मेरी व्यक्तिगत पीड़ा
(पिछले कई महीनो से नेट के मोहजाल ने मेरे पढ़ने के वक्त पर डाका डाल रखा है। चाह के भी नही पढ़ पाता हूँ अपनी पसंदीदा किताबों को, वे पड़ी रहती है कई कई दिन मेरे पढ़ने की मेज पर। जब भी उन पर निगाह पड़ती है तभी मोबाईल मे बजती घंटियॉ व आभाषी दुनिया के नोटिफिकेसन मेरा ध्यान खींच लेते है, और मेज पर पड़ी हुई किताबे कई दिनो तक इंतजारी के बाद फिर से आलमारी मे चली जाती हैं।
आज किताबो पर विचार करते समय बरबस ही गुलजार साहब की कविता याद आ गई, जो आज मेरी अपनी पीड़ा है।)
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं.......
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं !
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं,
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्प्यूटर के पर्दों पर,
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें,
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है !
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं,
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है !
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं,
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते !
जबां पर जो ज़ायका आता था सफ़ा पलटने का,
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है !
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है,
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर,
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से !
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी,
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्के,
किताबें मँगाने, गिरने-उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा..............
वो शायद अब नहीं होंगे !!
- गुलज़ार
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