शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

व्योमेश की कविताये: ख्वाब

देखा था एक ख्वाब कल रत नीद में
जीता हु होंगे सच , बस इस उम्मीद में
जो जिंदगी के ख्वाब हकीकत न बन सके
यादो के उस जहर को हम कैसे पी सके
आएगी उनको याद कभियो मेरे साथ की
सोचेंगे कैसे है वो मेरे रकीब में
यूँ जिंदगी में अक्सर तनहा रहा हु मै
बिखरने के ही ख्याल से लड़ता रहा हूँ मै
जीवन की डोर अब रुक जाती है बार बार
तमन्ना है उनको देखे अपने करीब में
हर ओरसे जब टूट मुझे मिला एक आसरा
उनको ही प् के साथ मुझे कुछ सुकून मिला
लेकिन ये जख्म मुझको लगना था अभी व्योम
कोई बंधा है पहले से उनके नसीब में

रविवार, 14 सितंबर 2008

व्योमेश की कविताये :नव सहस्राब्दी 2000

28 दिसम्बर 1999, बनारस

सहस्राब्दी के स्वागत में,
गंगा में तैरते अनगिनत दीप
घाटो परखड़े लोगो के हर्ष पूर्ण कोलाहल
हा-हर महदेओ के उद्घोष के बीच
गूंजते घंटा घड़ियाल और शंख्ध्वानियाँ
आने वाले हजार वर्षों को मंगलमय
सुभ औए शिवमय करने की आकांछा
बीते सदी की कटु अनुभवों और त्रासदी
भुलाने की धरीं इच्छाएं
निश्चित ही सुंदर ल्लागति है बेहद सुंदर
दीपों की सद्य प्रकाशित लड़ियॉ
अन्धकार और घने कोहरे को चीरती हुयी

काश इस मद्धिम प्रकाश से मिटा पते
हम अपने अन्तेर के अंधियारों को
फ़िर नही होती कोई हिंसा , वैमनस्यता
त्रासदी की अमानवीय क्रूर घटनाएँ
फैलता सद्भाव का प्रकाश
नव सहस्राब्दी में.
(बीसवीं सदी मे लिखी गई आखिरी कविता)
http://chitravansh.blogspot.com

व्योमेश की कविताये : शिवपुर संवासिनी काण्ड


ओ मम्मी
पनपा था एक रिश्ता हम दोनों के बीच ,
नही था वह खून का ,मुंह बोला ही सही ,
पर तुने कर डाला उस रिश्ते का खून ,
कलंकित ऐसा कि सडांध आती है
नाम लेते हुए भी उस रिश्ते की ,
तुने ये भी नही सोचा की यदि तेरी बेटी होती
तो वह भी होती मेरी ही उमर की,
जाने कितनी बार बांटा होता तुमने उससे उसकी बातो को ,
कितनी बार बनी होती तुम उसकी माँ से बढ़ कर सहेली
तूने तो उस के बदले सौदा कर डाला हमारा ,
अपने उन ढेर सारे सफेदपोश दोस्तों के संग
जो साँझ ढले आ जाते थे तुम्हारे आलिशान दफ्तर में,
उनसे भी रखवाया था रिश्ता तुमने चाचा,भाई और ताऊ का ,
हर शाम हो जाती थी तुम्हारी हथेलियाँ गर्म,
कड़े नए नोटों से,
जिन पर बापू की फोटो होती थी,
पर सहना पड़ता था जलालत हमे
तुम्हारे उन्ही दोस्तों के साथ,
जो दिन में होते थे हमारे चाचा, भइया, ताऊ
मम्मी,
तुम जो आज छिपा रही हो अपना चेहरा,
लोगो की निगाहों से,
नही छुपाना पड़ता तुम्हे उसे ,
यदि एक बार भी सोचा होता
हम भी बेटी है किसी माँ के
तुम्हारे जैसे.


( यह कविता वर्ष 2000 मे वाराणसी के चर्चित शिवपुर संवासिनी गृह काण्ड पर लिखी गई थी जो गुड़िया, दैनिक जागऱण, व पहरूआ के साथ अन्य कई पत्र पत्रिकाओं मे प्रकाशित हुई थी।)


शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

व्योमेश की कविताये: पत्थर की मूरत...

पत्थर की मूरत को हमने जिस दिन देवता मन लिया
उस दिन हमने मानव से बढ़ पत्थर को सम्मान दिया
मानव तो बस अपनी ही कहता अपने स्वारथ में रहता
अणि सीमाओ में रह कर लोगो को मन नही देता
पर पत्थर सबकी सुनता है अपनी कभी नही कहता
बारिश सर्दी धुप सहे पर कभी शिकायत न करता
बस इस कारन निजिवन को हमने जीवन देवता मान लिया।
हम नही जानते देव देवता है या महज कल्पना है
देवता स्वयं ही मानव है या वह भी एक वेदना है
इस लिए सख्त आकृति वाले देवता को पूजा है हमने
मानवता के आदर्शो को चुन केर देवता का नाम दिया
राम कृष्ण हो या शिव हो इस मानवता के वाहक है
मानवता के लिए दिया इनने अपना जीवन है
इन आदर्शो पर चलने जब मानव कोई नही आया
पत्थर को ही आदर्शो का अनुपूरक हम ने मान लिया.


व्योमेश की कविताये: आज इस ख्वाब को सच में....

आज इस ख्वाब को चलो सच में सजाया जाए
हम गरीबो का भी एक देव बनाया जाए.
देव ऐसा जो चडावे पे न बिक जाए
बस्तिया छोड़ कें महलो में ना वो बस जाये
हम उसक सुने, उससे कहे अपने गम
मन का दुःख दर्द जिसे जा के सुनाया जाए।
उसका मन्दिर मरमरका ना हो कच्चा हो
वह कुछ और भले हो ना मगर सच्चा हो
सोने चंडी की नही, मूरत तो भी क्या है गम
खेत की माटी से उसकी मूरत को बनाया जाए।
हम गरीबो की रोटी में जो खुश हो ले
हमारे टूटे हुए बर्तन में जो पानी पी ले
हमारे टूटे हुए झोपडी में सो जाए जो
ऐसे ही देव को मन्दिर में बसाया जाए।
जो हर शाम हर मेहनतकश को रोटी दे दे
दिन के थके हारे को रातो को एक छत दे दे
और कुछ न दे तो वो हमको सलामत रखे
अपने उस देव से बस ये ही मनाया जाए।

व्योमेश की कविताये: हम अपनी रह बना लेंगे....

रूठे खुशी , हँसी रूठे , तन थके हुए तो क्या
अपने पारो से चल कर ,हम मंजिल पास बुला लेंगे
सिसकी से जी बहला लेंगे ,आंसू कपोल सहला देंगे
पीड़ा तेरे ही आँचल में, हम संसार भुला देंगे
ले लो अपना फूल, सुरभि से महका लो अपना आँगन
कांटे ही दो हमें , हम काँटों से ही फूल खिला देंगे
अमृत तेरा हो जाए ,तुम जियो अमर हो कर लेकिन
विष ही दे दो हमे ,हलाहल विष पीकर प्यास बुझा लेंगे
तुम्हे उजालो से मतलब है ,जाओ अपना पथ पकडो
हम अंधियारी रातो में भी अपनी रह बना लेंगे
तुम महलो का सुख भोगो, तुम्हे मुबारक वह जीवन
मेरा अपना फक्कड़पन है ,सडको पे अलख जगा लेंगे
सुखी रहो ,तेरे सुख को मई नही बटने वाला हूँ
पीडा ही थाती है अपनी,हम पिदगले लगा लेंगे
पीडा मेरी जीवन संगिनी, सहचारी जीवन की
हम पिदाके पीडा मेरी, नभ को ब्यथा सुना लेंगे
होठ सी लिया है अब हमने ,हमको अब मूक ही समझो
पी न सकेंगे जब आंसू , हम मोटी से सज सजा लेंगे.

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

व्योमेश की कविताये: मिलन

बैठ चंद्र किरणों के रथ पर

सपनो में वह आई होगी

अपने आँचल के छोरों से

शीतल चवंर झलाया होगा

मृगनयनी आँखों में अश्रु की

दो बुँदे भर आई होगी

इतने दिन का छोह छिटक कर

मन भी बस भर आया होगा

सोचो तुम अपने अनुभव से

मन की मानस बिन्दु सुधा में

चंद्र चकोर कथा के जैसे

मिलन बड़ा सुखदाई होगा.

व्योमवार्ता / सूरज : व्योमेश चित्रवंश की पुरानी डायरी के पन्ने

दूर कही शाम ढले तक
पहाड़ के शिखर पर बैठा रहा
सूरज, उदास अनमना सा
पहाड़ ने सूरज से पूछा
क्यों ?, आज घर नही जाना
इतने उदास क्यों बैठे हो?
क्या आसमान से झगडा हुआ है
सूरज ने उसे देखा बहुत बेबसी से
फ़िर रुक रुक कर बोला
बहुत थके थके शब्दों में
नही, आसमान से झगडा नही हुआ है
घर भी जाना है , पर मै उदास हूँ
क्योकि आज धरती ने मुझसे पूछा था
की सूरज बाबा तुम किसके लिए चमकते हो?
क्या ख़ुद के लिए या इन्सान के लिए?
क्या तुम नही जानते कि 
आज के इन्सान को
रौशनी नही चाहिए
क्योकि वो अंधेरे में रहने का
आदी हो चुका है.
मै तब से सोच रहा हूं 
कि क्या मेरा तप कर जलते रहना 
बेमतलब व बेकार है? 
या मेरी नियति ही है 
तपते व जलते रहने की  
 क्योंकि मै सोचता हूं
कि हजारोंआशाये 
मेरे विश्वास  पर  टिकी हैं 
(बनारस,  17अक्टूबर 1996)
http://chitravansh.blogspot.com 



व्योमेश की कविताये: मुक्ति

कितना सुखमय होता है
बन्दानो से मुक्त होना
तोड़ना बेडियों का
स्वयं पे किशी के अधीनता का
स्वस्थ्य के लिए लाभप्रद
खुली हवा में साँस लेना
बंद कमरों की सडांध से निकल कर
कितनी मीठी होती है स्वंत्रता से
स्वयं की कमी
जो हाथ से मेहनत कर कमी गई हो
बजे आप को बंधक कर के
रखने के एवज में
कितना संतोष मिलता है
कागज के सफ़ेद सल्फो पर
कलि सतरों के बीच उभरती
अपनी कविताओ को देखना
बल्कि इन सबसे उपर
सबसे सुखद ,शांतिपूर्ण,गरिमामय होती है
ख़ुद की मर्जी
ख़ुद का निर्णय और
अपनी आजादी
जहाँ किसी का जोर नही
किसी का बोझ नही
बस मई और मेरी कविता
कविता लिखती कालम
आजादी से स्याही उगलती हुई.

व्योमेश चित्रवंश की कविताये: नूतन वर्षाभिनंदन

ओ आने वाले नव शिशु वर्ष
कैसे करूँ तेरा अभिनन्दन
तुझको दू आशीस,सुखी हो
या करू टेरता मई पूजन वंदन
बीते दिन बीते जैसे भी
आने वाले दिन शुभ होगें
सुखद ,शुभम, शिवमय हो केर
नव आशा का संचार करेंगे
आयेगा हर दिन लेकर
नव संदेश हमारे जीवन में
लोटे अपने राम हमारी
सुनी पड़ी अयोध्या में

नूतन वर्षाभिनन्दन, 2003, :व्योमेश की कविताये: तुम आ गए....01-01-2003

कल साँझ
ठिठक गए थे मेरे पाँव
मैदेर तक देखता रहा
गंगा में तरते दीप मालाओं को
बीत वर्ष को विदा देते हुए
शन्ख्धवनि, घंटे , घरियालों के मध्य
और आज अल सुबह
अचानक सुन कर किसी की आहट
मैंने खोल दिए थे द्वार
एक ठिठुरता कोहांसा भरा हवा का झोका
मुझे हौले से छूकर निकल गया
झनझना उठे तन मन के सुप्त तर
तभी मैंने पहचान ली थी
तुम्हारी पदचाप
तुम आ गए हो न नववर्ष?

व्योमेश की कवितायें / नया सूरज 02-011998

सुधियों के विस्तृत कोने में
पीछे छूती कितनी यादें
बीते वर्षों के दिन कितने
कितनी खट्टी मीठी यादें
कल एक नया सूरज आएगा
लायेगा वह नव प्रकाश
नव आशाएं, नव विश्वास
नए वर्ष की खुशियाँ थामे.

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

व्योमेश की कविताये: यादें 30-12-1999

आज मेरे संग फ़िर आ बैठी,
तेरी स्निग्ध , सलोनी यादें,
मन को हौले से छू जाती ,
फ़िर बन कर मिट जाती यादें।
रुक जाओ ओ जाती यादों ,
इतनी निष्ठुर विदा न लो तुम,
आने वाले सुखद क्षणों में,
फ़िर आने की बात करो तुम.

व्योमेश की कविताये: और एक शाम / 02.01.2006

........ और एक शाम
ढल गई, बीती रात,
गया साल, सूरज निकला ,
सुबह-सुबह, नया-नया,
पन्खुरियो पर ओस लिए,
कुछ फुल खिले है,
कलरव करती चिडियों में ,
उल्लास भरा है।
अपना मन भी करता है
उड़ जाने को ,
उत्साहित है नया नया ,
कुछ कर जाने को।
पaयेंगे निश्चित ही ,
हम अपनी मंजिल,
आने वाले नए वर्ष
नई सुबह में.