मेरे ऊपर गुरूजी की कृपा रही कि उन्होने मुझ अकिंचन को धर्मवाणी की भूमिका लिखने का उत्तरदायित्व दिया।
मानुष भज ले गुरू चरणम्.......
दुस्तर भव सागर तरणम..........
सद्गुरू श्री राजेन्द्र ऋषि जी (दास अनामी पुरूष) से मेरा प्रथम साक्षात्कार वर्ष 2006 के सितम्बर महीने में हुआ था। बड़े भाई वरिष्ठ पत्रकार कमल नयन मधुकर जी के साथ मैं गुरूजी के विषय में जानकर मिलने उनके तत्कालीन रानीपुर आवास पर गया था। यूँ तो पूर्व में मेरे अग्रज मित्र प्रो० संजय सिंह (समाज कार्य संकाय, महत्मा गाॅधी काशी विद्यापीठ) एवं वरिष्ठ पत्रकार डाॅ० सुमन राव ने भी मुझसे सद्गुरू जी से भेंट की चर्चा किया था पर दैवयोग से वह भेंट सम्भव नहीं हो पाया था। श्री मधुकर जी के साथ मैं रानीपुर स्थित आश्रम पर गया पर वहाॅ मेरे मन में बसे आश्रय जैसी कोई छवि नही दिखी। सामान्य साफ सुथरा सादगी पूर्ण आवास, एक कक्ष में दो तीन लोग बैठे बेहद अपनेपन से कल के क्रिकेट मैच पर चर्चा करते हुए। हम और मधुकर जी भी वहीं पहुॅच कर सबको औपचारिक अभिवादन कर बैठ गये और क्रिकेट चर्चा में सम्मिलित हो गये। क्रिकेट चर्चा कब राजनीति से होते हुए समाज और वर्तमान परिवेश पर आ गयी, पता नही चला। इस चर्चा में वक्त के दो घण्टे भी बीत गये, यह भी नही पता चला, फिर हम और मधुकर जी सबको प्रणाम कर वहाॅ से चले आये। लौटते समय रास्ते में मैंने मधुकर जी से पूछा कि ‘‘गुरू जी नही थे क्या? उनसे भेंट हो गयी होती तो अच्छा रहता?’’ और मधुकर जी ने जो उत्तर दिया वह मेरे लिए आश्चर्यजनक ही नही अविश्वसनीय था। उन्होंने बताया, ‘‘अरे! वह गुरू जी ही तो थे, जो तुम्हें खुद उठकर अपने से चाय का कप पकड़ाये थे।’’ आज के दिखावेपूर्ण माहौल में इतनी सरलता? न कोई आडम्बर, न कोई साधु सन्तों वाला विशेष ताना बाना, न भगवा, पीला काला रंग, न कोई विशेष चयनित बैठने के लिए स्थान? क्या आज के समय में ऐसे भी गुरू हो सकते है? मैं बार-बार स्वयं से यह प्रश्न पूछकर और विस्मित होता जाता। रात में सोते समय भी मैं आश्रम रूपी आवास के उस अनुभव और भावदृश्य को स्वयं से अलग नहीं कर पा रहा था। हम लोग के साथ बैठे सफेद कुर्ते पायजामें में क्रिकेट पर चर्चा करते हुए गुरू जी। मुझे स्वयं उठ कर चाय का कप पकड़ाते हुए गुरू जी और कहीं से भी अपने को विशेष प्रदर्शित करने का आडम्बर न पालते हुए अतिशय सामान्य व्यक्ति जैसे आचरण करते हुए सरल स्वभाव वाले गुरू जी। एक ओर मुझे बार-बार उनकी सरलता अपने ओर आकर्षित करते हुए एक मूक आमन्त्रण दे रही थी तो दूसरी ओर मेरे पूर्वाग्रहों की धारणा उनके सरल स्वभाव व सामान्य आचरण को देखते हुए गुरूत्वता के प्रति संशय उपजा रही थी। पर मन में कहीं से यह बार-बार उठ रहे थे कि यही वह पड़ाव है जहाॅ पहुॅचने के लिए मेरा मन जाने कब से व्याकुल था। इसके पूर्व कभी भी किसी व्यक्ति के गुरूत्वता के प्रति मैं कभी इतना आकर्षित नही हुआ था। हालांकि प्रभावित करने का प्रयास बहुत से गुरू कहलाने वालों ने किया पर मैं प्रारब्धबश हरबार उनके प्रयासों से छूट गया था। आश्रम से लौटने के बाद दो तीन दिन तक एक कसमकस, उहापोह, बेचैनी जैसी मन पर छायी रही। गोस्वामी तुलसीदास के बचन-‘गुरू बिन भव निध तरई न कोई। जौ विरंचि संकर सम होई। संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु बाता।’ के बीच झूलते हुए मैं स्वयं को अन्ततः रोक नहीं सका और दो दिन बाद मधुकर जी से गुरू जी से भेंट करने की प्रक्रिया पूछी, तो वे फिर हॅस पड़े। ‘‘अरे कोई अपायमेण्ट वगैरह नही। सुबह 9 से 12 बजे दिन के बीच कभी भी चले आओ। तुम्हें गुरूजी का सानिध्य मिल जायेगा।’’ मैं क्या अकेले डायरेक्ट जा सकता हॅू। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि ‘‘बिलकुल और गुरू कृपा तो डायरेक्ट ही होती है उसके लिए किसी माध्यम की आवश्यकता थोड़े ही पड़ती है फिर अपने गुरू जी के यहाॅ कोई दिखावा, रोक टोक नही है। तुम खुद जाकर देखों अच्छा लगेगा।’’
संयोगबश अगले दिन दूसरे शनिवार को अवकाश था तो हम अपने मित्र सूर्यभान को लेकर चल दिये रानीपुर स्थित ‘प्रकृति पुरूष सिद्धपीठ सूरत शब्द योग मार्ग अनुयायी आश्रम’। मधुकर जी के बताने के बाद भी मन में संशय था और गुरू जी के प्रति आकर्षण और उत्सुकता थी। जब हम लोग आश्रम पहुॅच कर घण्टी बजाये तो स्वयं गुरू जी ही दरवाजा खोलते हुए स्वागत किये। ‘‘आइये, आइये।’’ जैसा कि बहुत पूर्व से परिचय हो। एकदम सहज भाव से बेहद अपनापन। हम बातें करते रहे कहीं से कोई पूर्वधारणा नहीं, सहज, सरल जैसे बहुत-बहुत सालों से परिचय हो, सालों से ही नही जनमों से। घर परिवार की आपसी बातें, मन मिजाज की बातें। अपनी और उनकी बातें। यही वह मुलाकात थी जिसमें हम उनके मुरीद हो गये। यही हाल सूर्यभान का भी था। फिर मुलाकातों के इस सिलसिले ने कब हमलोगों को गुरूजी के बेहद करीबी लोगों में शामिल कर लिया, हमें पता नही चला। तब से आज तक मन में जब कोई भी कोई अकुलाहट होती है तो हम सीधे गुरूजी के पास चले जाते है और उनके सानिध्य में बैठे हमारी सारी समस्याओं का हल मिल जाता है। प्रायः ऐसा होता है कि यदि हम किसी परेशानी में है या समस्याग्रस्त है तभी गुरू जी का फोन आ जाता है कि ‘‘सत्यनाम डाक्टर साहब। कैसे है? सब कुशल से है न?’’ यह एक नहीं कईबार, कई लोगों के साथ हुआ है जिन्होंने गुरू जी के प्रेम व संरक्षण को टेलीपैथी द्वारा महसूस किया है।
श्रद्धेय सद्गुरू दास अनामी पुरूष पूज्य राजेन्द्र ऋषि का जन्म सन 1964 में लखनऊ में हुआ था। पिता जी सैन्य अधिकारी थे तो उनके नियुक्ति व पदस्थापन के विभिन्न स्थानों पर आपकी शिक्षा दीक्षा हुई। बुन्देल खण्ड विश्वविद्यालय झाॅसी से अर्थशास्त्र में स्नात्कोत्तर उपाधि लेने के पश्चात दिल्ली की एक कम्पनी में मैनेजर हो गये। पर नीयति ने परमसत्ता ईश्वर के माध्यम नियुक्त करने हेतु सम्भवतः आपको पहले ही चयनित कर लिया था तो एक दिन नौकरी छोड़ ईश्वर आराधना व सत्य की खोज में निकल पड़े। लगभग चैदह वर्षो तक सन्त महात्माओं के सानिध्य में आध्यात्म की उच्च साधना करते हुए उन्होंने ईश्वर व सत्य का अन्वेषण जारी रखा। आध्यात्मिक साधना के संग ज्योतिष, कर्मकाण्ड के वैज्ञानिक पक्ष आयुर्वेद, मन्त्र-तन्त्र पर गहन एकाकी शोध करते हुए परमसत्ता के संकेत व अपने गुरूजनों के निर्देशों पर लोकहितार्थ सेवा का निर्णय लेकर 20 जनवरी 1991 को सूरत शब्द योगमार्ग आश्रम प्रकृति पुरूष सिद्धपीठ की स्थापना की। वर्तमान में वाराणसी के परमकल्याण मय पंचक्रोशी यात्रा के प्रथम पड़ाव कर्मदेश्वर महादेव मन्दिर कन्दवा से आधा किमी पश्चिम में घमहापुर में स्थित आश्रम रूपी आवास में साधनारत रहते हुए पूज्यवर भारतीय प्राच्य विद्याओं पर वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधानरत है। गुरूजी का जीवन बिना किसी आडम्बर दिखावा और अहंकार, महत्त्वाकांक्षा से मुक्त एकदम सामान्य गृहस्थ का है। उनकी बातें बेहद व्यवहारिक एवं सर्वसहज होती है जो जीवनचर्या, आचरण एवं कर्मो से जुड़ी हुई होने के साथ परिलक्षित भी होती है।
इस संकलन के निर्माण नींव में छुपी हुई एक घटना को उल्लिखित करने से स्वयं को रोक नही पा रहा हॅू। गुलाबी जाड़े के फरवरी महीने के एक शाम हम हमारे साथ मित्र सूर्यभान सिंह एवं गुरूजी तब के तत्कालीन आवास आश्रम रानीपुर महमूरगंज में बैठे हुए जीवनचर्या पर चर्चा कर रहे थे। यॅू तो गुरू जी से मिलने का समय प्रातः 8.00 बजे से दोपहर 2.00 बजे तक है परन्तु हम लोगों की धृष्ठता को सदैव क्षमा करने वाले गुरू जी दिन भर आध्यात्मिक परामर्श देकर थके होने के बावजूद हम लोगों के साथ उर्जा व स्नेह से भरे हुए वार्ता में व्यस्त थे। संयोगवश उस समय पूरे मकान में हम तीन जन के अतिरिक्त अन्य कोई भी उपस्थित नही था। गुरू जी अन्धविश्वास एवं कल्पित भ्रम के सम्बन्ध में उठी शंका के निर्मूल होने के वैज्ञानिक व व्यवहारिक पक्ष हमें बता रहे थे और हम दोनों जब अपने अल्प बुद्धि एवं विवेक से उसे समझने का प्रयास कर रहे थे। लगभग पौना-एक घण्टे के पश्चात पूरा कमरा ताजे गुलाब के तीब्र सुगन्ध से महक उठा। हम और सूर्यभान सिंह उस तीक्ष्ण व तीब्र सुगन्ध से आश्चर्यचकित थे पर गुरूजी उसी शान्त भाव से अपनी बात जारी रखे हुए थे। हम लोगों के चेहरे पर आश्चर्य भाव देख कर उन्होंने बहुत ही शान्त भाव से कहा कि ‘‘कुछ और लोग जो इस विषय पर जानने को इच्छुक है वही आये है क्योंकि यह जिज्ञासा व समाधान का उनका विशेष निर्धारित समय है।’’ दो बार और इसी तरह शाम के समय गुरूजी के सानिध्य में बैठे हुए हम लोगों ने कुछेक सूक्ष्म अभौतिक उपस्थिति महसूस किया है। ऐसे में हर मौके पर प्रायः मेरे साथ सूर्यभान जी रहे है और उनका भी अनुभव ऐसा ही रहा। सायं सामान्य परामर्श से इतर विशेष सूक्ष्म शरीरधारी अभौतिकजनों की इस विशेष चर्चा में गुरूजी सम्पूर्ण तथ्य का सार अनगढ़ी सी चार पंक्तियों में कर देते है। हम बहुत दिनों से गुरूजी से इन अनगढ़ी सार अभिव्यक्तियों को संकलित कर प्रकाशित करने के लिए कहते रहे पर गुरू जी व्यस्ततावश हाॅ, हॅू कहकर टालते रहे। इस वर्ष जब कोरौना के महामारी के चलते पूरी तरह लाॅकडाउन में आध्यात्मिक समाधान लोकहित व्यक्तिगत परामर्श एवं सत्संग से गुरूजी को समय मिला तो हम पुनः इस संकलन के लिए बार-बार अनुरोध करने लगे। जिसका परिणाम परम पूज्य गुरूजी के कृपा से यह सार संकलन अपने साकार रूप में प्रस्तुत है। इसमें आध्यात्मिक जीवन, जीवनचर्या, व्यवहार, प्रकृति संस्कार से जुड़े गुढ़े तत्व सामान्य भाषा में कहे गये है जो आज के लिए हम सब के व्यवहारिक जीवन में आवश्यक है।
सूरत शब्द योगमार्ग अनुयायी आश्रम प्रकृति पुरूष सिद्धपीठ सद्गुरू श्री राजेन्द्र ऋषि जी का लगाया हुआ छोटा-सा पौधा है। इसे बड़ा और छायादार वह वृक्ष बनने में अभी समय लगेगा। आश्रम का उद्देश्य अध्यात्म व ज्योतिष विद्या के जरिये गरीब से अमीर तक सभी लोगों को लाभ पहुॅचाना है। हमारी बहुत पवित्र व महान योजना सबके लिए उपयोगी एक आध्यात्मिक ढंग का वृद्धाश्रम, जड़ी बूटी पर आधारित प्राकृतिक चिकित्सालय तथा मानव जाति को सम्मान देने के लिए मानव मन्दिर की स्थापना करने की है। हम इस मकान कार्य में आप सभी का सहयोग चाहते हैं। इस आश्रम का विकास बहुत धीमी गति से परन्तु ठोस रूप में हुआ है। आश्रम के भौतिक विकास पर ध्यान लगाने और उसके लिए गलत साधन अपनाने के बजाय हमने हमेशा ही आध्यात्मिक विकास पर ध्यान दिया जो कि संतमत की परम्परा रही है। जितने भी महान सन्त हुए है-सब आजीवन झोपड़ी में रहे, उन्होंने कोई महल नही बनाया। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा में लगा दिया। मानव सेवा करने के लिए किसी मठ या महल की नही सिर्फ शुद्ध हृदय और परमात्मा के आर्शीवाद की जरूरत पड़ती है। हमारे सुरत शब्द योगमार्ग अनुयायी आश्रम प्रकृति पुरूष सिद्धपीठ आश्रम के आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक सन्त राजेन्द्र ऋषि जी ने एक छोटी सी जगह में रहकर भी हजारों लोगों का भला किया है और सैकड़ों लोगों की आध्यात्मिक उन्नति करायी।
स्व की अनुभूति होने के बाद भी अपने ही आनन्द में लीन रहने वाले स्वार्थी मनुष्य वे नहीं बने और दूसरों के दुःख से द्रवित होकर अपनी मानव सेवा जारी रखी। उन्होंने अपने कर्मो और सेवा से यह सिद्ध किया कि ऋषियों का कार्य ही शोध एवं अनुसंधान करना है, जिससे मानव लौकिक सुख व पारलौकिक आनन्द प्राप्त कर सके। बाहर से देखने पर उनकी इन्द्रियां मानव सेवा में लगी दिखती है, चेहरे पर कहीं कोई तनाव नहीं, भीतर इतना गहन मौन जिसे मापने की क्षमता हममें से किसी में भी नही है। उनकी मानव सेवा और दुःखी को भी हंसाने वाले आनन्द को ही हम देख पाते है। मैं गुरूदेव के लिए बस यही कहॅूगा कि-
सुख है न दुःख है, न है शोक कुछ भी
अजब है ये मस्ती पिया कुछ नहीं है।
हरेक में हॅू आनन्द ये आनन्द है मेरा,
मस्ती ही मस्ती और कुछ नहीं है।।
एक बार किसी ने उनसे कहा कि- आपको तो किसी ब्राह्मण के परिवार में जन्म लेना चाहिए था। गुरूजी ने उत्तर दिया कि -‘‘कर्म से ब्राह्मण होना अधिक सौभाग्य की बात है। मुफ्त में मिली चीज की मनुष्य कद्र नहीं करता है जो जन्म से ब्राह्मण हैं उनमें से कितने ब्रह्म से परिचित है? अपने कर्मो से समाज में वे अपना सम्मान खोते चले जा रहे हैं। जन्म की बजाय कर्म से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है। ’’ किसी भी सन्त का आर्शीवाद उनके परिवार कुल व जाति के लिए ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए गर्व की बात होती है। हमारे देश में ऋषि मुनियों की जो महान परम्परा चली आ रही है। उनमें से अधिकांशतः महान सन्त जन्म से ब्राह्मण नही थे। ईश्वर ने भी राम के रूप में क्षत्रिय के यहाॅ और कृष्ण के रूप में यादव के यहाॅ अवतार लिया। रावण जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी कर्म से निन्दनीय था इसीलिए आज भी बुराई के प्रतीक के रूप में हर वर्ष पुतला दहन होता है। सन्त से जाति नहीं पूछना चाहिए और मन की हीन भावना दूर कर लेनी चाहिए।
सत्य को जानने के लिए वह सत्य की अनुभूति के लिए सन्तों की शरण लेनी चाहिए। मानव जीवन दुर्लभ ही नहीं क्षण भंगुर भी है। सन्त कबीर साहब ने इसी ओर संकेत किया है-
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की बात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यो तारा प्रभात।।
गीता में सद्गुरू भगवान श्रीकृष्ण कहते है- नियतं कुरू कर्म त्वं अर्थात् तू निर्धारित कर्म को कर। निर्धारित कर्म क्या है? यज्ञ करना। कौन सा यज्ञ करना? इन्द्रियों का दमन, मन का शमन और दैवी सम्पदा का अर्जन करना ताकि चित्त का निरोध हो और अन्त में निरोध किये हुए चित्त का भी विलय हो जाये और शाश्वत सनातन ब्रह्म में प्रवेश मिल जाये। सभी महापुरूष आत्मने मोक्षार्थ व जगत हिताय के निमित्त ही संसार में आते हैं। वे तप करके अपनी आत्मा को मोक्ष प्रदान करते हैं। आजीवन अपने विभिन्न लोकल्याणकारी कार्यो द्वारा जगत का हित भी करते हैं। सार रूप में यही हमारे सद् गुरू जी व आश्रम का परिचय है।
(इस कृपा के लिये गूरूजी के चरणों मे सादर प्रणाम करते हुये आह्लादित हूं -व्योमेश)
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