शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

दिपावली की शुभकामनायें : व्योमेश चित्रवंश की डायरी 6 नवंबर 2018

आस्था के आलोक में दीपावली की शुभकामना

पर्व है पुरुषार्थ का,
दीप के दिव्यार्थ का,
देहरी पर दीप एक जलता रहे,
अंधकार से युद्ध यह चलता रहे,
हारेगी हर बार अंधियारे की घोर-कालिमा,
जीतेगी जगमग उजियारे की स्वर्ण-लालिमा,
दीप ही ज्योति का प्रथम तीर्थ है,
कायम रहे इसका अर्थ, वरना व्यर्थ है,
आशीषों की मधुर छांव इसे दे दीजिए,
प्रार्थना-शुभकामना हमारी ले लीजिए...

झिलमिल रोशनी में निवेदित अविरल शुभकामना...
आस्था के आलोक में आदरयुक्त मंगल भावना...
दीपावली की शुभकामना ।
(बनारस,6नवम्बर 2018)
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गुरुवार, 10 नवंबर 2016

शरिफा, संस्था जिसे हम परिवार कहते है ,(डॉ० शंभुनाथसिंह शोध संस्थापन, वाराणसी) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 10 नवंबर 2016,बुधवार

शरिफा: संस्था जिसे हम परिवार कहते है....
(डॉ०शंभुनाथसिंह शोध संस्थापन - वाराणसी)

      कल डॉ०शंभुनाथ सिंह शोध संस्थापन की रजत जयन्ती थी। कैण्ट रेलवे स्टेशन के सामने प्रताप पैलेस होटल मे सपरिवार जाना हुआ। राजीव भैय्या का निमंत्रण व रोली भाभी का स्नेह व अधिकार सहित आदेश टाला भी नही जा सकता। कचहरी व घर की व्यस्तता से निपट कर जब हम आयोजन मे पहुँचे तो कार्यक्रम चल रहा था। संस्था का बोर्ड मेम्बर होने के बावजूद बिलंब से पहुँचने पर थोड़ी झेंप व ग्लानि के साथ पीछे बैठा ही था कि आयोजन मे शामिल सभी चेहरों पर अभिवादन के साथ ऑखो मे देर से आने पर ढेरों सवाल दिखने लगे।अभी सफाई दे पाता कि ऱाजीव भैय्या की नजर मंच पर से मुझ पर पड़ गई साथ ही आदेश का परवाना भी कि कार्यक्रम मे समापन व धन्यवाद ग्यापन तुम्हे करना है। मै पीछे बैठा हुआ वरिष्ठ कवि व अपर आयुक्त डॉ० ओम प्रकाश चौबे " ओम धीरज " जी का प्रभावपूर्ण संबोधन चल रहा है। बेहद सुलझे हुये वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, सहज व सरल स्वभाव के डॉ० ओम धीरज जब साहित्यिक व सांस्कृतिक आयोजनों मे होते है तो उनमे कहीं से भी प्रशासनिक रूतबा व प्रभाव नही दिखता तब वे बेहद सरल भाषा वाले सहज ओम जी होते है ।भतृहरि के कठिनतम श्लोको को सरलतम व हम जैसों के समझ मे आने वाला हिन्दी छन्दमयअनुवाद ओम जी का हमारी पीढ़ी व आने वाली पीढ़ी के लिये अपने संस्कारो से जोड़ने वाली अनुपम भेंट है जिसे समय के परे भी याद रखा जायेगा।
बहरहाल पीछे की पंक्तियो मे बैठा हुआ मै ओम जी के संबोधन के साथ समय के पीछे जा रहा था। आज से लगभग 27-28 वर्षों पूर्व हिन्दी नवगीत के शलाका पुरूष श्रद्धेय डॉ०शंभुनाथ सिंह जी केआशीर्वाद से राजीव भैया द्वारा संस्था स्थापित की गई थी। तब संस्था एक गोष्ठी के अतिरिक्त कुछ विशेष नही थी। राजीव भैया भी तब इधर के बजाय दर्पण मे ज्यादा व्यस्त रहा करते थे। हॉलाकि वे यू पी कालेज मे मेरे सीनियर थे पर हमारा जुड़ाव दर्पण से ही ज्यादा प्रगाढ़ हुआ था। एमएसडब्ल्यू करने के बाद वे बनारस से बाहर नौकरी करने चले गये पर बनारसी मन तो " ज्यों जहाज के पंछी फिर जहाज पर आवै" जैसा होता है, जो हम लेौगो के अंदर के बनारसी को कहीं टिकने नही देता तो वे फिर बाबूजी (डॉ०शंभुनाथ सिंह) के अनुमति से नौकरी छोड़ बनारस आ गये और दैनिक जागरण मे काम करने लगे। बाबूजी का व्यक्तित्व बेहद गौरवपूर्ण था। एक कड़क अध्यापक वाला रोबीला चेहरा, गौर वर्ण पर उन्नत चमकता ललाट व बोलती ऑखे, पहले हम लोग उनसे सहमे सहमे रहते। पर जैसे जैसे उनके करीब आये तो कड़े नारियल खोल के अंदर मीठी मुलायम गरी वाले व्यक्तित्व का बोध हुआ। बेहद नम्र, और छोटी छोटी बातो हम लोगो के पानी चाय पहनावे व तबियत का भी ध्यान रखने वाले बाबूजी। अम्मा भी स्वभावत: उन्ही की प्रतिरूप थी, अम्मा की बातें फिर कभी। इसी बीच राजीव भैया व रोली भाभी की शादी हो गई। मजेदार तथ्य यह रहा कि जहॉ राजीव भैय्या यूपीकालेज मे हमारे सीनियर थे वहीं रोली भाभी बीएचयू मे हमारी बैचमेट, ये अलग बात है कि उनके हिन्दी मे होने के कारण उनसे हमारा कोई प्रत्यक्ष परिचय नही था। रोली भाभी ने आने के पश्चाच संस्था को नये सिरे से सवॉरा। 1991 मे बाबूजी के देहान्त के पश्चात हम लोगो ने संस्था को उनके स्मृति के रूप मे एक कलेवर देने का प्रयास किया। संस्था का नामकरण " डॉ० शंभुनाथ सिंह शोध संस्थापन" भी उन्ही के नाम व स्मृति मे किया गया। हम लोगो ने संस्थापन के मूल में शिक्षा, साहित्य व संस्कृति को उद्देश्य के रूप मे रखा। इसके पीछे एक कारण यह भी था कि प्राय: बाबूजी को हिन्दी साहित्य के नवगीत के प्रवर्तक के रूप मे ही प्रतिष्ठित किया जाता है जबकि वे एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार, पुरातत्वविद व संस्कृति के अध्येता थे। मानव आचरण, तुलसी साहित्य , वर्तमान संदर्भ मे मानस की प्रांसगिकता, प्राचीन मूर्तियों, अवशेषों व पुरावशेषों का संकलन के क्षेत्र मे किये गये कार्य नवगीत के आवरण मे कहीं छिप गये हैं। रोली भाभी व राजीव भैया अकेले अपने दम पर संस्थापन की उपस्थिति बनारस से लेकर पूर्वॉचल, प्रदेश व देश तक दर्ज कराते रहे। इन लोगो के नेतृत्व मे हुऑ हुऑ करने वालों की तरह हम लोग भी कभी कभार लग जाते थे। पर असली मेहनत इन्ही दो लोगों की तब भी थीऔर आज भी है। राजीव भैया को देख कर सही अर्थों मे कहा जा सकता है कि 'हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल तलक, लोग मिलते ही गये और कारवॉ बनता गया।' हम लोगो मे कभी कोई संस्थागत क्रमबद्धता (orgnizatiinal hierarchy) नही होने से संस्थापन मे कभी साहबियत (बासिज्म) जैसी परंपरा नही पनप सकी। हम लोग राजीव व रोली को भैया व भाभी कहते थे तो बाद मे संस्थापन से जुड़ने वाले कर्मचारी, व कार्यकर्ता, स्वैच्छिक कार्यकर्ता भी हमी लोगो के परंपरा का पालन करते हुये भैया भाभी ही संबोधन करने लगे इसका सकारात्मक परिणाम यह रहा कि हमारी संस्था महज एक संगठन न होकर एक परिवार के रूप मे पुष्पित पल्लवित हुई। बाद के बरसों मे सुधीर, महेन्द्र, अखिलेश, सरोज, बंशीधर, कुसुम, मधुरिमा, प्रीति, दीप्ति, शांति, शशि, अन्नपूर्णा, नीलम,राजेश, चंद्रबली, सुनील, ममता, राकेश, सत्यदेव,विनय, प्रमोद जैसे कर्मठी कार्यकर्ताओं की एक लंबी परंपरा आज भी कायम है। आज भी हमसे जुड़े कार्यकर्ता कहीं भी हो पर शरिफा परिवार का नाम आते ही जो प्यार, स्नेह व चमक उनकी ऑखो मे आती है वही हमारे परिवार के प्रतिबद्धता व आदर को बताती है। शरिफा परिवार , हॉ यह शब्द ज्यादा चर्चित हुआ ऩागर संगठनों में। डॉ०शंभुनाथसिंह शोध संस्थापन सफलता की राहों पर चलते हुये कब 'शंभुनाथसिंह रिसर्च फाउण्डेशन' और फिर  उसका संक्षिप्त रूप 'शरिफा' हो कर हमारा 'शरिफा परिवार' हो गया इसका समयबद्ध विश्लेषण करना मुश्किल है।
       साथ ही साथ राजीव भैय्या के साथ के ढेर सारे मित्रगण जैसेअरविन्द भटनागर, राजीव, गोपाल, रमाशंकर, मुन्ना पाणे, अजीत, रंजना , राहुल, रोहित वगैरह समाजकार्य व समाजसेवा से जाने अनजाने होते हुये भी शरिफा के प्रगति के हर चरण पर अपने विश्वास व सहयोग के साथ हमारे संग खड़े रहे उनके भी योगदान को भुलाया नही जा सकता। साथ ही साथ राजीव भैय्या के परिजन व रिश्तेदार जो उनके अनवरत चलने वाले सामाजकार्य यग्य मे अपने सहयोग की समिधा दी व देते जा रहे है वे भी शरिफा के विकास यात्रा के  संबल रहे हैं।
एकाएक मेरी तंद्रा झटके से टूटती है, मंच से मेरा नाम बुलाया जा रहा है। मंच पर उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकार पूर्व आईएएस अधिकारी डॉ०राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, अपर आयुक्त सहदेव आईएएस, पूर्व न्यायाधीश चंद्रभान सुकुमार, डॉ० राम सुधार सिंह के संबोधन हो चुके है। मै अपनों को ही धन्यवाद ग्यापन करने की औपचारिकता कर रहा हूँ। मेरे सामने बैठे हुये हर चेहरे मे मुझे शरिफा परिवार के प्रति सहयोग व स्नेह नजर आ रहा है। सभी चेहरे अपने लग रहे है विजयश्री दीदी, संतोष सर, रेखा श्रीवास्तव,अध्यक्षा सीडब्लूसी, राजेश श्रीवास्तव, दीपक पुजारी, डा०लेनिन,श्रुति, मिन्तू, कामनादी, अरविन्द जीजा, आज पहरूआ सम्मान से गौरवान्वित सलीम राजा जी और वे ढेरो चेहरे जिनका नाम लिखने मे ही सारा समय बीत जायेगा , धूप छॉव के मुक्ताकाशी बच्चे। सब की ऑखो मे शरिफा परिवार के साथ स्वयं के लिये सम्मान पा कर गर्व नहसूस कर रहा हूँ।
पिछले पचीस वर्ष के शरिफा के विकास संकल्प यात्रा के एक एक पड़ाव ऑखों के सामने से गुजर रहे है ।इस यात्रा के हिस्सो को मैने भी जीया है कभी यात्री बन, कभी मार्गदर्शक बन , कभी मात्र दर्शक बन कर। शरिफा के विकास यात्रा के साथ साथ बाबूजी डॉ० शंभुनाथ सिंह जी याद आ रहे हैं पुराने वाले बैठक मे कुर्सी की पुस्त पर अपनी छड़ी टिकाये गुनगुनाते हुये

मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।
       तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
       जंगलों में या पहाड़ों में,
       मंदिरों में, खंडहरों में,
       सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,
मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।
        शाल-वन की छाँव में
        चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
       स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
        पास मृगछौने बुलाता हूँ,
पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।

डॉ० शंभुनाथ सिंह शोध संस्थारन के कार्यकारिणी मण्डल, निदेशक मणडल, कार्यकर्तागण, स्वैच्छिक कार्यकर्तागण, मित्रों परिजनों, शुभेच्छुओं सहित शरिफा परिवार के समस्त सदस्यों को ऱजत जयंती वर्ष की ढेरों शुभकामनायें।

बुधवार, 9 नवंबर 2016

बनारस टॉकीज, शानदार जबर्दस्त जिन्दाबाद : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 21 मई 2016 शनिवार, नई दिल्ली


सुना है लोग उसे ऑख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त हैं उसको खराब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं

        अस्सी घाट। दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हुये पहला घाट। वरूणा और अस्सी नदियों के संगम का घाट। संतों का घाट। चंटों का घाट। कवियों का घाट। छवियों का घाट। गँजेड़ियों का घाट। भँगेड़ियों का घाट। मेरा घाट। दादा का घाट। हमारा घाट।

       मंडुआडीह-नईदिल्ली स्पेशल गाजियाबाद स्टेशन से गुजर रही है और मै अभी तक बनारस टॉकीज के हँसते, गुदगुदाते, मुस्कराते, खिलखिलाते, किलकते कथानक मे डूब उतरा रहा हूँ। कल रात मंडुआडीह रेलव् स्टेशन पर बुक स्टाल पर बनारस टॉकीज नाम देख सत्य व्यास का यह बेस्ट सेलर उपन्यास खरीद लिया। ट्रेन में बैठते ही जब पहला पन्ना पढ़ना शुरू किया तो यह मुझे बिलकुल अपनी कहानी लगी। उपन्यास के कहानी के साथ साथ खुद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे बीताये गये अपने पुराने दिन याद आते गये। पूरा उपन्यास चलती ट्रेन, मन मे चलती यादों के साथ कब तक आखिरी पेज पर चलते हुये पहुँच गया पता ही नही चला।

         “अच्छा, तो कहानी में interest आ रहा है? पूरी कहानी सुननी है? तो बैठिये; थोड़ा टाइम लगेगा। पेप्सी और चिप्स मँगवा लीजिये।” 
अब आपसे क्या छुपाना बाऊ साहब। जब कहानी सुनानी ही है तो कहानी शुरू करने से पहले बता दूँ कि इस कहानी का सूत्रधार मैं हूँ- मैं यानी सूरज। अरे वही! Girl’s hostel and all that. किसी से कहियेगा मत! कसम से, अपना समझ के बता रहे हैं आपको।
तारीख़ी तौर पर बंधी इस कहानी का दौर इक्कीसवीं सदी का पहला दशक है। कहानी उन दिनों शुरू होती है जब तेरह टांगों वाली सरकार जा चुकी थी। सुनामी के लहरों से कहर दिखा दिया था और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई बम विस्फोटों के बीच जीना सीख रही थी।
लेकिन यह कहानी तो देश के सांस्कृतिक राजधानी की है- बनारस। और बनारस की भी क्या है साहब! यह तो भगवानदास होस्टल की कहानी है; जो बनारस के हृदय बी एच यू का छत्तीसवाँ होस्टल है। वकीलों का होस्टल।
हाँ! तो भगवानदास होस्टल जाने के लिये आपको बनारस चलना होगा। अरे, वहीं है ना- सर्व विद्या की राजधानी। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी; जिसे आप बी.एच.यू. भी कहते हैं। आइये चलें :
       बनारस हिंदु यूनिवर्सिटी के एक हॉस्टल भगवानदास में रहने वाले तीन दोस्तों सूरज उर्फ बाबा, अनुराग डे उर्फ दादा और जयबर्धन शर्मा के हॉस्टल में बिताए उन खास दिनों की यह कहानी कमोबेस बीएचयू के हर बंदे की कहानी है। थोड़ी मिलती जुलती, थोड़ी ट्विस्ट ले कर बदलती हुई, जिसे सत्य व्यास ने बेहद खूबसूरती से अपने कलम से पिरो कर बनारस टॉकीज तैयार किया है। सत्य व्यास से हमारी कोई सीधी मुलाकात नही है न ही कभी आमना सामना ही हुआ। समय के सतरों मे देखा जाय तो वे हमसे काफी जूनियर होगें। संभवत: हम लोगो के बीएचयू से निकलने के दो तीन सालों बाद उन्होने प्रवेश ही किया होगा पर उनके बताये व चर्चा किये गये एक एक जगह लंका, माडर्न पेन कंपनी, पिज्जेरिया, अस्सीघाट, प्रताप होटल, बनारस बर्गर सेंटर, गोपाल मैंगो शेक , केशव पान , एट्टीज, टडन जी गार्जियन की टी शाप, अस्सी पर चचियवा की कचौड़ी सब्जी, पहलवान दूध, गुपुतनाथ की चाय, वीटी के समोसे व कोल्डकाफी, एग्रो कैफे, मैत्री जलपान, मधुबन जैसे स्थान बीएचयू के छात्र जीवन मे ऐसे रच बस जाते है मानो वे स्थान न होकर जिन्दगी के हिस्से है। इन्ही जगहों का ताना बाना लेकर और बनारस मे हुये आतंकी विस्फोट के मसाले का छौंका देकर सत्य व्यास ने बनारस टॉकीज को बनाया है जो एक सीटिंग मे पढ़ी जाने वाली मस्तमौला अल्हड़ कहानी है, बनारस के काशिका बोली का विशेष अंदाज मे इस्तेमाल, हास्टल लाईफ की बेबाक रूमानियत व महामना के बगिया मे पढ़ने का अभिमान उन पाठकों को ज्यादा आनंद देगा जिन्होने इस जीवन को, बनारस को जीया है, साथ ही उन्हे भी भरपूर मजा देगा जो एक निर्दोष सरल व सरस कहानी पढ़ना चाहते हैं।

अच्छा दादा, एक बात बताओ तुम कभी किसी लड़की को प्रपोज किए हो?” मैने दादा के हाथ से चाय लेते हुए कहा।

“B.Com में एगो को बोले थे, I Love You” दादा ने कहा।

“फिर?”, मैने पूछा।

“फिर लड़की बोली OK। साला! हमको आज तक समझ नहीं आया कि I Love You का जवाब OK कैसे हुआ। यस नो, कुत्ता, कमीना, जानू, पागल कुछ भी बोलती; आइने में शक्ल या पांव का चप्पल दिखाती; लेकिन OK का क्या मतलब?” दादा ने चाय पीते हुए कहा।

“अबे हंसाओ मत, मर जाएंगे।“ चाय मेरे नाक तक चली गई थी।

“हां। हंस लो साले। अभी तुम्हारा फंसा है ना। अब हम हंसेंगे। पूरा भगवानदास हंसेगा।“ दादा ने चास का कुल्हड़ फेंकते हुए कहा।“

          यह किस्सा बीएचयू के भगवानदास हॉस्टल लाइफ में दिन रात चलने वाले इश्क, रोमांच और जीवन बदलने वाले अनुभव की एक बानगी भर है। बनारस टॉकीज आपको ऐसे-ऐसे मोड़़ों से लेकर गुजरेगी जहां पर आप कभी खुद को खुल कर हंसने से रोक नहीं पाएंगे तो कहीं पर बाबा और दादा के तनाव का हिस्सा बनते नजर आएंगे। कहीं सुना था कि किताबें भी ट्रेन की तरह होती हैं जो आपको आपकी मंजिल के बींच आने वाले हर मोड़ से रुबरू कराते हुए आगे बढ़ती हैं। बनारस टॉकीज भी एक जीवंत ट्रेन की तरह है जो आपको हंसाती है रुलाती है और कभी-कभी आंखे नम भी कर देती है। तो पढ़ें क्‍यों‍कि पढ़ना जरूरी है....
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रविवार, 6 नवंबर 2016

Cetan Bhagat's One Indian Girl : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 6नवंबर2016,रविवार

Just completed Chetan's new nowel ONE INDIAN GIRL. No doubt it is a good plot, the story is interesting and based on indian middle class society who dreams a lot for her new generation. They invest thier money their time, thier dedication for success of thier children, but they do not success to seed the social indian traditional and family values in thier children, about which once India was famous. The story of One Indian Girl reveales those differences which are created a major gap berween money and moral, values and modness, Now a days it is so called faminism, this what Bhagat wants Indian women to do as well? To agree with him, to accept his definition of feminism and hail him as ‘progressive’ just because he has ‘represented’ a female voice and talked about women’s issues (from his very male perspective). But here’s the problem: Bhagat is telling an entire generation of Indian readers that a woman who’s successful still cares the most about male validation; that for her, professional success and marital bliss are still mutually exclusive; that she can feel beautiful only by comparing herself to other women. Oh, and most importantly, that ‘feminism’ should be renamed ‘humanism’.
          Well, we still can’t ignore that Bhagat is one of India’s highest-selling novelists and has tremendous influence. And now, due to “One Indian Girl”, countless readers will be exposed to this thoroughly warped version of feminism and will go along with it. In a country like India, where rape culture, the gender pay gap, moral policing, fat-shaming and various other kinds of oppression is rampant in the most horrific of ways, we need feminism more than anything else, and this One Indian Mansplainer is making things worse by painting it in the most dangerous light.
     One thing more, what I feels that chetan is now becoming the fully businessman, for the better selling of the novel, Chetan followed some cheap tactices those were not necessary for the story. Like page number 57 ( which became the issue for twitter also) was a cheapest and sadakchhap masala part which might be presented as symbolic and simple way but it creates a mastram   looks which should be condemed.
       But all through this is good intersting and complete matrimonial family drama.