यूँ ही चर्चा करते करते अक्टूबर का महीना आ चुका था। हम लोगो के साथ कुछेक मित्र भी जुड़ने लगे थे। सबसे पहला सहयोग हमे हम लोगो के बड़े भाई उदय प्रताप इण्टर कालेज वाराणसी के भूगोल के प्रवक्ता व एनसीसी अधिकारी डॉ० अरविंद कुमार सिंह व दूरदर्शन भदोही के संवाददाता हमारे पत्रकार मित्र संजय श्रीवास्तव का मिला । इन दोनो व्यक्तियों ने हमारी पूरी समस्या, यात्रा वृतान्तव समाधान पर हमारा दृष्टिकोण सब ध्यान से सुनने के साथ एक कार्य योजना बनाने पर बल दिया। वैचारिक सहयोगी के रूप मे हमारे मित्र गण हमसे जुड़ते जा रहे थे पर हमारे पास संसाधनो के नाम पर कुछ भी नही थी।अगर साथ मे पूँजी थी तो मित्रों का हमारे प्रति विश्वास की, शक्ति थी तो हमारी संकल्प शक्ति की और विश्वास था कि हम बनारस की जीवनदायिनी रही मॉ वरूणा के लिये कुछ अवश्य करेगें। हम रोज शाम टहलते हुये वरूणा तट पर आ जाते थे। वकालत की शुरूआत थी तो मुवक्किल व चैम्बर का झंझट भी कम ही था। यदि किसी ने मिलने के लिये कहा भी तो उसे वरूणा तट शास्त्री घाट पर ही बुला लिया। मिलने जुलने वालो मित्रों को भी वह स्थान पता था तो वे भी वही आ जाते थे और हम अनायास ही घाट किनारे देर तक बैठे रहते। आपस मे योजनाये बनाते । नये लोगो को अपने बातो विचारो से अवगत कराते । और जाने अनजाने रोज दो चार की संख्या मे अपने सहयोगी व समर्थको का ईजाफा करते।
इसी दौरान एक महत्वपूर्ण घटना हुई जिसने हमारे विचारो को एक झटके के साथ ही धरातल पर ला दिया । हुआ यूँ कि नवरात्रि समाप्त हुआ था। लोग अपने घरों मे रखे कलस, पूजन सामग्री, फूलमाला एवं पूजन सामग्री के अवशेष बड़े बड़े पालिथीन पैकेटो मे भर कर लाते और मॉ वरूणा को प्रणाम कर पूरा पूजन अवशेष पालिथीन सहित ही नदी मे फेंक देते। शाम को हमारे रहने के दौरान हमने लोगो ने किसी को प्यार से किसी को मनुहार से हाथ जोड़ कर ऐसा करने से रोकते हुये उनकी श्रद्धा को प्रणाम करने के साथ पालिथीन न फेकते हुये सामग्री को पालिथीन से बाहर निकाल कर एक किनारे रखने का अनुऱोध प्रारंभ किया। ज्यादातर लोग हमारी बातो से सहमत होते थे। कुछेक बहस भी करते थे। कुछ मन मे गाली देते हुये चले जाते थे पर हमने अपना प्रयास जारी रखा। ऐसे ही एक सॉझ पुराने वाले पुल पर एक कार खड़ी कर दो सज्जन उतरे और डिग्गी खोल दो बड़ी प्लास्टिक की बोरी निकाल कर नदी मे फेकने की मंसा से बढ़े ही थे कि सूर्यभान ने उन्हे टोंकते हुये अवशिष्ट सामग्री को बोरी से बाहर निकाल कर फेकने के लिये कहा , इस पर वो दोनो व्यक्ति उग्र हो गये और उन्होने सूर्यभान के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया। फिर सूर्यभान की भी ठकुरैती जगी और उन्होने सीधे चैलेंज किया कि अब मेरे रहते आप इस बोरी को वरूणा मे ऩही फेक सकते। बात बढ़ गई और गुस्से मे सूर्यभान ने कहा कि यह मेरी वरूणा मॉ है मै यहॉ अपने उपस्थिति मे मॉ का ऑचल नही गंदा करने दूगॉ। हम लोगो के दबाव व सूर्यभान के गुस्से के चलते वे दोनो लोग नदी मे बिना अवशिष्ट डाले ही चले गये पर सूर्यभान का गुस्सा शांत नही हुआ था। हम सब नीचे आये और एकाएक सूर्यभान वरूणा मे एकदम तीन चार कदम अंदर घुस कर वरूणा जल हाथ मे ले कर यह कसम खा बैठे कि आज से मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य वरूणा पुनरूद्धार व इसे पुनर्जीवित करना होगा।
सूर्यभान के प्रण के साथ ही यह तय हुआ कि अब यह लड़ाई वैचारिक न होकर वास्तविक धरातल पर चलने चाहिये।
इसी समय हमारी मुलाकात उदय प्रताप कालेज के तत्कालीन कृषि छात्र अशोक कुमार पाण्डेय व दिनेश सिंह के माध्यम से डॉ० कुलदीप सिंह जी से हुई। डॉ० कुलदीप सिंह यूपी कालेज मे असिस्टेंट प्रोफेसर है । उम्र मे हमसे छोटे कुलदीप भाई ने पूरा बात सुनते ही कहा कि भैया अपनो व जीवजन्तुओ के लिये तो सब बहुत करते है पर नदी तालाब पेड़ के लिये कुछ करना ज्यादा जरूरी है क्योकि ये हमे जीवन तत्व हमेसा देते है चलिये हम लोग श्रमदान करते है। दूसरो के लिये नही कम से कम हमे तो इस बात का संतोष रहेगा कि हमने अपने हिस्से का एक छोटा प्रयास वरूणा के लिये किया। और उसके अगले रविवार से वरूणा तट पर श्रमदान प्रारंभ हुआ।
(क्रमश:)
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अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
शनिवार, 14 मई 2016
हमारी वरूणा अभियान: दिल मे आवाज एक उठी थी कभी (२)
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