रविवार, 10 सितंबर 2017

व्योमवार्ता :अफशोस है कि सेकूलर मीडिया में तुम खबर होने लायक नहीं हो मयूरग्राम :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 09 सितंबर 2017, शनिवार

व्योमवार्ता : मयूरग्राम,अफशोस है कि सेकूलर मीडिया में तुम खबर होने लायक नहीं हो
व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 09 सितंबर 2017, शनिवार

          मयूरग्राम का नाम सुना है, नही न? क्योंकि मीडिया में मयूरग्राम के लिये न तो जगह है न चर्चा के लिये जरूरत. क्योंकि मयूरग्राम सेकूलर है या यूँ कहिये कि सेकूलर मीडिया ने उसे अपने लिहाज से उसे सेकूलरों के रहमो करम पर छेड़ दिया है.
       पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से 240 किलोमीटर उत्तर बीरभूम जिले में  मुर्शिदाबाद से सटे नलहाटी के पास मयूरग्राम नाम का एक गांव होता था हाल-फिलहाल तक। 1990 के दशक में यहां 280 हिंदू परिवार और सिर्फ 15 मुस्लिम परिवार थे। सारे मुस्लिम परिवार भूमिहीन थे और बंटाई पर खेती करते थे। इसके बाद इन्होंने अपने बांग्लादेशी रिश्तेदारों को बुलाया और पंचायती व ग्रामसमाज की जमीन पर उनकी झोपड़ियां डलवा दी। 1998 तक गांव में 50 मुस्लिम परिवार हो गए और हालात बदलने लगे। अगले दो-चार साल में संख्या और बढ़ी और उससे ज्यादा तेजी से हिंदू महिलाओं का उत्पीड़न। घर से निकलते ही छेड़छाड़ शुरू हो जाती। कुछेक के साथ बलात्कार की कोशिश भी हुई। थाने में शिकायत करने का कोई नतीजा नहीं निकलता कभी। इसके बाद मुसलमानों ने पूजा पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों का भी विरोध शुरू कर दिया। गांव के काली मंदिर के सामने मस्जिद बन गई। मुसलमानों के आपत्ति जताने पर पुलिस ने मंदिर में शंख और ढोल बजाने पर पाबंदी भी लगा दी। उनकी अजान तो खैर चलती ही रही। इसके बाद उन्होंने हिंदुओं के साथ रोजाना गालीगलौज व उन्हें धमकाना शुरू कर दिया। महिलाओं का घर से बाहर कदम रखना दुश्वार हो गया। फिर दुर्गा पूजा बंद करा दी गई और ईद-बकरीद के दिन काली मंदिर के ऐन सामने मस्जिद में गायें कटने लगीं।

1990 के शुरू में जिस गांव में 280 हिंदू परिवार होते थे, 2016 आते-आते सिर्फ 10 शेष बचे। फिर मयूरग्राम थोड़ा सा हिंदू नाम लगा तो उसे भी बदल दिया गया। सरकार ने तेजी से कार्रवाई करते हुए मुसलमानों की मांग पर इसे मोरग्राम कर दिया। गांव के रेलवे स्टेशन का भी नाम अब मोरग्राम है। यह कहानी अकेले मयूरग्राम की नहीं बल्कि बांग्लादेश की सीमा से सटे बहुत से गांवों की है। असम की बराक वैली के सिलचर और करीमगंज जिलों में स्थिति और बदतर है।

यह दिखाता है कि बिना मारकाट किए लो-लेवल की संगठित और सतत हिंसा के क्या फायदे हो सकते हैं। यह तोप-तलवार से ज्यादा प्रभावी है, पीड़ित यह सोचकर ही थाने नहीं जाता कि ये तो रोज ही होना है। और वहां सुनवाई न होने पर एक असहाय शहरी के सामने समर्पण या फिर पलायन के अलावा कोई रास्ता शेष नहीं रहता। ज्यादातर पलायन का विकल्प चुनते हैं।

बंगाल-असम में जो हिंदुओं के साथ हो रहा है, ठीक वहीं यूरोप में यहूदियों के साथ हो रहा है। स्थिति इतनी विकट है कि प्रतिष्ठित पत्रिका "द अटलांटिक" ने अप्रैल 2015 के अंक में कवर स्टोरी छापी , " Is it time for jews to leave Europe"। इस पत्रिका के मुताबिक फ्रांस में सिर्फ एक प्रतिशत यहूदी हैं पर मजहबी/नस्ली हिंसा के 51 प्रतिशत मामलों में शिकार वही होते हैं। स्वीडन में स्थिति और भयावह है। वहां अगर आप यहूदी पहचान के साथ सड़क पर निकले तो मार खाना तय है। ज्यादातर यहूदी अब इजराइल भाग रहे हैं।

यह अलग मामला है कि यहूदियों के खिलाफ हिंसा के ज्यादातर मामले अनरिपोर्टेड ही रह जाते हैं। मीडिया में ये खबर नहीं बनते। इसकी वजह है? एक तो यह कि अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक होने के बावजूद साक्षर व समृद्ध यहूदी समाज की मुख्य धारा में हैं। यह उनका अपराध है। मुस्लिम अप्रवासी, अश्वेत और एलजीबीटी जैसे कुछ तबके सौभाग्यशाली हैं जो लिबरल-लेफ्ट लिबरल समुदाय की ओर से सत्यापित व सूचीबद्ध उत्पीड़ित तबकों में आते हैं। ये सरकार व मीड़िया की ओर से पीड़ित व संरक्षित घोषित किए जा चुके हैं। इनका बाल भी बांका हुआ तो तत्काल संज्ञान लिया जाएगा। मीडिया क्या करे? हमें तो पहले दिन ही सिखाया गया कि कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं होती पर आदमी कुत्ते को काट ले तो खबर है। जिसने भी यह थ्योरी दी वह पक्का लिबटार्ड रहा होगा। अब इसका नतीजा देख लें। कुत्ते आपके घर व मुहल्ले में कितनों को भी काट लें, पर आपकी खबर, खबर होने के लायक नहीं। पलायन चाहे मयूरग्राम से हो चाहे मालमो से, सामान्य घटना है। लेकिन अगर आपका नाम अखलाक या जुनेद है तो निश्चिंत रहें। आप सर्टिफाइड विक्टिम हैं, राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी आपके साथ होगी।
(बनारस, 9 सितंबर 2017, शनिवार)
http://chitravansh.blogspot.com

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