साहित्य की अध्यासु मेरी सहपाठी नीति सिन्हा जी द्वारा बेहद गंभीर व हृदय की गहराई से की गई समीक्षा
"यह सड़क मेरे गाँव को नहीं जाती"
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जब पुस्तक का नाम ही ऐसा हो.. तो कहने को कहाँ रह जाता है कुछ... और जब मुखपृष्ठ ही सब बयां कर रहा हो.. तो लगता है कि पढ़ने की भी क्या आवश्यकता....
पर नहीं... पुस्तक पढ़ने के साथ साथ ही विचारों की जो श्रृंखला चली... उसने मेरी लेखनी को चुप ना बैठने दिया...
लेखक ने बिलकुल सही कहा कि यह सड़क मेरे गाँव को नहीं जाती... बल्कि किसी के भी गाँव को नहीं जाती.... फिर जा कहाँ रही है ये सड़क...
क्या गाँव खिसक गये.. ज़मीन खा गई... या आसमान निगल गये उसे...
जानने के लिये इस पुस्तक को पढ़ना पड़ेगा... जिसे लिखा है मेरे पूर्व में सहपाठी रहे _ व्योमेश चित्रवंश ने...
दावा है मेरा कि भले ही "यह सड़क मेरे गाँव को नहीं जाती" पर यह पुस्तक सभी के गाँव से अवश्य ही गुजरेगी...जैसे मेरे गाँव के भी बहुत पास से गुजरी है और कभी खुशी तो कभी ग़म के आँसुओं से सराबोर करती हुई... कभी हँसाती तो कभी आश्चर्य जगाती हुई बचपन यौवन की दहलीज से होते हुए वर्तमान तक का सफर तय करती है पर भविष्य से आँख चुराती सी बचती बचाती खुद भी निकलना चाहती है और हम सबको भी निकालना चाहती है..... पर बीते हुए लम्हों की कसक साथ छोड़ जाती है...
किन किनको पढ़ना चाहिए ये पुस्तक?
1- हमारी पूर्व पीढ़ी_ जो अभी तक ग्रामीण भारत को याद करते हुए आँखों में मायूसी लिए बाट जोह रहे अपने पुराने गाँव को गले लगाने हेतु... ये पुस्तक उन्हें अपने पुराने गाँव अवश्य ले जायेगी... उन्हें उनकी कुछ गलतियों का अहसास भी करायेगी.. पर, उनके मन मयूर को सोंधी मिट्टी की खुशबू संग नाचने को भी मजबूर करेगी...
2- हमारी पीढ़ी- के वो लोग जो कभी न कभी किसी न किसी रूप में गाँव से जुड़े रहे हैं... उन्हें यहाँ अपना अल्हड़ बचपन और यौवन जीने का एक सुनहरा अवसर मिलेगा.... साथ ही मिलेगी एक टीस कि हमने क्या खोया... कहाँ गये हमारे वो संस्कार जो हमें अमीरी के अभाव में भी एक सूत्र में बाँधे रहते थे...घर कचहरी मुकदमेबाजी करते हुए भी एक माला में पिरोये रहते थे और सुख दुःख के अवसरों पर सब भूलकर एक हो जाया करते थे....कहाँ गये हमारे मेहनतकश मदारी, नट नटी, या जादूगर, या हम सबके पसंदीदा बाइस्कोप....और भी बहुत सी मीठी स्मृतियों से गुजरते हुए एक टीस भी मिलेगी...और शायद यही टीस हमें हमारे गाँव की ओर पुनः उन्मुख कर पाये...
3- हमारी अगली पीढ़ी- हमारे बच्चे, हमारा भविष्य जिन्हें हमने गाँव से दूर कर दिया... शहरों की चकाचौंध में घुसा दिया.... या फिर वे बच्चे भी जो अभी भी गाँव में ही रह तो रहे हैं पर उन्हें भी गाँव की दरिद्रता की ही कहानियाँ सुनाकर शहरों की ओर पलायन हेतु मजबूर किया जा रहा...
सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि आधुनिक सहूलियतें नगण्य होते हुए भी ग्रामीण भारत कितना समृद्ध था...
बिना अर्थ के भी जनतंत्र गणतंत्र मनतंत्र फलीभूत हो रहा था वहाँ और इन सबने मिलकर लोकतंत्र को अपनी बाहों में कसकर सँभाला हुआ था....
फिर चूक कहाँ हुई....
4- हमारे नीति नियंता- जी हाँ, ये पुस्तक इन्हें अवश्य ही पढ़नी चाहिए कि नीति निर्माण करते समय पूर्व में जाने अनजाने किन बातों की अनदेखी हो गई.... भ्रष्टाचार ग्रामीण भारत में कैसे घुसा... सहज सरल समझे जाने वाले ग्रामीण कुटिल चालें कहाँ से सीखने लगे.. किसी भी योजना का असर गाँवों के विकास में नज़र क्यों नहीं आया... पलायन क्योंकर होने लगा...अर्थतंत्र हर तंत्र पर हावी कैसे हो गया...और ग्रामीण भारत में सुराज का सपना कैसे धराशायी हो गया....
विकास कभी भी ऊपर से नीचे नहीं होता जबकि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर ही दौड़ता है....
पर स्वतंत्र भारत ने सर्वप्रथम महानगरों के विकास पर ध्यान दिया... फिर नगरों, शहरों पर और अन्तिम पायदान पर गाँवो को रखा गया....
परिणाम हम सबके सामने ही है... जितनी भी योजनाये लाई गई... गाँव बद से बदतर ही होते चले गये...
आज ग्रामीण भारत के विकास की जो बातें की जा रही हैं... नई तकनीक और ज्ञान विज्ञान गाँव में पहुँचाने हेतु योजनायें बन रहीं... क्या सच में ही ग्रामीण भारत का अभ्युदय काल माना जायेगा या हमारे गाँव पिछड़े शहरों की कतारों में खड़े हो जायेंगे...
सोचना होगा...
यह पुस्तक शायद नीति नियंताओं का कुछ मार्गदर्शन कर पाये....
लेखक से क्षमाप्रार्थना-
यूँ तो जैसे ही आपने फेसबुक पर इस पुस्तक का लिंक साझा किया, मुझे ये पुस्तक मँगा ही लेना चाहिए था... पर, मेरी गन्दी आदतों में शुमार है कि यदि कोई पुस्तक मेरे हाथों में आये तो पूरा पढ़े बिना उठने का मन ही नहीं होता... तो खामियाजा ये भुगतना पड़ता कि घर के बाकी कर्तव्यों की इतिश्री होने लगती... सो मैंने पुस्तक मँगाना और पढ़ना दोनों ही बन्द कर दिया...
बस इसी वजह से यह पुस्तक भी नज़र अंदाज हो गई हालांकि इसका मुख पृष्ठ और उससे भी बढ़कर शीर्षक मुझे बार बार आकर्षित कर रहा था...
और जब आपने व्हाट्सएप पर पीडीएफ ही उपलब्ध करा दिया तो पढ़े बिना कैसे रोक पाती खुद को... पर न चाहते हुए भी बीच बीच में मुझे उठना ही पडा ... कल ही अपना पाठक धर्म पूरा कर पाई हूँ...
हर अध्याय के अन्तिम पैराग्राफ की तरह ही अन्तिम पृष्ठ भी आँखों को भिंगो रहा था और जैसे खुद से बिछड़ जाने का अहसास करा रहा था...
पर अब साथ छोड़ने वाली नहीं मै... एक बार फिर से लिंक साझा कर दीजिए... अब यह मेरी संग्रहणीय पुस्तकों में शामिल हो जायेगी...
अपने नाम के अनुरूप आकाश के गुण लिये साक्षी भाव से धरती की पड़ताल करने वाले लेखक को बहुत बहुत साधुवाद....
हाँ... "यह सड़क मेरे गाँव को नहीं जाती".... पर गाँव को मेरी यादों में बसा जाती है...
एक अच्छी कृति हेतु हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनाएँ....
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