नदीयॉ भी कुछ कहती है, रोते-रोते बहती है......
-व्योमेश चित्रवंश, एडवोकेट
मै अपनी बात विश्व की सॉस्कृतिक राजधानी वाराणसी को अपने गोंद मे समेटने वाली मॉ गंगा ,नाम देने वाली आद्य पौराणिक नदी वरूणा व लगभग लुप्त हो चुकी असि नदी के पीड़ा से शुरू करना चाहूगॉ. वरूणा के तट पर मै रहता हूँ, वह मेरे लिये एक नदी ही नही संस्कृति है, वह काशी की एक प्राचीन जलधारा ही नही बल्कि काशी की ईड़ा पिंगला और सुसुम्ना जैसी जलवाहिनी जीवन प्रवाह है, यह प्रवाह रूक रहा है, चिकित्सा की भाषा मे कहे तो आर्टिरी मे ब्लाकेज हो गये है, जिससे प्रवाह सरल व अविरल नही रह गया है, रक्तप्रवाह मे बाधा आने पर हृदयगति अवरूद्ध होती है, ठीक वही दशा वर्तमान मे इतिहास से भी पुराने वाराणसी शहर की है. जल रूपी रक्तप्रवाह बाधित होने से हृदयगति मंद हो गई है, ऊपर से सब ठीकठाक दिखने वाले शहर की हृदय रूपी पर्यावरणीय संस्कृति गति मंद हो गई है जो हम सब के लिये चिन्ता का विषय है.
मै प्रायः वरूणा तट पर बैठा रहता हूँ, नदी के काले हो चुके पानी और उनमे से उठती दुर्गंध मुझे विचलित कर देती है. सोचता हूँ कि आज से मात्र पंद्रह बीस वर्ष पूर्व तक अपने तटवासियों के लिये जीवन दायी रही मृत्युशैय्या पर पड़ी यह मूक नदी वाणी रहने पर अपनी पीड़ा कैसे व्यक्त करती, संभवतः कुछ इस तरह के शब्द होते वरूणा के
"मैं वरुणा हूं। संगम नगरी के मैलहन झील से निकलकर काशी में गंगा में समाहित हो जाती हूं। इस लंबे सफर में अनगिनत घात-प्रतिघात सहन कर रही हूं। मैं अपना सर्वस्व मानव जाति के लिए अर्पित कर रही हूं। उसके बाद भी मेरे अस्तित्व को समाप्त करने की कोशिश हो रही। मुझे नहीं पता मेरा क्या अपराध है? मैंने तो अपने पानी के दोहन के लिए न तो किसी सरकार की तरह टैक्स लिया और न ही कोई व्यापार ही कर रही हूं। फिर भी मेरे प्रति ऐसी नाराजगी क्यों? एक लंबे समय से संगम [इलाहाबाद] से काशी तक के बीच बसने वाली एक बड़ी आबादी मेरे सहारे खेती-बारी कर रही। कई पीढि़यों का रिश्ता रहा। मैंने कभी अपने जल के इस्तेमाल को नहीं रोका। गंगा के कोप को भी अपने ऊपर लेकर आपको बचाया। भूजल के स्तर को भी सुधारा। मैंने बदले में कभी कुछ नहीं मांगा। मैं जिस क्षेत्र में गंगा के बढ़े जल को एकत्र कर संकट टालती थी, उसमें भी आप लोगों ने बसेरा बना डाला। अब जब पानी बढ़ेगा तो आपके आशियाने में भरेगा उसकी तकलीफ मुझे होगी। मैं लाचार स्थिति में रहूंगी। क्योंकि मेरे पास जगह नहीं होगी पानी को समेटने की। अपलक नेपथ्य को निहार रही हूं कि किसी भगीरथ का कदम आगे बढ़े जो मुझे सहेजकर नवजीवन प्रदान करें। जब कुछ प्रभावशाली लोगों ने मेरे नाम पर महोत्सव प्रारंभ किया तो लगा शायद मेरे शरीर पर बन रहे घावों को भरने का प्रयास होगा, लेकिन मेरी उम्मीदों पर पानी फिर गया। सिर्फ झूठी दिलासा मिली। मेरे नाम पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश हुई। मुझे नहीं पता कौन व्यवस्था का पालक है और किसकी जिम्मेदारी बनती है। मेरी याचना सभी से है कि एक नदी खत्म हो गई तो दूसरी नहीं ला पाओगे। मेरी सहोदर असी खत्म हो गई तो क्या उसे पुन: जिंदा कर पाएंगे। मैं किसी स्वार्थ के वशीभूत नहीं हूं। आने वाली पीढ़ी की चिंता है। जब मैं नहीं रहूंगी तो क्या हालात होंगे उसकी कल्पना तो जानकार ही कर सकेंगे। हे ! व्यवस्था के कर्ता-धर्ता थोड़ी रहम करो मुझे बख्श दो ताकि वर्तमान और भविष्य दोनों को संवार सकूं।"
वरूणा की यह पीड़ा महसूस कर मै और विचलित हो जाता हूँ, मुझसे गुहार करती वरूणा की दबी कुचली मद्धिम आवाज की पीड़ा को मै आप सब से बॉटना चाहता हूँ, आज मात्र वह वरूणा , गंगा और अस्सी की आवाज नही है वह प्रत्येक नदी, जलकुण्डों, जल प्रणालियों की आवाज है जिसे हम अनदेखा कर रहे हैं, हम सब को पता है कि बिना जल के जीवन संभव नही पर जल स्रोतों के प्रति ही हमारी सर्वाधिक अवहेलना देखने को मिलती है.
अब बात वरूणा की करते है आज विश्व की सांस्कृतिक राजधानी प्राच्य नगरी वाराणसी कोपहचान देने वाली वरूणा नदी तेजी से समाप्त हो रही है.कभी वाराणसी व आसपास के जनपदों की जीवनरेखा वआस्था की केन्द्र रही वरूणा आज स्वयं मृत्युगामिनी होकरअस्तित्वहीन हो गयी है.पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग में भगवान विष्णु केदाहिने चरण के अंगूठे से निकली मोक्षदायिनी वरूणा (जिसे आदिगंगा भी कहा जाता है) इलाहाबाद के फूलपुर तहसील के मेलहमगॉव के प्राकृतिक तालाब मेलहम ताल से निकलती है जो लगभग110 किमी की यात्रा पूरी करते हुये सन्तरविदास नगर भदोही औरजौनपुर की सीमा बनाते हुये वाराणसी जनपद के ग्रामीण इलाकोसे होते हुये कैण्टोमेन्ट जनपद मुख्यालय से लगते हुये राजघाट केपास सरायमोहाना (आदि विश्वेश्वर तीर्थ ) में गंगा से मिल जाती है।
वरूणा तट पर पंचकोशी तीर्थ के अनेकों मंदिर व रामेश्वर जैसेप्रसिद्ध तीर्थस्थल है.पूर्व में यह सदानीरा नदी लगभग 150 से250 किमी क्षेत्र के वर्षाजल को प्राकृतिक रूप से समेटती हुईआसपास के क्षेत्र में हरितिमा विखेरती हुई गंगा में समाहित होजाती थी आज से मात्र बीस साल पूर्व वरूणा नदी काफी गहरीहुआ करती थी और वर्ष पर्यन्त जल से भरी रहती थी जिससे आसपास के ग्रामवासी खेती, पेयजल दैनिक क्रियाकलाप, श्राद्धतर्पण और पशुपालन के लिये इसी पर निर्भर रहते थे वरूणा तटपर पाये जाने वाली वनस्पतियों नागफनी, घृतकुमारी, सेहुड़,पलाश, भटकैया, पुनर्नवा, सर्पगन्धा, चिचिड़ा, शंखपुष्पी, ब्राह्मी,शैवाल, पाकड़ के परिणाम स्वरूप वरूणा जल में विषहारिणीशक्ति होती थी जो एण्टीसेप्टिक का कार्य करती थी।
समय बीतने के साथ जनसंख्या के दबाव व पर्यावरण के प्रति उदासीनता के चलते नदी सूखने लगी। इसे जिन्दा रखने के लिये नहरों से पानी छोड़ा जाने लगा लेकिन नहरों से पानी कम और सिल्ट ज्यादा आने लगी। नदी की सफाई न होने से सिल्ट नदी में हर तरफ जमा हो गयी जिससे वरूणा काफी उथली हो गयी।परिणामत: अब झील और नदी में बरसाती पानी भी एकत्र नहीं हो पाता है और वरूणा अपने उद्गम से लेकर सम्पूर्ण मार्ग में सूखती जा रही है। कमोवेश यही हालत 20 किमी दूर भदोही जनपद तक है जहॉ नालों के मिलने से यह पुन: नदी के रूप में दिखाई देने लगती है। पुन: यही हालत वाराणसी में इसके संगम स्थल तक है।गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने सामान्य क्षत्रि में जिस जीवनदायिनी,मोक्षदायिनी वरूणा का विहंगम वर्णन कर आस्था के केन्द्र में इसे प्रतिष्ठापित किया वह आज राजघाट (सरायमुहाना) से फुलवरिया(39 जी टी सी कैन्टोमेन्ट) तक लगभग 20 किमी क्षेत्र तकबदबूदार गन्दे नाले में तब्दील हो जाती है। मात्र इस बीस किलोमीटर के क्षेत्र में बड़े-बडे़ सीवर , ड्रेनेज खुले आम बहते देखाजा सकता है। लोहता, कोटवा क्षेत्र में मल, सीधे घातक रसायन नदी में बहाये जा रहे है। वही शहरी क्षेत्र में लगभग 17 नाले प्रत्यक्षत: बरूणा में मल व गन्दगी गिराते देखे जा सकते है। ऊपरसे कोढ़ में खाज की तरह जनपद मुख्यालय से सटे वरूणा पुल पर से प्रतिदिन मृत पशुओं के शव और कसाईखाने के अवशेष, होटलों के अवशिष्ट पदार्थ वरूणा में गिराये जाते है। वरूणा के किनारे स्थित होटलों, चिकित्सालयों एवं रंग फैक्ट्रियों कारखानों के सीवरलाइने प्रत्यक्ष अथवा भूमिगत रूप से इसमें मिला दी गयी है।
आज भी प्रतिदिन प्रात: काल तीन बजे से पॉच बजे के बीच होटलोंऔर चिकित्सालयों के अपशिष्ट पदार्थ नदी में फेके जाते है। नदी के किनारे पंचसितारा होटल, कालोनियां और बड़े इमारतों का निर्माण निरन्तर जारी है। इसके लिये खुले आम वरूणा को पाटा जा रहा है। दुखद तो यह हैकि ये सभी कार्य जनपद मुख्यालय से सटे एवं प्रशासनिक अधिकारियों के आवास के पास हो रहा है। इस पूरे सन्दर्भ में प्रशासन की भूमिका भी कम नकारात्मक नही है। पूरे शहर में नई सीवर ट्रंक लाईन बेनियाबाग से लहुराबीर होते हुये चौकाघाट पुल तक विछाई जा रही है जिसमें सिगरा से लेकर लहुराबीर तक नई ट्रंक लाईन मिलाई जा रही है। हालांकि इस पूरे सीवर लाईन को वरूणा नदी में बनाये जा रहे पंपिंग स्टेशन में मिलाया जायेगा परन्तु फिलहाल यह सीवर सीधे वरूणा नदी में बहाया जा रहा हैऔर बहाया जाता रहेगा। इसी प्रकार गंगा प्रदूषण नियन्त्रण इकाईके अधिकारिक सूचना के अनुसार शहर में कुल सीवर का उत्पादन290 एम एल डी प्रतिदिन है परन्तु कुल 102 एम एल डी /प्रतिदिन का ही शोधन हो पाता है। शेष 188 एम एल डी सीवर प्रतिदिन सीधे गंगा व वरूणा नदियों में बह जाता है। यह स्थिति विद्युत व्यवस्था न रहने पर ही कारगर होती है और वाराणसी में विद्युतपूर्ति की स्थिति किसी से छिपी नही है।
वर्तमान समय में वाराणसी के पहचान देने वाली दूसरी नदी अस्सी भू-माफियाओं और सरकारी तन्त्र के उदासीनता के चलते समाप्तहो चुकी है। वह मात्र अपने ऐतिहासिक सन्दर्भो में ही जीवित है जबकि भौगोलिक धरातल पर उसका पता अब नाम मात्र को हीमिलता है। वही स्थिति आज वरूणा नदी की भी है। सोची समझी साजिश के तहत वरूणा को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहाहै। कभी नदी के तट से 200 मीटर दूर रहने वालों के मकान कोठियॉ व होटल अब नदी के बीचोबीच बन गये है। सदानीरा रहनेवाली कलकल करती यह नदी आज गन्दी नाली के शक्ल में परिवर्तित हो चुकी है। पुराने पुल के पास इसे बॉध कर इसका प्राकृतिक स्वरूप ही समाप्त किया जा चुका है। आज की स्थिति में वरूणा भारत की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है जिसमें एक भी जीव जन्तु जीवित नहीं है। प्रयोगशाला के मानकों केअनुसार वरूणा नदी रासायनिक जॉच के सभी मानदण्डों को ध्वस्त कर चुकी है। भारत सरकार केन्द्रीय व पर्यावरण मन्त्रालय ने इसे डेड रिवर्स मृत नदियों की सूची में शामिल कर लिया गया हैऔर इसे मृत नदी मान लिया गया है। वरूणा जल में प्रदूषण का अन्दाजा मात्र इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रासायनिक तत्वों के प्रभाव पर कार्य करने वाली संस्था टाक्सिक लिंक के द्वारा वरूणा तट पर स्थित लोहता और शिवपुर में उगाई जा रही सब्जियों के अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि वरूणा जल में भारी तत्वों की मात्रा अत्यधिक है जिनमें जिंक, क्रोमियम,मैग्नीज निकल कैडमियम कापर लेड की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठनों के मानक से अत्यधिक है जो मानक जीवन के लियेअत्यन्त घातक है। वरूणानदी में बह रहे सीवर व अपशिष्ठ पदार्थों के चलते तटवर्ती इलाकों का जल अत्यधिक प्रदूषित हो गया हैजिससे आस-पास के इलाकों में पेट ऑत लीवर सम्बन्धी बीमारियों के साथ-साथ चर्म रोग बढ़ रहे है।
भौगोलिक और भू भौतिकी दृष्टि से वरूणा नदी के सूखने से आसपास के क्षेत्रों में भू-जल स्तर की समस्या गहराती ही जा रही है।वाराणसी भदोही जौनपुर में भूजल काफी तेजी से नीचे जा रहा है।प्रथम स्टेटा पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। संक्षेप में कहे तो संपूर्ण स्थिति निराशाजनक है। भारतीय संस्कृति एवं दर्शन में नदी को माँ के समान माना गया है जो हमारे खेतों को हमारे फसलों को अमृतरूपी जल देती है। ऐसे में वरूणा का दु:ख हमारी माँ का दु:ख है।वरूणा हमारी माँ है और हम अपनी मॉ पर आये संकट की अवहेलना नही कर सकते है।
गंगा की स्थिति भी कमोबेस यही हो गई है. गंगा में गिरने वाले जहरीले पानी से जल-जीवों व मानव दोनों को खतरा पैदा हो चुका है। जहां जल-जीव मर रहे हैं, वहीं इस पानी से इंसानों की मौतें भी हो रही है। लोग पीलिया, दमा व खुजली जैसे रोगों से पीड़ित हैं। गंगा में प्रदूषण को लेकर 1999 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सिविल रिट पिटीशननंबर 3727/1985 (एमसी मेहता बनाम केंद्र सरकारएवं अन्य) में इंटरलोकुटरी प्रार्थना पत्र पर संबंधित राज्य सरकारों से गंगा एक्शन प्लान के बारे में जवाबआया। इस पर 28 मार्च, 2001 को सुप्रीम कोर्ट नेआदेश दिया कि गंगा में प्रदूषण को रोकने के वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाएं। गंदगी के स्रोतों को रोकाजाए, जिसमें लाशों का बहाना व औद्योगिक कचरा सीधे ही गंगा में डालना शामिल था। बोर्ड ने अपने प्रार्थना पत्र में कहा था कि गोमुख से बंगाल की खाड़ीतक 2,510 किलोमीटर में बहने वाली गंगा नदी में इस के किनारे बसे 12 बड़े शहरों सहित उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार व पश्चिम बंगाल की नगरपालिकाओं, उद्योगों तथा अन्य लोकल बॉडीज द्वारा सारा कचरा सीधे गंगा में डालना ही गंगा प्रदूषण का मुख्य कारण है। इसे दूर करने के लिए कोर्ट नेआदेश दिया। अब तक 1500 करोड़ रुपया गंगाएक्शन प्लान पर खर्च होने के बाद भी गंगा में प्रदूषण कम नहीं हो रहा, बल्कि बढ़ा ही है। आज हालात यहांतक पहुंच चुके हैं कि 100 करोड़ लीटर गंदा पानी रोजाना गंगा में बह रहा है, जिसमें हरिद्वार व बनारस जैसे धार्मिक स्थानों के कचरे के अलावा अकेले गाजियाबाद जिले की सिंभावली शराब मिल का मिथेन मिला हुआ पानी व कानपुर के चमड़े की 15,000 (टेनेरी) इकाइयां गंगा में प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं।उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार में पटना की औद्योगिक रासायनिक गंदगी व सिमरिया में मुंडन करवाने वालों का भी गंगा को गंदा करने में भारी सहयोग है।इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी 5 मई, 1998 को गंगा की सफाई के लिए एक हाई पावर्ड कमेटी का गठनकरने का आदेश दिया था, जो बनी भी, लेकिन कुछ खास काम नहीं कर पाई।केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्डके अनुसार गंगा में पीने का जो जल है, उसमें कोलीफार्म की मात्रा 50 से कम नहाने योग्य जल में इसकी मात्रा 300 से कम, और खेती में प्रयोग होनेवाले जल में 5,000 से कम होना चाहिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस कोलीफार्म को कम करने केआदेश राज्य सरकारों को दिए, लेकिन आश्चर्य है कि आज गंगाजल में कोलीफार्म व अन्य का स्तर चिंता का विषय है। गंगा नदी के किनारे करीब 30 करोड़ लोग बसे हुए हैं, जिसमें 1.8 करोड़ उत्तराखंड में और 17करोड़ अकेले उत्तर प्रदेश में बसे हैं। और कुल गंगा की गंदगी का 60 प्रतिशत भाग इन्हीं दो राज्यों के हिस्से में है। जिसमें हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, विंध्याचल , इलाहाबाद,बनारस और सिमिरिया मुख्य व बड़े तीर्थ हैं , जहां से तीर्थयात्रियों की गंद इन धार्मिकस्थानों की कुल गंद का 40 प्रतिशत होती है। इसके अलावा गाजियाबाद से सिंभावली शराब मिल से एक नहर के बराबर मिथेन मिला जहरीला पानी निकलता है, जो वहीं 30 किलोमीटर दूर पूठ गांव में गिरता है। कानपुर में कम से कम 5,000 ट्रक लोड क्रोम निकलता है, जो जहरीला होता है। बनारस में बनारसीसाड़ियों की प्रिंटिंग का रसायन भरा पानी भी कम जहरीला नहीं होता। इसके अलावा मिर्जापुर में कालीन बनाने का काम होता है और वहां लगभग 50,000लीटर केमिकल का पानी रोज निकलता है। गाजियाबाद जिले में जिला मुख्यालय से 50किलोमीटर दूर गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में सिंभावली कस्बा है,जहां उद्योगपति सरदार गुरमीत सिंह मान की शुगर वडिस्टिलरी मिलें हैं। सिंभावली शुगर मिल में जो शराबके प्लांट लगे हैं, उनसे जो जहरीला व गंदा पानी निकलता है, उसे गंगा में डाला जाता है, जिसकी प्रतिदिन की निकासी गंगा की एक नहर के बराबर है।कंपनी रम व व्हिस्की भी बनाती है। कंपनी केअधिकारियों ने कुछ ग्राम सभाओं के अध्यक्षों व यूपी पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अधिकारियों को लालच देकर शराब बनाने की प्रक्रिया से निकलने वाले पानी को गंगामें डालना आरंभ कर दिया। इसके लिए कंपनी ने एक बड़ा नाला बनवाया जो बक्सर, जमालपुर, निचोड़ी, सियाना, लोंगा, सिहेल, बहादुरगढ़, आलमपुर,पसवाड़ा, नवादा आदि गांवों के पास से होते हुए अंत में पूठ गांव के पास गंगा नदी में गिरता है। इस पानी में शराब जैसी दुर्गंध आती है। जिसका कारण बताया गया कि इस पानी में मिथेन नामक जहर मिला होता है।कंपनी ने मिल के अंदर एक आरओ प्लांट भी लगायाहुआ है, जिसके साफ करने के बाद जो पानी निकलता है, उसे नाले में बहाकर गंगा में डाला जा रहा है।आरओ प्लांट से मिथेन नाम के जहरीले तत्व की मात्रा कम हो जाती है और जो मिथेन वहां निकलता है, उससे20 हजार टन तक सालाना बायो कंपोस्ट तैयार कीजाती है। सिंभावली शुगर मिल में लगी डिस्टिलरी में ‘इथेनल’ भी तैयार किया जाता है और वह इतनी बड़ी मात्रा में तैयार होता है कि देश की बड़ी कंपनियां उसे खरीदती हैं। ऑक्सीजन न होने से या कम होने से वहां जल जीवों का जिंदा रहना नामुमकिन-सा हो गया है।इसके अलावा सियाना में एक मिल्क प्लांट का रसायन भी गंगा में डाला जाता है, जो पानी की ऑक्सीजन को कम करता है। 2005 में वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की संस्तुति पर गंगा नदी में 165 किलोमीटर के हिस्से में‘रामसर साइट’ की घोषणा की थी, जिसमें राष्ट्रीय जलजीव डोलफिन से लेकर सभी प्रकार के जल जीवों की रक्षा के लिए सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए गये थे औरउस क्षेत्र में इन जल जीवों को किसी भी प्रकार से मारने पर वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के अंतर्गत कार्रवाई तक करने की संस्तुति की गई थी। उस समय यहां 126 डोलफिन थीं, जो अब मात्र 29 ही रह गई हैं।जहां यह जहरीला और गंदा पानी गंगा में पड़ रहा है,वहां हालत यह है कि मछलियां, कछुए व चिड़ियां जिंदा नहीं रह पाते। रामसर साइट को खतरा पैदा हो चुका है।उसके कम से कम पांच किलोमीटर के दायरे में गंगाजल दूषित हो चुका है। और इस क्षेत्र में जल जीव सुरक्षित नहीं हैं। 30 किलोमीटर लंबे इस नाले में गंदगी का असर यह है कि उसमें किसी भी प्रकार का जलजीव नहीं है। यहां तक कि इस पानी को पीने से लोगों की भैंसे मर चुकी हैं और पांच बच्चे भी इस पानी के संपर्क में आने पर अपनी जान गंवा चुके हैं। पीलिया,दानेदार खुजली होना तो यहां के लोगों के लिए आम बात है। असर जमीन के पानी तक में है। हैंडपंप वट्यूबवेल तक से भी गंदा व दूषित पानी ही निकलता है।
देवि सुरेश्वरी भगवती गंगे, त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह पंक्तियां यह बताने के लिए पर्याप्त हैं गंगा का पृथ्वी पर अवतरण विश्व को तारने व जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था। इसी वजह से वह देव नदी कहलाई। यह देव नदी अब सूखने के कगार पर है। कम से कम पूर्वी उत्तर प्रदेश के हालात तो यही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की शुरुआत से लेकर अंत तक गंगा का जलस्तर हर स्थान पर लगातार तेजी से घट रहा है। अकेले वाराणसी में गंगा के स्तर में एक साल में ढाई फीट से अधिक की कमी आ चुकी है। जल स्तर घटने की यह रफ्तार हर साल बढ़ती जा रही है। गंगा का पृथ्वी पर अवतरण दैवीय उद्देश्यों के लिए हुआ था। इसके जल को अमृत मान कर काफी विवेक से इस्तेमाल की परंपरा रही है। अब स्थिति बदल गई है। इस समय इसका उपयोग किसी आम जल की तरह बिजली बनाने व सिंचाई करने में ही हो रहा है। टिहरी समेत दर्जनों बड़े छोटे बांध हर स्तर पर इसके प्रवाह को रोके पड़े हैं। बांधों से बने सरोवरों में इसकी समस्त जलराशि रुक जाने के चलते मैदानी ही नहीं अधिकांश पहाड़ी इलाकों में इसमें पानी की खासी किल्लत हो गई है। कभी साल भर पूरे पाट बहने वाली यह नदी अब बारिश में भी अपने पाट के दोनों किनारे नहीं छू पा रही है। खुद केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़ों की मानें तो गंगा के जल स्तर में हर साल गिरावट आ रही है। इतना ही नहीं, जलस्तर घटने की रफ्तार हर साल बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद में यमुना से मिलने के बाद भी गंगा की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आ रहा है। बनारस के राजघाट से लेकर गाजीपुर तक घटने की यह रफ्तार इसी गति से जारी है। केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब गंगा नदारद हो जाएंगी। गंगा का जलस्तर गोपनीय! करोड़ों की श्रद्धा का केन्द्र मां गंगा के साथ खासा खिलवाड़ किया जा रहा है। इसमें कोई व्यवधान न खड़ा हो, इसके लिए सभी संभव सावधानियां बरती जा रही हैं। मां गंगा में कितना जल है, यह भी सीधे नहीं जाना जा सकता। केन्द्रीय जल आयोग के अधिकारियों की माने तो यह अति गोपनीय है। बाढ़ के समय केन्द्र सरकार के आदेश पर ही जलस्तर सार्वजनिक किया जाता है। अन्य मौसम में यह नहीं बताया जा सकता। वैसे इस गोपनीयता के बीच आंकड़ों के साथ कितना खिलवाड़ हो रहा है. कुल मिला जुला कर हमे स्वच्छ जल देने का संकल्प ले कर प्रवाहित नदियॉ आज स्वयं के अस्तित्व से जूझते हुये जीवन के लिये संघर्ष कर रही है परंतु हम अभी भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत मे सिर झुकाये समस्या से जानबूझ कर अनभिग्य बन रहे है. सरकार के ऐजेण्डे मे नदियो के तट पर रहने वाले उसके मतदाता तो है पर नदियॉ नही. पर आज विचारऩीय तथ्य यह है कि जब वदियॉ नही होगीं तो नदितट पर रहने वाले लोग और नदि जल पर जीने वाले लोग कहॉ होगें.
(लेखक हमारी वरूणा अभियान के संयोजक हैं यह संबोधन नई दिल्ली मे आयोजित वर्ष 2005 मे मृतप्राय हो रही ऩदियो पर एसियाई सम्मेलन मे श्री व्योमेश चित्रवंश द्वारा दिया गया था. जिसके पश्चात उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वरूणा कारिडोर के लिये कार्ययोजना बनाने की पहल की गई )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें