सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'यह सड़क मेरे गांव को नहीं जाती' पैंतीस - चालीस वर्षों में गाँवों में आये बदलाव को बखूबी बयां करती है। इस पुस्तक को पढ़ते समय महसूस होता है कि लेखक ने गांव को अंतर्मन की गहराइयों से जिया है। व्योमेश जी पेशे से तो वकील हैं लेकिन हृदय से संवेदनशील रचनाकार। ऐसा रचनाकार जिसका मन लोक संस्कृति, कला, परंपरा, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार, व्यवसाय, किस्सा -कहानी, खान-पान, वेशभूषा, खेल -कूद , शिक्षा आदि में ऐसा रमा हुआ है कि वह शहर जिंदगी अपनाने के बाद भी भागकर गाँव में रमता है। लेखक शहरी संस्कृति के वर्चस्व को गांव में फैलता देख बेचैन है। वह बचपन की उन सुवास स्मृतियों को ढूंढ रहा है, जिसे उसने कभी खेत - खलिहानों में, पेड़ों की डालियों पर, नदियों- पोखरों के तट पर , डीह बाबा के टीले पर , स्कूल की चौहद्दी में बिताए थे। वह ढूंढ़ रहा है उस सामाजिक समरसता को जो ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा हुआ करती थी वह तलाश रहा है सामाजिक सरोकार को, सामूहिकता के भाव को । जिन्हें वह भावी पीढ़ी को केवल बता सकता है, दिखा नही।
लेखक शहर की भागमभाग, व्यस्तता से उकता कर तलाश रहा है गांव के ठहराव को, सुकून को जो अब प्रायोजित करने के पश्चात भी महरूम है। लेखक ने बिल्कुल आम बोल चाल की भाषा में अपने भाव को सहजता के साथ व्यक्त किया है। हिंदी भाषा में लिखी इस पुस्तक में अंग्रेजी, ऊर्दू, भोजपुरी के शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया गया है।
- डॉ०सीमान्त प्रियदर्शी
20जनवरी2021
अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
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