता, विषमता और शोषण चक्र विद्यमान है, वह न समाज है और न धर्म है| यह बात तब
भले ही उन्होंने दलितों को लक्ष्य करके कही हो परन्तु आज भारत का सवर्ण वर्ग असमानता और विषमता का
शिकार हो रहा है| दूरदर्शी डॉ.भीमराव इस तथ्य को भलीभांति जानते थे| तभी वह आरक्षण को तब तक ही
रखना चाहते थे जब तक कि दलित वर्ग अन्य वर्गों की बराबरी पर न आ जाये| आज दलित वर्ग में भी
सुविधासम्पन्न और सुविधाविहीनों के बीच असमानता और विषमता का दर्शन किया जा सकता है|
भारत में आरक्षण की शुरुआत सन 1982 में तब हुई जब अंग्रेज सरकार के द्वारा प्राथमिक शिक्षा की
स्थिति जानने और उसमें सुधार हेतु हंटर आयोग का गठन किया गया| उस समय प्रख्यात समाज सुधारक

ज्योतिवा राव फुले ने वंचित तबके के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में
आनुपातिक आरक्षण की मांग की थी| सन 1891 में त्रावणकोर रियासत में स्थानीय योग्य लोगों की उपेक्षा
करके जब विदेशियों को नौकरी देने की मनमानी शुरू हुई तो इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए तथा स्थानीय लोगों के
लिए आरक्षण की मांग उठाई गयी| सन 1901 में सामन्ती रियासत कोल्हापुर में छत्रपति शाहू जी महाराज
द्वारा वंचित तबके को आरक्षण देना प्रारम्भ किया गया था| देश के वंचित तबके को आरक्षण देने सम्बन्धी
यह पहला राजकीय आदेश था| उसके बाद सन 1908 में अंग्रेजों ने भी इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाये|
आजादी के बाद प्रारम्भ में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए 10 वर्ष के लिए अरक्षण दिया
गया था| उसके बाद उसकी समीक्षा करके आगे की नीति तय करनी थी परन्तु वोट बैंक के मोह में उलझी
कांग्रेस ने धीरे-धीरे इस समय सीमा को बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया| उसके बाद मुरार जी देसाई की जनता पार्टी
सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए सन 1979 में तत्कालीन
सांसद विन्देश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया| इस आयोग ने सन 1930 की
जनसंख्या का आधार लेकर देश की 1257 जातियों को पिछड़ा बताते हुए उनकी आबादी 52 प्रतिशत घोषित की|
इस आयोग ने सन 1980 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी| उस रिपोर्ट में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का
दायरा 22 प्रतिशत से बढ़ाकर 49.50 करने का सुझाव दिया गया| उसमें भी ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत
आरक्षण का सुझाव दिया गया था| सन 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने देश की 52 प्रतिशत
जनता को थोक वोट बैंक मानते हुए भविष्यगत किसी भी प्रकार के दुष्परिणामों पर विचार किये बिना मण्डल
आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू कर दिया| जिसका पूरे देश में भारी विरोध हुआ| अनेक
नौजवानाओं ने तो क्रोध में आकर आत्मदाह तक कर लिया था| देश में कई जगह आरक्षण विरोधियों और
समर्थकों के बीच झगड़े भी हुए| सुप्रीम कोर्ट में सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध याचिका दायर की गयी| कोर्ट
ने आरक्षण को वैधानिक करार देते हुए व्यवस्था दी कि आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना
चाहिए| उसी बीच आडवाणी जी रथ यात्रा लेकर निकल पड़े| जिसने देश की राजनीति को एक अलग दिशा की
ओर मोड़ते हुए साम्प्रदायिक रंग में रंग दिया| परिणामस्वरुप विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का पतन हो
गया| कांग्रेस ने चन्द्रशेखर को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी और अवसर देखकर गिरा भी दी| जिससे
देश में मध्यावधि चुनाव हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह को आशा थी कि मण्डल आयोग की सिफारिशें देश की 52
प्रतिशत जनता को उनके साथ लाकर खड़ा करेंगी| जबकि लालकृष्ण अडवाणी अपनी रथ-यात्रा में उमड़े जन
शैलाव के माध्यम से सत्ता को भाजपा की ओर आता हुआ देख रहे थे| परन्तु एक आतंकी घटना में पूर्व
प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की मृत्यु से देश के राजनीतिक हालात एकदम बदल गये और जनता ने आडवाणी की
कमण्डल तथा विश्वनाथ प्रताप की मण्डल वाली राजनीति को किनारे करते हुए कांग्रेस की सरकार बनवा दी
और नरसिम्हाराव प्रधानमन्त्री बने|
नरसिम्हाराव और उनके बाद की अब तक की किसी भी सरकार ने आज तक यह जानने का प्रयास
नहीं किया कि मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद देश की उन 1257 जातियों का स्तर कहाँ
पहुंचा है? और न ही किसी ने यह जानने का प्रयास किया कि आरक्षण व्यवस्था लागू होने के बाद से अब तक

अनारक्षित वर्ग की स्थिति क्या है? डॉ.अम्बेडकर के नाम पर एक वर्ग विशेष का वोट समेटने वालों को यह भी
समझ लेना चाहिए कि वे डॉ.अम्बेडकर के सिद्धांतों और आदर्शों का कितना पालन कर रहे हैं| डॉ.भीमराव
अम्बेडकर सामाजिक रूप से पिछड़े तबके को ऊपर उठाने के लिए कृतसंकल्पित थे और उन्होंने इसे पूरा करने
के लिए आवशयक कदम भी उठाये परन्तु वे इस पक्ष में कभी नहीं रहे कि एक तबके को इतना ऊपर उठा दो
की दूसरा तबका नीचे गिर जाये| उनके किसी भी वक्तव्य, भाषण, लेख या पुस्तक में कहीं भी ऐसा कोई
उल्लेख नहीं मिलता है| तब फिर वर्तमान राजनीतिक दल वोटबैंक के लिए आज जो कुछ भी कर रहे हैं उसे
उस महान विचारक के सिद्धांतों और आदर्शों का खुलेआम विरोध ही कहा जायेगा|
(बनारस, 04 सितंबर 2018, मंगलवार)
http://chitravansh.blogspot.com

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