शनिवार, 6 मार्च 2021

यह सड़क मेरे गांव को नही जाती की समीक्षा मित्र सूर्यभान सिंह की लेखनी से

यह सड़क मेरे गांव को नही जाती : बदलते ग्रामीण परिवेश पर व्योमेश चित्रवंश की एक बेहतरीन किताब
          एक लंबे अंतराल के बाद एक किताब पढ़ने को मिली जिसने गांव की यात्रा करवाई,जिसका शीर्षक वाकई एक रहस्य और दर्द को छुपाये हुये है कि सड़क (लेखक के संग ही समस्त पाठकों के) गांव को नही जाती ,जो खुद अपने गांवों से बिछुड़ गये है।आज वो गांव मिल जाने पर भी या यूं कहे दिख जाने पर भी अनजान सा लगता है। हालांकि अब उस गांव के खेत खलिहानों मे अब बैल की जगह ट्रैक्टर  नजर आते हैं। प्राईमरी स्कूल जहां टाटपट्टी  की जगह मेज कुर्सी दिखती है। अवसरविशेष पर लगने वाले मेले  की जगह माल और मल्टी मार्ट ने ले लिया है। गांव के दादा,दादी,बूढ़ी काकी तो अभी भी है पर उनके गोंद मे खेलने वाले वो नाती,पोते और हुड़दंग मचाने वाली बच्चा मण्डली  नजर नही आती ।
        किताब के पन्ने दर पन्ने पलटते हुये गांव मे बिताये गये जीवन के हिस्से किसी एलबम की तस्वीरों की तरह जीवन्त हो उठते है जैसे अपने जीवन का ही कोई चलचित्र चल रहा हो। हर कहनी हर किस्से के अंत मे बहती पुरवईया जैसा महसूस हो रहा है, जिसके कारण पुरानी यादों का दर्द व टीस ऊभर आता है। यह लेखक की सफलता है कि उसने अपने मन की पीड़ा के साथ पाठक के संवेदना को ऊभारा है ,जो कही खो गया था या स्मृति से विलुप्त हो गया था ।
सचमुच आज की सड़क उस गांव को नही जाती जहां भारत गांवों का देश होता था। विडंबना यह है कि शहर तो कंक्रीट के ज़गल बनते जा रहे हैं और सरकर गांव का भौतिक विकास कर रही है भले वह कंक्रीट व कोलतार से ही क्यों न हो, पर यह भी कडुआ सच है कि कंक्रीट व कोलतार वातावरण मे जीने के लिये सांस नही मुहैय्या करा पाते ।
                किताब के किस्से गुदगुदाते हुये हंसाते है और हंसाते हंसाते आँसू  निकाल देते है पर किस्से का अंत होते होते  यही हँसी किस्से मे उठाये गये सवालो के साथ गले को रू़धते हुये सिसकियों मे बदल जाती है । पाठक कुछ कहना चाह कर भी भीगे मन और रोते दिल से कुछ बोल नही पाता । वह खुद से सवाल पूछता है कि उसने इन बीते सालों मे क्या खो दिया? उसका सब कुछ उसके आस पास दिख रहा है गांव भी, मगर हकीकत मे  ये वो गांव नही जो गरीब होने के बावजूद दिल से अमीर था। कमजोर और बदरंग  दिखता था मगर वो  मजबूत और सतरंगी स्वभाव को अपने मे समेटा था जैसा कि लेखक अपनी किताब के भूमिका मे अपनी बात मे ही कह देते हैं। लेखक की बात से मै शत प्रतिशत सहमत हूँ और मै ही नही गांव से रिश्ता रखने वाला हर पाठक सहमत ही होगा। ऐसा मुझे विश्वास है।
लेखक को सौ सौ बार साधुवाद जो पाठक के मनोभावों को उसकी अपनी मन की भाषा के साथ बहुत गहरे तक पकड़ा है और उसे कलमबद्ध किया है। किताब को पढ़ते समय मेरे जेहन मे  किसी शायर की नज्म याद  आती है ," यादों का एक झोंका आया , मिलने हमसे बरसों बाद......"
एक बार पुन: लेखक व्योमेश चित्रवंश जी को बधाई। हमें उम्मीद है कि आने वाले दिनों म उनकी अगली किताब भी हमें जिन्दगी के ऐसे बिछुड़े लम्हों को जोड़ने मे सफल होगी।

-सूर्यभान सिंह

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