बुधवार, 30 मार्च 2016

व्योमेश चित्रवंश की डायरी : मि० होपलेस, 30 मार्च 2016

आजकल हम  राबर्ट एच शूलर की बेस्टसेलर पुस्तक tough times never last but tough people do को लगभग १५-१६ साल बाद दूबारा पढ़ रहे है। १९८८ मे प्रकाशित इस मोटिवेसनल किताब ने हमे बहुत प्रभावित किया है क्योकि इसके सिद्धान्त बेहद व्यवहारिक व सुगम है जिन्होने हमे कठिन समय मे भी बड़ा बल दिया है।
पर व्यवहारिक जीवन का एक दूसरा पहलू भी है निरासाजनक व नकारात्मक पहलू। इस अवधारणा को मानने वाले लोग संसार के हर तथ्य, प्रकृति के हर भेंट, व हर मानवीय संबंधो को एक शव विच्छेदनात्मक दृष्टि ( पोस्टमार्टम एनालसिस) से देखते है। उनका 'क्यो' विश्लेषण इतना मजबूत होता है कि वे किसी भी तथ्य के सकारात्मक पहलू पर नकारात्मक सवाल उठा देते है और निश्चयात्मक रूप से अंतिम निर्णय सुना देते है कि किसी भी कार्य का को सकारात्मक रूप से परिणति किया ही नही जा सकता। मुश्किल यह है कि ऐसे लोग स्वयं को विश्व के सबसे बुद्धिमान व विश्लेषक मानते है। अगर ऐसे व्यक्ति आप के सुख दु:ख मे शामिल हो गये तो क्या कहना? आप की थोड़ी सी खुशी व संतोष तो पलीता लगा कर कपूर जैसे यूँ उड़ जायेगा कि क्या कहने।
हमारा वास्ता ऐसे लोगो से प्राय: पड़ता रहता है, पेशेगत मजबूरियो व आपसी सम्बंधो को ख्याल मे रखते हुये हम इन्हे मना भी नही कर पाते पर बचते बचाते व मजबूत ईच्छाशक्ति के बावजूद भी हम जैसे लोग भी जानने समझने के बावजूद भी ऐसे लोगो व उनके विचारो के हल्के फुल्के प्रभावक्षेत्र मे आ ही जाते हैं।
           भगवान बचाये ऐसे लोगो से। हमने ऐसे लोगों का नाम मि० होपलेश व श्रीमान निराश जी रखा है।
            ताजी घटना, मेरे एक परिचित वकील साहब है , जानकार है पर दृष्टि वही निराशावादी। दोतीन साल पहले वे बीमार पड़े, अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया , लाभ होना भी प्रारंभ हुआ। पर वकील साहब ठहरे विश्लेषणात्मक व्यक्तित्व के धनी। उन्होने कुछ इधर उधर का अध्ययन किया। इस तरह के कुछ बिगड़े घटनाओं पर विचार कर के यह अवधारणा स्थापित कर लिया कि ऐसे सभी लक्षण कैंसर बीमारी के है। और चिकित्सक लोग उन्हे बता नही रहे है पर है उन्हे कैंसर ही। फिर क्या था मि० होपलेस के साथ साथ पूरा परिवार परेसान। भगवान का शुक्र है कि वे ठीक हो गये। फिर उन्हे लगा कि वे मधुमेह से भयंकर  रूप से ग्रसित है और उनका मधुमेह स्तर से पार का है। अब उन्होने जो अधिकतम परहेज हो सकता है शुरू कर दिया। नतीजा वही ढाक के तीन पात। इनकी  सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे किसी को अपने से अच्छा व ज्यादा मानने को तैयार भी नही चाहे वह रोग हो या जानकारी। संपर्क हो या सामाजिकता। इसलिये खुद को खुद की वास्तविकता से परे दिखाने की कोशिस मे वह स्वयं के साथ औरो के निसाने पर भी आते है पर इस बात को मानने को तैयार नही। इसी तरह पिछले साल उनके पुत्र का १०+२ के बाद आगे की पढ़ाई थी। मि० होपलेस ने यह मान लिया कि इस देश के सभी शिक्षण पाठ्यक्रम बीएससी बीए बीकाम आदि अब बेमतलब रह गये है। +२ के बाद पढ़ाई का मतलब केवल  कुछ विशेष संस्थानो से इंजीनियरिंग की पढ़ाई है बाकी सब बेकार। उन्होने यह भी निश्चय किया कि वे बच्चे को बिना कोचिंग के ही टेस्ट दिलायेगे क्योकि १ तो उनका लड़का पढ़ने मे काफी तेज है , २ कि कोचिंग वाले पढ़ाते तम है और सेटिंग ज्यादा करते है, ३ कि बच्चे को उसके मौलिक ग्यान की परख होनी चाहिये। बच्चे मे भी मि० होपलेस के कुछ मूलभूत गुणसूत्र आना स्वाभाविक ही है। लिहाजा उसने भी उसी लाईन पर सोचना शुरू किया। प्रवेश परीक्षा का रिजल्ट आने पर दूर दूर तक उन विशेष संस्थानो के प्रवेश सूची मे उसका नाम ही नही था। फिर मि० होपलेस ने पूरे प्रकरण का पोस्टमार्टम कर के यह निष्कर्ष निकाला कि सब के बच्चे कोचिंग किये इसलिये वे इंजीनियरिंग मे प्रवेश पा सके। बस उनका ही लड़का रह गया साथ ही उन्होने लोगो की जानकारी मे यह इजाफा किया कि गत वर्ष के पेपर आउट आफ कोर्स थे। इसलिये गत वर्ष इंजीनियरिंग मे प्रवेश पाने वालो को पूरे पढ़ाई आउट आफ कोर्स ही करनी होगी लिहाजा उन सब का इंजीनियरिंग करना बेकार लेकिन यह बात मि० होपलेस भी जानते है कि दूसरो के लिये सिद्धान्त बघारना और बात है और व्यवहारिक प्रक्रिया और। इसलिये बस दो ही महीने के बाद वह किसी कोचिंग को यह कह कर ढूढ़ने लगे कि कल उनका लड़का उन्हे यह ताना न दे कि उन्होने उसे कोचिंग नही कराया। कचहरी की व्यवस्था से भी वे परेशान रहते है और उनकी निगाह मे शायद ही कोई अधिकारी या वकील हो जो ईमानदार हो। चाहे उनके गुरू हो या कोई मित्र हर कोई उनकी दृष्टि मे बेकार साबित हुआ है। बहरहाल बात वर्तमान संदर्भ की। मेरे साथ मि० होपलेस एक बीमार व्यक्ति को देखने गये, उन्होने उसकी मिजाजपुर्शी के बजाय उसके बीमारी का पोस्टमार्टम करना प्रॉरंभ कर दिया। और इस व इस जैसी बिमारी के जितने बिगड़े केस थे उन सब का यूँ विश्लेषण किया कि बेचारा बीमार भी खुद को केसने लगा होगा कि वह अभी तक इस धरती पर यदि है तो वह उसका अभिशाप ही है। और तो और होपलेस साहब ने यहॉ तक कह डाला कि इस तरह बिस्तर पर आराम करने से बेहतर है कि कब्र मे आराम किया जाये।
अब बेचारे बीमार के घर वाले यह निश्चित नही कर पा रहे थे कि मि० होपलेस उनके पिता जी की मिजाजपुर्शी मे आये है या यमराज के वारंट की खबर देने। अंत मे उनके बीमार के पुत्र ने मुझे बुला कर पूछा कि भैया जी पिताजी के रिपोर्ट अच्छे आ रहे है। दिन पर दिन उनके स्वास्थ्य मे सुधार हो रहा फिर भी भाई साहब बड़े निरास है। मुझे टी२० मे बॉग्लादेश से आखिरी बाल पर एक रन से जीतने के बाद धोनी का इंटरव्यू याद आ रहा था। बीमार बाप के पुत्र को शिकायत यह थी कि मि० होपलेस मेरे जैसे सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के साथ आये है और मेरी हालत 
मझे गालिब का वो शेर याद आ रहा था कि
इस दुनिया मे कमी नही साहब
एक ढूढ़ो हजार मिलते हैं।

व्योमेश चित्रवंश की डायरी: निरीह मूक बछड़े का करूण क्रंदन ,29 मार्च 2016

29 मार्च 2016, मंगलवार
आज घर लौटते ही कृष्ना जी ने बताया कि डैडी एक बछड़ा अपनी मम्मी से छूट गया है बेचारा चिल्ला रहा है. मैने उनकी सारी बाते गौर से सुनी. तभी वह बछड़ा दिख गया, उसे देखते ही सारी बाते मेरे समझ मे आ गयी, कोई गोपालक सज्जन अपने गाय के बछड़े कोअनुपयोगी होने के कारण जानबूझ कर उसे भटका कर हमारे एरिया मे छोड़ गये थे, अब बेचारा वो बेकसूर बछड़ा जिसका कसूर मात्र इतना है कि वहबछड़ा है, मेरे दोनो बच्चे हाथ मे रोटी लेकर उसे खिलाने को परेशान है पर वह बेचारा अनचिन्हा अनजाना होने के वजह से दूर से ही भाग जा रहा है, काफी रात बीत गयी है पर वह बेचारा बेकसूर बेजुबान बछड़ा अभी भी चिल्लाते हुये अपनी मॉ व अपने पालनहारो को खोज रहा है. हमे डर है कि कही रात मे उस भूखे प्यासे बेकसूर जीव पर कुत्ते हमला न कर दे, मेरे दोनो बच्चे उसकी चिन्ता मे अभी रात के १२.२० तक चिंतातुर हो कर जाग रहे है पर जिस सज्जन का वह बछड़ा है वह तो उसे दूसरे मोहल्ले मे भटका कर अपने को कर्तव्यमुक्त मान चैन की नींदसो रहे होगें?
क्या उन्हे गोभक्त कहना उचित होगा?
साथ ही साथ मै उस बछड़े की पीड़ा वाली आवाज पर यह सोच रहा हूँ कि क्या वो समय  आ गया है जब राष्ट्रीय गो नीति पर पुनर्विचार करते हुये उसमे इस तरह के अनुपयोगी माने जाने वाले मूक निरीह पशुओ पर भी विचार किया जाये.

रविवार, 27 मार्च 2016

व्योमेश की कवितायें: दिल्ली की दामिनी (27दिसम्बर 2012)

दिल्ली की दामिनी
केवल आज दमित नही की गयी
वह तो दमित होती रही
हर देश मे हर काल मे
बस संबोधन बदलते रहे
समय के साथ साथ
वह कभी सीता बन के छली गयी
आदर्श और कर्म के नाम पर
कभी पॉचाली बन अपमानित हुई
राजधर्म के नाम पर
कभी संयोगिता बन प्रेम के नाम पर
कभी पद्मिनी बन चरित्र के नाम पर
वह मीरा भी है, वह जोधा भी है
वह रजिया भी है
वह मंदोदरी व उर्मिला भी है
बस नाम बदलते गये
और भूमिकाये बदल गई
समय के साथ
परिस्थितियॉ आज भी वही है
बस उनके रूप व संदर्भ बदले हैं
नाम बदले है
आधुनकता, बराबरी, समानता,
और अवसर के संग्याओं मे
क्रियायों मे
व्याकरण की भाषाओं मे
पर सोच आज भी वही है
काश!
हम संबोधनो को बदलने के बजाय
सोच बदल पाते

(दिल्ली मे हुये दामिनी बलात्कार व हत्या  पर मन की भावनायें, २७ दिसम्बर २०१२)

व्योमेश की कवितायें : मुट्ठी की रेत (२४-१२-२०१२)

आज पॉच दिनो बाद निकला है सूरज
गुनगुनी धूप लेकिन सिहराती हवाओंके साथ
मन को दूर दूर ले जाती है
लान मे खिले गुलाबों और गेदें की क्यारियो के उस पार
जहॉ मन उ़ने को आतुर है ढेर सारी यादों के पीछे
जो सिर्फ गुगुदा जाती है दिल को हौले से
और उन्हे समेटने की कोशिस करता हूँ मै
पर वक्त फिसल जाता है हर बार
मुट्ठी मे बंधे रेत की तरह।

(24 दिसम्बर 2012)

व्योमेश की कवितायें :कनु के लिये (मार्च २०००)

सॉझ ढले,
काम की थकान,
मन की उलझन,
तन की टूटन,
सब कुछ, ओस की बूँदो की तरह,
एक ही पल मे खतम हो जाती है
जब तु अपनी टिमटिम जैसी ऑखो से
निहारती हो मुझको
तुम्हारे किलकिते लाल लाल होठ गू गा करते है
और तुम्हारी दोनो नन्ही बॉहे उठती है
मुझको समेटने के लिये
सच कहूँ मेरी कनुप्रिया
मेरे लिये सबसे खूबसूरत लम्हे है ये
जिन्हे शब्दो मे नही बॉधा जा सकता
सिर्फ व सिर्फ महसूस किया जा सकता है,
तुममे खोजता हूूँ बार बार मै अपना अक्स
और फिर खो जाता हूँ
तुम्हारी नन्ही टिमटिम ऑखो में।

(कनु के बचपने के समय लिखी मन की भावनायें, संभवत: मार्च २००० में)

व्योमेश चित्रवंश की डायरी : प्यार मनुहार की बनारसी होली 23 मार्च 2016, बुधवार

24 मार्च 2016 बुधवार
बनारस मे होली आज है, बनारस की होली का मतलब फगुआ' जो प्रतीक है हुल्लड़ हुड़दंग मस्ती व बिन्दासपन को. इस शहर मे तो वैसे भी कोई चेला नही होता सभी गुरू है पर होली ते दिन वह सब गुरूत्व मस्ती व सुरूर मे बह जाता है. अब आज को ही ले पूरे देश मे होली कल यानि 24 मार्च गुरूवारको होनी है परबनारस वालो को चैन कहॉ, उनके पास २४ घंटे इंतजार करने का सब्र कहॉ, वह भी फगुआ के लिये? सवाल ही नही उठता, कहेगे भाग ....... के, फगुआ भी कौनो जोहे वाली चीज हौ, साल भर त जोहबे करै? यहॉ की मस्ती का अलग अंदाज है, वैसे भी बनारसियो के तर्को से होली आज ही है, बनारस मे होली का त्योहार पूरे सात दिन से दस दिनो का होता है, रंगभरी एकादसी से लेकर बुढ़वा मंगल तक. मान्यता है कि रंगभरी एकादसी के दिन भगवान शकर का गौना होता है उसी दिन से शिव जी के साथ अबीर गुलाल के साथ यहॉ होली शुरू होजाती है जो होली को बाद वाले मंगलवार तक चलती है, इसे बुढ़वा मंगल केनाम से जाना जाता है और यह अपने विशिष्ठ अंदाज मे गुलाबबाड़ी व चैता के साथ सम्पन्न होती है. मजा यह है कि लगभग सप्ताह पर्यन्त चलने वाला यह संपूर्ण आयोजन बेहड शालीन व आनन्द मय होता है फिर उसमे हुड़दंग कहॉ है?
हुल्लड़ व हुड़दंग वाली रंग की होली बनारस मे होलिका दहन से ही शुरू हो जातीहै, ही कहीं तो भाई लोग होलिका दहन से लौटते हुये रास्ते मे गी रंग खेलना शुरू कर देते है और यह रंग पानी  कीचड़ पेन्ट दिन के खड़ी दूपहरिया यानि १२ बजे तक भरपूर होता है, फिर इसमे बनारस का वह रंग दिखता है जिसके लिये होली जानी जाती है, मन के कलुष का अभिव्यक्तिकरण, जहॉ गाली गलौज, बोली ठोली, हंसी मजाक सब माफ. पकड़ ,धर, भाग,ऊहे जात हौ सरवा, डाल दे ऊपर से, थाम ले नीचे से, खोल के डाल दे जैसे द्वि अर्थी बोलियो  व हँसी ठटोली से पूरा शहर गुंजायमान रहता है, घाटो पर पहुँचते ही ' आयल हौ सरवा उत्तर से, ... मरवलेस कबूत्तर से, जाये मत दिहे सारे के बच के, रगड़ त एके भित्तर से' और कबीरा का अपना अलग माहौल रहता है, कबीरा बनारस की एक अलग भाषाई संस्कृति है जो फागुन के महीने मे ही दिखती है, कबीर दास के लाईनो को आधार बना कर उन्हे द्विअर्थी व भदेस कर के कुण्डलियॉ पढ़ी जाती है और हर दो लाईना कुण्डलियो के बाद जोगीराााााााााा सर्रररररररररररररर की एक लम्बी टेक कबीरा को होलियाना मूड मे पेश करने का अंदाज है. इन कुण्डलियो का नाम कबीरा रखने के पीछे भी बड़ा महत्वपूर्ण रहस्य है. देश मे पहली बार धर्म जाति की बंदिसो को तोड़ कर प्रेम व सच के अलख जगाने वाले क्रंतिकारी कबीर बनारस के ही थे, कबीर ने हर उस कुरीति का मजाक उड़ाया जो  इंसानियत आपसी प्रेम व भाईचारे के बीच दूरियॉ बनाती थी, कबीर ने आपसी सद्भाव पर बल दिया और खुद को निर्मल कर प्रेम  को आधार मान ईश्वर को पाने की बात कही, बनारस का कबीरा उसी परंपरा का द्योतक है , इस परंपरा मे वह किसी को स्वीकार नही करते, न ही किसी का हस्तक्षेप स्वीका नही करते जो भी इस चपेटे मे आया वह तो लपटाया होली मे, फिर उसके सात पुश्तो के जनम मरन व पैदाइसी इतिहास भूगोल का विस्तृत व्यौरा काशिका मे दे दिया जायेगा,  जो लपटाया वह भी इसे बुरा नही मानता, बस मुस्करा के पान के पीक के बीच भाग ........ के साथ वह इसे कुर्ते पर पड़ेधूल की तरह झाड़ आगे बढ़ जाता है.
बहरहाल, हम भी जन्मना व कर्मणा दोनो से बनारसी है, वाणी से भी है पर उतने पक्के नही। भोर मे होलिका दहन के बाद घर मोहल्ले के बच्चे उत्साहित हो कर अलसुबह ही होलियाने लगे। हमारे पुत्र कृष्ना जी व उनके मित्र अक्षत तो इतने उत्साही थे कि एक दूसरे के ऊपर रमग रोगन कर दीवारो को ही रंगना शुरू कर दिये।कृस्ना जी है तो परिवार के सबसे छोटे सदस्य पर वे अपने पूरे ग्रुप को लीड करते हैं। उनके मित्र मंडली मे ५ से लेकर १८ साल तक के आसपास के बच्चे शामिस है। हम  सुबह सुबह घर के कई छूटे काम पूरा करने के चक्कर मे छत पर ही थे कि भाई लोगो की टोली आ गयी ।
साथ लगना ही था। शकल बनाये दोपहर तक हम लोग भी डॉय डॉय घूमते रहे कहीं होली की गुझिया कही होली की फार्मेलिटी। जो घर पर आ कर चौबे जी, जेपी, साहब भैया के साथ होली के सुरूर पर समाप्त हुई।
दोपहर के १२ बज चुके थे, अघोषित रूप से रंग वाली होली का समापन हो चुका था। हमने भी सस्तहवा ५/- रूपईया वाले लाईफबाय से रगड़ धो के चेहरा साफ किया व भोजनोपरान्त कालोनी के होली मिलन समारोह मे। यह होली मिलन समारोह भी एक अच्छी  परंपरा है, हर कोई एक ही स्थान पर मिल जाता है, न किसी के यहॉ देर तक बैठने की शिकायत न ही किसी के घर न जाने की शिकायत । समोसी, ठंडई के साथ सबसे मिलना जुलना व एक खुशनुमा त्योहार की विदाई।
शाम कुछेक खास मित्र, अपने लोग, आ गये थे।
भॉजा गोलू व बहू होली मिलने आये, अच्छा लगा। दोनो उड़ीसा के अंगुल मे रहते है, तीज त्योहार पर बनारस आते है। बच्चो के साथ घर भी खिलखिला उठता है।
देर शाम अपनी असली भौजी से होली मिलने गया, होली पर अबकी सादी सादी भौजी को थोड़ा सा रंगीन किया और उनका प्यारा वाला आशीर्वाद लिया।
शाम हर साल की तरह विशिष्ठ होली कवि सम्मेलन मे टाऊनहाल चलने की तैयारी।