रविवार, 20 मई 2018

व्योमवार्ता : बाबूजी की आत्मा को शांति, व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 17मई 2018

बाबूजी की आत्मा को शांति (आज के सच की त्रासद कहानी ) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी,17 मई 2018,गुरूवार
         आज हम मानव विकास के उच्चतम स्तर तक पहुँच गये है जो सदैव कल्पनातीत रहा. हर हाथ मे दूर देश मे बैठे अपनो से क्षण भर मे विडियो कालिंग, पूरी दुनिया का ग्यान नेट पर उंगलियों मे, चॉद को लॉघ कर मंगल तक पहुँच चुके हमारे खोजी यान और शब्दभेदी अस्त्र वाले हमारे गाईडेड सटीक मिसाईल. पर इन सारी विकास की हदों मे हम ने अपने संस्कारो को जितना अधोगति होते देखा वह भी अकल्पनीय है, पैसे के लिये मॉ बाप की हत्या, भौतिक विकास के अंधी दौड़ मे तेजी से पीछे छुटते रिश्ते, न्यूक्लियस फैमिली के स्व वाले अवधारणा मे बोझ बनते मॉ बाप, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम के प्रति नमित देश मे तेजी से आवश्यकता बनते जा रहे बृद्धाश्रम. कभी कभी यह प्रश्न मन को विचलित कर देता है कि हम विकास के सोपान पर बढ़ते हुये अपना संस्कारिक विनाश का रास्ता तो नही तय कर रहे हैं. यह कटु सत्य है कि आज की युवा पीढ़ी अपने मॉ बाप से पुश्तैनी धन संपदा, जेवर, नगद अपना अधिकार समझ कर लेना तो चाहती है पर कर्तव्य और सेवा के नाम पर  वह अपनी व्यस्तता, घर मे शांति और जरूरत के नाम पर मुँह मोड़ रही है. यह एक कटु सत्य है, कल एक मित्र अपने एक परिचिता के साथ हुई घटना का जिक्र कर भावुक हो गये, उनके भर्राये गले से निकलती व्यथा हमे भी काफी देर तक सालती रही, पर यह आज का सच है, काश विकास के इस दौर मे हम अपने मन की भावनाओं को भी बस थोड़ा सा विस्तार दे पाते. मित्र के जाने के बाद भी बहुत देर तक मन अस्थिर बना रहा. फिर लगा शायद औरों से सॉझा कर मन को थोड़ा सा सूकून मिल जाये. मित्र के परिचिता होने के वजह से इस असली कहानी मे पात्रों के नाम को वास्तविक रूप मे लिखने का साहस नही जुटा पा रहा हूँ, पर यह कहानी हम सब के घरों की हमारे आस पास की हमारे मित्रों रिश्तेदारों परिचितो की हो सकती है. घटना या कहानी की सहमति असहमति से आपकी भावनाये यदि कहीं से आहत होती हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ.
               मनीषा काम निपटा कर बैठी ही थी की फोन की घंटी बजने लगी। पापा के शहर से बिन्दू चाची का फोन था ,”बिटिया अपने बाबू जी को आकर ले जाओ यहां से। बीमार रहने लगे है , बहुत कमजोर हो गए हैं। हम भी कोई जवान तो हो नहीं रहें है,अब उनका करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। वैसे भी आखिरी समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहिए।”
मनीषा बोली,”ठीक है चाची जी इस रविवार को आतें हैं, बाबू जी को हम दिल्ली ले आएंगे।” फिर इधर उधर की बातें करके फोन काट दिया।
बाबूजी तीन भाई है , पुश्तैनी मकान है तीनों वहीं रहते हैं। मनीषा और उसका छोटा भाई मनीष दिल्ली में रहते हैं अपने अपने परिवार के साथ। तीन चार साल पहले मनीष को फ्लैट खरीदने की लिए पैसे की आवश्यकता पड़ी तो बाबूजी ने पुस्तैनी भाईयों से मकान के अपने एक तिहाई हिस्से का पैसा लेकर मनीष को दे दिया था, कुछ खाने पहनने के लिए अपने लायक रखकर। दिल्ली आना नहीं चाहते थे इसलिए भाईयों से कह कर अपने लिये एक छोटा सा कमरा मॉग लिया था जब तक जीवित थे तब तक के लिए। मनीषा को लगता था कि अम्मा के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए होंगे बाबूजी लेकिन वहां पुराने परिचितों के बीच उनका मन लगता था। दोनों चाचियां भी ध्यान रखती थी। दिल्ली में दोनों भाई बहन की गृहस्थी भी मज़े से चल रही थी।
रविवार को मनीषा व मनीष का ही कार्यक्रम बन पाया बाबूजी के शहर जाने का। मनीषा के पति अानंद एक व्यस्त डाक्टर माने हुये सर्जन है, महीने की लाखों की कमाई है उनका इस तरह से छुट्टी लेकर निकलना बहुत मुश्किल है, मरीजों की बीमारी न रविवार देखती है न सोमवार कब आपरेशन के लिये सर्जरी करना पड़े। सबसे बड़ी बात यह कि सर्जरी की तात्कालिक जरूरत मुंहमागॉ फीस वाली रकम दिलाता है.  उधर मनीष सीपीडब्लूडी मे इंजीनियर है, उस की पत्नी रूबी की अपनी जिंदगी है उच्च वर्गीय परिवारों में, शहर के माने हुये क्लबों में उठना बैठना है उसका , इस तरह के छोटे मोटे पारिवारिक पचड़ों में पड़ना उसे पसंद नहीं।
रास्ते भर मनीषा को लगा मनीष कुछ अनमना , गुमसुम सा बैठा है। वह बोली,”इतना परेशान मत हो, ऐसी कोई चिंता की बात नहीं है, उम्र हो रही है, थोड़े कमजोर हो गए हैं ठीक हो जाएंगे।”
मनीष झींकते हुए बोला,”अच्छा खासा चल रहा था,पता नहीं चाचाजी को एेसी क्या मुसीबत आ गई दो चार साल और रख लेते तो। सब स्वार्थी है, उस समय बाबूजी को बहला फुसला कर तब कितने कम पैसों में अपने नाम करवा लिया तीसरा हिस्सा, अब देखो वही हिस्सा करोड़ो का हो गया।”
मनीषा शान्त करने की मन्शा से बोली,”ठीक है न उस समय जितने भाव थे बाजार में उस हिसाब से दे दिए। और बाबूजी आखरी समय अपने बच्चों के बीच बिताएंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।”
मनीष उत्तेजित हो गया , बोला,”दीदी तेरे लिए यह सब कहना बहुत आसान है। तीन कमरों के फ्लैट में कहां रखूंगा उन्हें। रूबी से किचकिच लगी रहेगी सो अलग, उसने तो साफ़ मना कर दिया है वह बाबूजी का कोई काम नहीं करेंगी | वैसे तो दीदी लड़कियां हक़ मांग ने तो बडी जल्दी खड़ी हो जाती हैं , करने के नाम पर क्यों पीछे हट जाती है। आज कल लड़कियों की शिक्षा और शादी के समय में अच्छा खासा खर्च हो जाता है।तू क्यों नहीं ले जाती बाबूजी को अपने घर, इतनी बड़ी कोठी है ,जीजाजी की लाखों की कमाई है?”
मनीषा को मनीष का इस तरह बोलना ठीक नहीं लगा। पैसे लेते हुए कैसे वादा कर रहा था बाबूजी से,”आपको किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो आप निसंकोच फोन कर देना मैं तुरंत लेकर आ जाऊंगा। बस इस समय हाथ थोड़ा तंग है।” नाममात्र पैसे छोडे थे बाबूजी के पास, और फिर कभी फटका भी नहीं उनकी सुध लेने।
मनीषा :”तू चिंता मत कर मैं ले जाऊंगी बाबूजी को अपने घर।” सही है उसे क्या परेशानी, इतना बड़ा घर फिर पति रात दिन मरीजों की सेवा करते है, एक पिता तुल्य ससुर को आश्रय तो दे ही सकते हैं।
बाबूजी को देख कर उसकी आंखें भर आईं। इतने दुबले और बेबस दिख रहे थे,गले लगते हुए बोली,”पहले फोन करवा देते पहले लेने आ जाती।” बाबूजी बोलें,” तुम्हारी अपनी जिंदगी है क्या परेशान करता। वैसे भी दिल्ली में बिल्कुल तुम लोगों पर आश्रित हो जाऊंगा।”
रात को डाक्टर साहब बहुत देर से आएं,तब तक पिता और बच्चे सो चुके थे। खाना खाने के बाद सुकून से बैठते हुएं मनीषा ने डाक्टर साहब से कहा,” बाबूजी को मैं यहां ले आईं हूं। मनीष का घर बहुत छोटा है, उसे उन्हें रखने में थोड़ी परेशानी होती।” आनंद के एक दम तेवर बदल गए,वह सख्त लहजे में बोला,” यहां ले आईं हूं से क्या मतलब है तुम्हारा? तुम्हारे पिताजी तुम्हारे भाई की जिम्मेदारी है। मैंने बड़ा घर वृद्धाश्रम खोलने के लिए नहीं लिया था , अपने रहने के लिए लिया है। जायदाद के पैसे हड़पते हुए नहीं सोचा था साले साहब ने कि पिता की करनी भी पड़ेगी। रात दिन मेहनत करके पैसा कमाता हूं फालतू लुटाने के लिए नहीं है मेरे पास।”
पति के इस रूप से अनभिज्ञ थी मनीषा। “रात दिन मरीजों की सेवा करते हो मेरे पिता के लिए क्या आपके घर और दिल में इतना सा स्थान भी नहीं है।”
अानंद के चेहरे की नसें तनीं हुईं थीं,वह लगभग चीखते हुए बोला,” मरीज़ बीमार पड़ता है पैसे देता है ठीक होने के लिए, मैं इलाज करता हूं पैसे लेता हूं। यह व्यापारिक समझोता है इसमें सेवा जैसा कुछ नहीं है।यह मेरा काम है मेरी रोजी-रोटी है। बेहतर होगा तुम एक दो दिन में अपने पिता को मनीष के घर छोड़ आओ।”
मनीषा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जिस पति की वह इतनी इज्जत करती है वें ऐसा बोल सकते हैं। क्यों उसने अपने भाई और पति पर इतना विश्वास किया? क्यों उसने शुरू से ही एक एक पैसा का हिसाब नहीं रखा? वो खुद अच्छी खासी नौकरी करती थी , पहले पुत्र के जन्म पर अानंद ने यह कह कर छुड़वा दी कि मैं इतना कमाता हूं तुम्हें नौकरी करने की क्या आवश्यकता है। तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी आराम से घर रहकर बच्चों की देखभाल करो।
आज अगर नौकरी कर रही होती तो अलग से कुछ पैसे होते उसके पास या दस साल से घर में सारा दिन काम करने के बदले में पैसे की मांग करती तो इतने तो हो ही जाते की पिता जी की देखभाल अपने दम पर कर पाती। कहने को तो हर महीने बैंक में उसके नाम के खाते में पैसे जमा होते हैं लेकिन उन्हें खर्च करने की बिना पूछे उसे इजाज़त नहीं थी।भाई से भी मन कर रहा था कह दे शादी में जो खर्च हुआ था वह निकाल कर जो बचता है उसका आधा आधा कर दे।कम से कम पिता इज्जत से तो जी पाएंगे। पति और भाई दोनों को पंक्ति में खड़ा कर के बहुत से सवाल करने का मन कर रहा था, जानती थी जवाब कुछ न कुछ तो अवश्य होंगे। लेकिन इन सवाल जवाब में रिश्तों की परतें दर परतें उखड़ जाएंगी और जो नग्नता सामने आएगी उसके बाद रिश्ते ढोने मुश्किल हो जाएंगे। सामने तस्वीर में से झांकती दो जोड़ी आंखें जिव्हा पर ताला डाल रहीं थीं।
अगले दिन आनंद के हस्पताल जाने के बाद जब नाश्ता लेकर मनीषा बाबूजी के पास पहुंची तो वे समान बांधे बैठें थे।उदासी भरे स्वर में बोले,” मेरे कारण अपनी गृहस्थी मत ख़राब कर।पता नहीं कितने दिन है मेरे पास कितने नहीं। मैंने इस वृद्धाश्रम में बात कर ली है जितने पैसे मेरे पास है, उसमें मुझे वे लोग रखने को तैयार है। ये ले पता तू मुझे वहां छोड़ आ , और निश्चित होकर अपनी गृहस्थी सम्भाल।”
मनीषा समझ गई कि बाबूजी ने कल रात उसका व आनंद का झगड़ा सुन लिया है. जाहिर था कि बाबूजी की देह कमजोर हो गई है दिमाग नहीं।दामाद उनके आने के बाद से लेकर आज काम पर जाने से पहले मिलने भी नहीं आया साफ़ बात है ससुर का आना उसे अच्छा नहीं लगा। क्या सफाई देती चुप चाप टैक्सी बुलाकर उनके दिए पते पर उन्हें छोड़ने चल दी। नजरें नहीं मिला पा रही थी,न कुछ बोलते बन रहा था। बाबूजी ने ही उसका हाथ दबाते हुए कहा,” परेशान मत हो बिटिया, परिस्थितियों पर कब हमारा बस चलता है। मैं यहां अपने हम उम्र लोगों के बीच खुश रहूंगा।”
          तीन दिन हो गए थे बाबूजी को वृद्धाश्रम छोड़कर आए हुए। मनीषा का न किसी से बोलने का मन कर रहा था न कुछ खाने का। फोन करके पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी वे कैसे हैं? इतनी ग्लानि हो रही थी कि किस मुंह से पूछे। तीसरे दिन वृद्धाश्रम से ही फोन आ गया कि बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे।दस बजे थे बच्चे पिकनिक पर गए थे आठ नौ बजे तक आएंगे, अानंद तो आतें ही दस बजे रात तक है। किसी की भी दिनचर्या पर कोई असर नहीं पड़ेगा, किसी को सूचना भी क्या देना। मनीष आफिस चला गया होगा बेकार छुट्टी लेनी पड़ेगी।
रास्ते भर अविरल अश्रु धारा बहती रही कहना मुश्किल था पिता के जाने के ग़म में या अपनी बेबसी पर आखिरी समय पर पिता के लिए कुछ नहीं कर पायी। तीन दिन केवल तीन दिन आनंद ने उसके पिता को मान और आश्रय दे दिया होता तो वह हृदय से अपने पति आनंद को परमेश्वर का मान लेती।
वृद्धाश्रम के संचालक महोदय के साथ मिलकर उसने औपचारिकताएं पूर्ण की। वह बोल रहे थे,” इनके बहू , बेटा और दमाद भी है रिकॉर्ड के हिसाब से।उनको भी सूचना दे देते तो अच्छा रहता।वह कुछ सम्भल चुकी थी बोली, नहीं इनका कोई नहीं है न बहू न बेटा और न दामाद।बस एक बेटी है वह भी नाम के लिए ।”
सन्चालक महोदय अपनी ही धुन में बोल रहे थे,” परिवार वालों को सांत्वना और बाबूजी की आत्मा को शांति मिलगीे।”
मनीषा सोच रही थी ‘ बाबूजी की आत्मा को शांति मिल ही गई होगी। जाने से पहले सबसे मोह भंग हो गया था। समझ गये होंगे कोई किसी का नहीं होता, फिर क्यों आत्मा अशान्त होगी।’
” हां, परमात्मा उसको इतनी शक्ति दें कि किसी तरह वह बहन और पत्नी का रिश्ता निभा सकें | “
(बनारस, 17मई 2018,गुरूवार)
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